मन चंगा तो कठौती में गंगा

मन चंगा तो कठौती में गंगा

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

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एक दिन की बात है। एक संत अपनी झोपड़ी में बैठे प्रभु का स्मरण करते हुए जूते बना रहे थे। तभी एक ब्राह्मण उनके पास अपना जूता ठीक कराने आये। संत ने पूछा, “कहाँ जा रहे हैं?”
ब्राह्मण बोले, “गंगा स्नान करने जा रहा हूँ।”
जूता ठीक करने के बाद ब्राह्मण द्वारा दी मुद्रा को वापस ब्राह्मण को देते हुए संत ने कहा, “मैं अपने काम में बहुत व्यस्त हूँ। आप यह मुद्रा मेरी तरफ से माँ गंगा को चढ़ा देना।”
ब्राह्मण ने गंगा स्नान के बाद गंगा जी में मुद्रा समर्पित करते हुए कहा- “हे गंगे, संत की मुद्रा स्वीकार करो।”
वह अगला दृश्य देखकर आश्चर्यचकित रह गया। गंगा से एक हाथ बाहर आया और उस मुद्रा को लेकर बदले में ब्राह्मण को एक सोने का कंगन दे दिया।

ब्राह्मण जब गंगा मैया का दिया कंगन लेकर वापस लौट रहा था, तब उसके मन में कलुषित विचार आया कि संत को क्या पता कि गंगा मैया ने बदले में कंगन दिया है। मैं इस कंगन को राजा को दे देता हूँ, जिसके बदले मुझे बहुत उपहार मिलेंगे और मैं आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत करूँगा।

उसने कंगन राजा को भेंट कर दिया। राजा ने ऐसा आकर्षक कंगन पहली बार देखा था। वे बहुत प्रसन्न हुए। बदले में ब्राह्मण को बहुत उपहार देकर विदा किये। राजा अब वह कंगन लेकर रानी के पास पहुँचे। रानी को वह कंगन बहुत पसंद आया। वह खुश हो गई और बोली, “महाराज, मैं एक हाथ में कंगन पहनकर उपहास का पात्र बनना नहीं चाहती। यदि आप मुझे प्रेम करते हैं तो मुझे ऐसा ही एक और कंगन दूसरे हाथ के लिए मँगा दीजिए।”

राजा ने ब्राह्मण को बुलाकर वैसा ही एक और कंगन लाने का आदेश दिया तथा चेतावनी दी कि अगर आदेश का पालन शीघ्र नहीं हुआ तो दंड का पात्र बनना पड़ेगा।
ब्राह्मण परेशान हो गया। जब कोई उपाय नहीं दिखा तो डरा हुआ ब्राह्मण संत के पास पहुँचकर सारी बात बता दी।

संत ने आश्वासन दिया, “तुमने मुझे बिना बताए राजा को कंगन भेंट कर दिया, इससे परेशान न हो। तुम्हारे प्राण बचाने के लिए मैं गंगा मैया से दूसरे कंगन के लिए प्रार्थना करता हूँ।”
ऐसा कहते ही संत ने अपनी वह कठौती में हाथ डुबायी, जिसमें वो चमड़ा गलाते थे। उसमें पानी भरा था। संत ने माँ गंगा का आह्वान कर अपनी कठौती से हाथ बाहर निकाला। एक वैसा ही कंगन संत के हाथ में प्रकट हो गया। संत ने वो कंगन ब्राह्मण को दे दिया। ब्राह्मण खुश होकर राजा को वह कंगन भेंट करने चला गया।
कहते हैं, तभी से यह कहावत प्रचलित हुई कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’।

क्या आप जानते हैं कि वो संत कौन थे? वो थे संत शिरोमणि पूज्य रविदास। उन्हें रैदास के नाम से भी जाना जाता है। वे महान् संत रामानंदाचार्य के शिष्य थे तथा चित्तौड़ की रानी व कृष्णभक्त महान् कवयित्री मीराबाई के आध्यात्मिक गुरु थे।

संत रविदास का जन्म सन् 1377 में काशी में माघ पूर्णिमा को सीर गोवर्धनपुर में हुआ था। उनका एक दोहा प्रचलित है-
चौदह सौ तैंतीस की माघ सुदी पन्दरास।
दुखियों के कल्याण हित प्रगटे श्री रविदास।

