तमिलनाडु में ‘जल्लीकट्टू’ खेल क्यों शुरु हुआ?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

तमिलनाडु में पोंगल उत्सव के दौरान बैलों पर काबू पाने वाले लोकप्रिय खेल ‘जल्लीकट्टू’ आज मदुरै के अवनीयापुरम में कोविड दिशानिर्देशों के अंतरगत शुरू हुआ। इस खेल में 200 से अधिक बैल हिस्सा ले रहे हैं। वहीं कोरोना के चलते राज्य सरकार ने निर्देश दिया है कि किसी भी कार्यक्रम में खिलाड़ियों की संख्या 150 से अधिक नहीं होनी चाहिए। साथ ही दर्शकों की संख्या को भी सीमित करते हुए सभा के 50% से अधिक नहीं होने देने का आदेश दिया गया है।

सरकार के दिशानिर्देशों के अनुसार बैलों के मालिक और उनके सहायक जो अपने मवेशियों को खेल के लिए पंजीकृत कराएंगे उनकों पूर्ण टीकाकरण प्रमाण पत्र के साथ-साथ कार्यक्रम से अधिकतम 48 घंटे पहले कराई गई आरटी-पीसीआर की जांच रिर्पोट निगेटिव दिखानी होगी। इसके साथ ही उन्हें कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए पहचान पत्र जारी किए जाएंगे।

क्या है जल्लीकट्टू का खेल

जल्लीकट्टू सांडों को काबू करने का प्रारंपरिक खेल है। इसमें खास तरीके से सांडों को बंद जगह से छोड़ा जाता है, जिसका बाहर खेलने वालों की फौज मुस्तैदी से इंतजार करती है। इस खेल को देखने के लिए बेरिकेटिंग से बाहर बड़ी संख्या में दर्शक जमे रहते हैं। सांड को जैसे ही छोड़ा जाता है उसे पकड़ने के लिए लोग टूट पड़ते हैं और उसपर काबू पाने की कोशिश करते हैं। खेल में असली काम सांड के कूबड़ को पकड़कर उसे कैसे भी रोककर उसके सींग में कपड़े में बंधे सिक्कों को निकालना होता है।

सुप्रीम कोर्ट ने लगा दिया था बैन

साल 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने इस खेल पर बैन लगा दिया था। इसके बाद तमिलनाडु में इस प्रारंपरिक खेल को शुरू करने की मांग होने लगी थी। बाद में सरकार ने अध्यादेश लाकर इस खेल को फिर अनुमति दे दी थी।

तमिलनाडु का मदुरई (Madurai) इलाका जल्लीकट्टू का सबसे बड़ा केंद्र है. उसमें भी तीन स्थान सबसे प्रसिद्ध हैं. नंबर एक पर है अलंकानालुर (Alankanallur) का जल्लीकट्टू, जिसे देखने विदेशी पर्यटक भी आते हैं. वहां 17 जनवरी को इवेंट होगी. वैसे शुरुआत तो अवनियापुरम् (Avaniyapuram) से पोंगल (Pongal Festival) के दिन यानि 15 जनवरी को हो जाएगी. 16 जनवरी को पालामेडू (Palamedu) में जल्लीकट्टू खेला जाएगा. दूसरे इलाकों में यह खेल अलग-अलग दिनों में खेला जाता है और लगभग एक सप्ताह तक चलता है.

कैसे खेलते हैं जल्लीकट्टू
जल्लीकट्टू दरअसल सांडों को काबू में करने का खेल है. विशेष तरीके से प्रशिक्षित सांडों को एक बंद स्थान से छोड़ा जाता है, बाहर खेलने वालों की फौज मुस्तैद खड़ी रहती है. बेरिकेटिंग से बाहर बड़ी संख्या में दर्शक इसका आनंद उठाने के लिए जमे रहते हैं. जैसे ही सांड छोड़ा जाता है, वह भागते हुए बाहर निकलता है, लोग उसे पकड़ने के लिए टूट पड़ते हैं. असली काम सांड के कूबड़ को पकड़कर उसे रोकना और फिर सींग में कपड़े से बंधे सिक्के को निकालना होता है. लेकिन बिगड़ैल और गुस्सैल सांड को काबू में करना आसान नहीं होता. अधिकांश को असफलता हाथ लगती है और कई लोग इस कोशिश में चोटिल भी हो जाते हैं. इस कवायद में कइयों की जान भी चली जाती है. लेकिन परंपरा और रोमांच से जुड़े इस खेल के प्रति खिलाड़ियों और दर्शकों का जुनून गजब का होता है. जो विजयी होते हैं उनको ईनाम मिलता है. अब तो बेटिंग भी होने लगी है.

