CoP27: जलवायु परिवर्तन रोकने में नाकाम क्यों हो रहे हैं, सभी देश ?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
मिस्र के शहर ‘शर्म-अल-शेख’ में रविवार से 27वां अंतरराष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन सम्मेलन शुरु हो गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य देशों की “कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज” (COP27) नामक यह सम्मेलन 6 नवंबर से 18 नवंबर तक आयोजित होगा। इस 27वें विश्व सम्मेलन में हालांकि कोई बड़ी उपलब्धि हासिल होने की उम्मीद नहीं है, फिर भी सप्ताह भर वैश्विक जलवायु की स्थिति के बारे में व्यापक विचार विमर्श होगा। उम्मीद है कि इस सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए विकासशील देशों के लिए प्रस्तावित आर्थिक मदद के बारे में जोरदार ढंग से चर्चा हो।
जलवायु सम्मेलनों से वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने की कार्रवाईयों को ताकत मिलती है। सम्मेलन का यही महत्व होता है क्योंकि समस्या जितनी बड़ी है, उस लिहाज से हो रही कार्रवाइयां नाकाफी साबित हो रही हैं। जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए होनेवाली कार्रवाईयां मंथर गति से चल रही हैं जबकि वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी तेज गति से हो रही है।
पेरिस समझौते में विकासशील देशों को विभिन्न कार्यों के लिए आर्थिक रूप में सहायता देना तय हुआ था। लेकिन अभी तक यही तय नहीं हो सका है कि यह पैसा किस रूप में मिलेगा। सहायता सस्ता कर्ज होगा या रियायत के रूप में मिलेगी। उल्लेखनीय है कि इस मद में विकासशील देशों को 100 खरब डालर मिलने की घोषणा पेरिस सम्मेलन के दौरान हुई थी। पर इसकी रूपरेखा अभी तक निर्धारित नहीं हो सकी है।
ढाई दशक पहले वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन रोकने की कोशिशें शुरू की गईं थी। हालांकि तब से वास्तविक स्तर पर ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन बढ़ ही रहा है। वर्तमान में इसकी मात्रा 50 खरब टन कार्बन डायऑक्साइड के समतुल्य हो गया है। 2010 से 2019 के दशक में वैश्विक उत्सर्जन में तुलनात्मक रूप से लगभग 1 प्रतिशत की दर से बढ़ोतरी हुई जो उसके पहले के दशक (2000-2010) में 2.6 प्रतिशत के मुकाबले काफी कम था।
फिर भी यह जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने के लिहाज से संतोषजनक नहीं है। हालांकि अगर उत्सर्जन में बढ़ोतरी को तत्काल एकदम रोक दिया जाए या इसके घटने की स्थिति बना दी जाए तब भी समस्या समाप्त नहीं हो जाएगी। इसका कारण है कि धरती के तापमान में बढ़ोतरी उत्सर्जन के इतने दिनों से इकट्ठा होने की वजह से हो रहा है, न कि वर्तमान कार्बन उत्सर्जन की वजह से हो रहा है। ग्रीनहाऊस गैसों में मुख्य कार्बन डायअक्साइड सैकडों वर्षों से वायुमंडल में विद्यमान है। इसलिए अभी तत्काल उत्सर्जन बंद हो जाने का असर कई दशकों के बाद दिख सकेगा।
इस बीच, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनडीपी) ने एक रिपोर्ट जारी कर बताया है कि पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने के लिहाज से वैश्विक तैयारी काफी कमजोर है। और वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखने का कोई उपाय नजर नहीं आ रहा। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत और छह अन्य शीर्ष उत्सर्जक देशों में उत्सर्जन की मात्रा में कोरोना महामारी के बाद उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई है।
इन सात शीर्ष कार्बन उत्सर्जकों में चीन, यूरोपीय संघ, भारत, इंडोनेशिया, ब्राजील, रुस और अमेरिका के साथ अंतर्राष्ट्रीय परिवहन मिलकर वैश्विक उत्सर्जन में 55 प्रतिशत की हिस्सेदारी करते हैं। यह सन 2020 का आंकड़ा है। जी 20 के देश साझा रूप से वैश्विक ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन के 75 प्रतिशत के जिम्मेवार हैं। प्रति व्यक्ति उत्सर्जन का आंकलन करें तो वर्ष 2020 में प्रति व्यक्ति औसत उत्सर्जन 6.3 टन कार्बन डायऑक्साइड रहा जबकि अमेरिका 14 टन और रुस 13 टन कार्बन डायअक्साइड का जिम्मेवार रहा। भारत की हिस्सेदारी केवल 2.4 टन कार्बन डायऑक्साइड था।