संत रविदास एक चर्मकार (चमार) परिवार में पैदा हुए थे। उनके पिता का नाम संतोख दास (रग्घु) और माता का नाम कलसा देवी बताया जाता है। जिस दिन उनका जन्म हुआ, वह रविवार था। इस कारण उन्हें रविदास कहा गया। जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने इसे सहर्ष अपनाया। वे अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे।

संत रविदास बचपन से ही आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे। कामकाज वे करते तो थे, पर उसमें उनका मन नहीं लगता था। वे ईश्वर भक्ति तथा समाजसेवा में लगे रहते थे। इसलिए उनके माता-पिता ने जल्दी ही उनका विवाह लोना देवी से कर दिया, ताकि अपनी घर-गृहस्थी पर वे ध्यान दे सकें। उनको एक पुत्र भी हुआ, नाम था विजयदास। पर उनका मन कभी भी सांसारिक मायामोह में रमा ही नहीं। वे हमेशा ईश्वर भक्ति में लीन रहते थे; हालाँकि जीविकोपार्जन के लिए जूते बनाने व मरम्मत करने का काम पूरी ईमानदारी व तन्मयता से करते थे।

संत रविदास की प्रारंभिक शिक्षा पंडित शारदानंद की पाठशाला में हुई। पंडित जी रविदास की प्रतिभा से बहुत प्रभावित थे। इसलिए उनपर विशेष ध्यान रखते थे। बाद में रविदास जी का सम्पर्क प्रसिद्ध निर्गुण संत कबीरदास से हुआ और बताया जाता है कि कबीरदास के कहने पर ही संत रविदास ने उस समय के प्रख्यात वैष्णव संत रामानंदाचार्य से दीक्षा ली। वे भक्ति धारा के एक प्रसिद्ध कवि थे।

संत रविदास जाति-पाति, ऊँच-नीच, भेदभाव के घोर विरोधी थे। इसके लिए उन्हें कुछ कट्टरपंथियों का कोपभाजन भी बनना पड़ा। उन्होंने सीधे-सीधे लिखा है-
‘रैदास जन्म के कारने होत न कोई नीच।
नर कूं नीच कर डारि है,ओछे करम की नीच।

यानी कोई भी व्यक्ति सिर्फ अपने कर्म से नीच होता है। जो व्यक्ति गलत काम करता है वो नीच होता है। कोई भी व्यक्ति जन्म के हिसाब से कभी नीच नहीं होता।
संत रविदास ने हमेशा गुण का सम्मान करने की बात कही। उनका मानना था कि कोई भी व्यक्ति किसी जाति में जन्म लेने के कारण पूजनीय नहीं हो जाता। उन्होंने लिखा है –
ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुणहीन।
पूजिए चरण चंडाल के जो होने गुण प्रवीन।।

अर्थात् ऊँची जाति में जन्म लेने से ही कोई आदर का पात्र नहीं होना चाहिए, बल्कि गुणवान व्यक्ति किसी भी जाति का हो, पूजनीय है।
संत रविदास द्वारा सुल्तान सिकंदरशाह लोधी की क्रूरता का विरोध करने के कारण उन्हें बंदी बनाकर जेल में डाल दिया गया। जनता ने संत रविदास के समर्थन में विरोध प्रदर्शन करना प्रारंभ कर दिया।अंत में डरकर सुल्तान ने उन्हें आदरपूर्वक रिहा कर दिया। कहा जाता है कि सुल्तान ने ही सदन कसाई को रविदास से शास्त्रार्थ में पराजित कर इस्लाम धर्म स्वीकार कराने के लिए भेजा था। पर दाँव उलटा पड़ा। रविदास से प्रभावित होकर सदन कसाई स्वयं वैष्णव बन गया। ऐसे चमत्कारिक थे संत रविदास।

संत रविदास ने भक्ति के बहुत पद लिखे हैं। उनके लिखे 41 पद सिख पंथ के ‘गुरुग्रंथ साहिब’ में संकलित हैं। उनका लिखा यह पद बहुत प्रसिद्ध है –
प्रभुजी, तुम चंदन हम पानी।
जाकी अंग-अंग बास समानी।।

संत रविदास ने अपने नश्वर शरीर का त्याग काशी में ही किया। उनके नाम पर वहाँ पर ‘गुरु रविदास स्मारक और पार्क’ बना है। आज वे हमारे बीच नहीं हैं, पर उनके उपदेश, उनका जीवन हमारे लिए हमेशा पथप्रदर्शक की भूमिका में रहेगा।

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