जल्लीकट्टू की प्राचीन परंपरा
जल्लीकट्टू विशुद्ध ग्रामीण खेल है, जो तमिलनाडु की प्राचीन परंपरा से जुड़ा है. कुछ लोग इसका इतिहास ढाई हजार वर्ष पुराना बताते हैं. खेल की शुरुआत ई.पू. 400-100 के बीच मानते हैं, जिसे तमिल शास्त्रीय काल कहा जाता है. तमिल संस्कृति के जानकार बताते हैं कि यह खेल अय्यर लोगों में प्रचलित था, जो तमिलनाडु के मुल्लै नामक भूभाग में रहते थे, जो अभी का मदुरई इलाका है. सांड के सींग में जो कपड़े से सिक्का बांधा जाता है, वहीं इसके मूल में है. बताते हैं कि ‘जल्ली’ शब्द दरअसल तमिल के ‘सल्ली’ से बना है, जिसका अर्थ ‘सिक्का’ है और कट्टू का अर्थ ‘बांधा हुआ’ होता है. कई स्थानों पर शादी के स्वयंवर के तौर पर सांड पकड़ने की परपंरा का उल्लेख मिलता है. कभी शौर्य और वीरता का पर्याय रहा यह उत्सव अब महज खेल और मनोरंजन के रुप में परिवर्तित हो चुका है. लेकिन तमिल लोगों में इसका क्रेज जबर्दस्त है.

सांडों को दिया जाता है प्रशिक्षण
जल्लीकट्टू में भाग लेने वाले सांडों की एक विशेष प्रजाति होती है. इसको पालने वाले साल भर इसे खूब खिला-पिलाकर मजबूत बनाते हैं. पर्व नजदीक आने पर इनको विशेष ट्रेनिंग दी जाती है. मदुरई के गांवों में सांडों को सुबह-शाम रियाज कराने का काम होता है. इसके तहत रोज बड़े जलाशय में तैराकी करायी जाती है. एक और विशेष ट्रेनिंग होती है जिसे तमिल में मान कुत्थाल ( Mann kuthal) कहते हैं.

इसमें सांड अपनी सींग से जमीन खोदते हैं. यह ट्रेनिंग बहुत विशिष्ट और श्रमसाध्य होती है. प्रशिक्षण पाए सांड का फिर मेडिकल टेस्ट होता है और तब जाकर जल्लीकट्टू के लिए उनका रजिस्ट्रेशन होता है. इसमें भाग लेने वाले खिलाड़ियों को भी रजिस्ट्रेशन और मेडिकल टेस्ट से गुजरना पड़ता है. कोविड के चलते इस बार नियम थोड़ा और सख्त है.

विवाद और प्रतिबंध
पिछले कुछ वर्षों में जल्लीकट्टू को लेकर विवाद भी हुआ और मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा. पशुप्रेमियों की एक संस्था की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में इस खेल पर रोक लगा दी. कहा गया कि जानवरों पर अत्याचार होता है, सैकड़ों लोग घायल होते हैं और कई लोग जान गंवा बैठते हैं. लेकिन परंपरा और आस्था का हवाला देकर पूरा तमिलनाडु फैसले के खिलाफ आंदोलित हो गया. आम तमिलियन से लेकर फिल्म और राजनीति से जुड़े लोग भी जल्लीकट्टू को जारी रखने के पक्ष में गोलबंद हो गये. सीएम ने प्रधानमंत्री से मिलकर हस्तक्षेप करने की गुहार लगाई. सुपरस्टार रजनीकांत से लेकर कमल हासन तक आम लोगों की भावना के साथ खड़े रहे. आखिरकार एक अध्यादेश के जरिये खेल की परंपरा को जारी रखने की अनुमति दे दी गई.

बुलफाइटिंग नहीं है जल्लीकट्टू
अधिकांश लोग जो इस खेल की पद्धति और परंपरा से अनभिज्ञ हैं वो इस खेल की तुलना स्पेन की बुलफाइटिंग (Bullfighting) से करते हैं. लेकिन हकीकत में यह खेल स्पेन के खेल से काफी भिन्न है. इसमें बैलों (सांड) को मारा नहीं जाता और ना बैल को काबू करने वाले युवक किसी तरह के अस्त्र-शस्त्र का इस्तेमाल करते हैं. हां बैलों को गुस्सैल बनाने के लिए शराब पिलाने का आरोप भी लगता रहा है. वैसे प्राचीन काल से ही तमिल समाज शिवभक्त रहा है, सांड को शिव की सवारी नंदी के तौर पर पूजा जाता है. एक मान्यता यह भी है कि सांड को काबू में करने से भगवान शिव प्रसन्न होते हैं.

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