Climate Change:साल 2015 से 2022 सबसे गर्म रहने का अनुमान, इस वर्ष 1.15 डिग्री ज्यादा तापमान- WMO की रिपोर्ट वैश्विक तापमान में औसत बढ़ोतरी पिछले एक दशक में पहले से अधिक तेजी से हुई है। यह रुझान अगले दशकों में तेज ही होने वाला है। ताजा आंकड़े बताते हैं कि औसत वैश्विक तापमान अभी ही पूर्व औद्योगिक तापमान से एक डिग्री सेल्सियस से अधिक हो गया है। यह औसतन 1.1 डिग्री सेल्सियस अधिक है।
अमीर और औद्योगिक देश जो मुख्य प्रदूषणकर्ता हैं और इसलिए उत्सर्जन कम करने की मुख्य जिम्मेवारी उनकी ही है, पर वे सामूहिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए कार्रवाईयों की जिम्मेवारी से मुकर रहे हैं। भारत और चीन जैसे विकासशील देशों में भी उत्सर्जन में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। उन्हें कम उत्सर्जन वाली तकनीकों को अपनाने और नई परिस्थितियों से तालमेल बिठाने के लिए आर्थिक सहायता देने की बात हुई थी जिसकी स्थिति अभी तक साफ नहीं है। यूरोपीय देशों ने जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने के लिहाज से तुलनात्मक रूप से अच्छा काम किया है। इंगलैंड जो अभी आर्थिक मंदी का शिकार है, अपने उत्सर्जन स्तर को 1990 की स्थिति में ले जाने के लिए जरूरी कार्रवाई कर रहा है।
अमेरिका जो हाल तक विश्व का सर्वाधिक प्रदूषणकारी देश रहा है, अब चीन ने उसे पछाड़ दिया है। चीन का प्रदूषण 1990 के मुकाबले करीब चार गुना बढ़ा है। भारत का करीब तीन गुना बढ़ा है। वर्तमान में वैश्विक प्रदूषण 1990 के स्तर से करीब 50 प्रतिशत अधिक है। कुल मिलाकर वैश्विक जलवायु लक्ष्य अभी तापमान में बढ़ोतरी को पूर्व औद्योगिक स्थिति से 2 डिग्री अधिक नहीं होने देना है। बेहतर हो कि इसे 1.5 डिग्री पर रोक दिया जाए। लेकिन वर्तमान हालत में इस लक्ष्य को पाना एक सपना लगता है। ताजा आंकलन बताता है कि जलवायु संरक्षण संबंधित कार्रवाइयों को अगर तत्काल तेज नहीं किया गया तो वैश्विक तापमान में इस शताब्दी के अंत तक 2.8 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो जाएगी।
वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस के भीतर रखने के लिए कार्बन उत्सर्जन को वर्तमान 50 खरब टन से घटाकर 2030 तक 33 खरब टन तक ले आना होगा और 2050 तक 8 खरब टन तक पहुंचा देना होगा। एक नए अध्ययन के अनुसार 2 डिग्री के लक्ष्य तक सीमित रहने के लिए कार्बन उत्सर्जन को 2030 तक 41 खरब टन और 2050 तक 20 खरब टन करना होगा। भारत समेत कई देशों ने जलवायु जनित संकल्पों को ग्लासगोव सम्मेलन (कॉप-26) में स्पष्ट किया था और यह सोचना ठीक नहीं है कि इस सम्मेलन में कोई देश कोई नया संकल्प लेगा।
विचार विमर्श में जलवायु जनित आपदाओं की चर्चा हो सकती है, जैसे पाकिस्तान की अप्रत्याशित व विनाशकारी बाढ़। इसे देखते हुए प्रभावित देशों की ओर से जलवायु परिवर्तन से होने वाली आपदाओं के लिए क्षतिपूर्ति की मांग उठ सकती है। भारत जलवायु कोष में 100 खरब डालर देने के मामले को जोरदार तरीके से उठाने वाला है। यह रकम तकनीकी के स्थानांतरण में रियायत के रुप में मिलेगा या सस्ते कर्ज के रूप में या पूरी तरह अनुदान के रुप में, यह स्पष्ट नहीं है।
यूक्रेन युध्द के कारण उत्पन्न ऊर्जा और आर्थिक संकट की वजह से जलवायु कार्रवाई की दिशा में मामूली सफलता भी मिलती नहीं दिख रही है। बल्कि जो सफलताएं मिली हैं, उनके भी बिगड़ जाने की संभावना उत्पन्न हो गई है। स्वाभाविक है धरती के बढते तापमान को रोकने के लिए संकल्प होते हैं, लेकिन उसका कोई अनुपालन नहीं होता है। इसीलिए दुनियाभर के देश मिलकर भी जलवायु परिवर्तन को रोकने में सफल नहीं हो पा रहे हैं।