जाति गणना से जातिगत भेदभाव कम करने में मदद मिलेगी

जाति गणना से जातिगत भेदभाव कम करने में मदद मिलेगी

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

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भारत सरकार ने एलान किया है कि अगली जनगणना में जातिवार आंकड़े भी जमा किए जाएंगे.100 साल बाद ऐसा होगा.इससे जाति आधारित भेदभाव पर कितना असर पड़ेगा?करीब 100 बाद आखिरकार भारत में जाति जनगणना होगी.यानी असल में पता चल पाएगा कि किस जाति के कितने लोग रहते हैं.विशेषज्ञों के मुताबिक, भारत सरकार का अगली जनगणना में जाति को शामिल करना बड़ा बदलाव लाने वाला हो सकता है.

जातिगत जनगणना का समर्थन कर रहे कई विशेषज्ञ रेखांकित कर रहे थे कि भारत में सामाजिक ताने-बाने से लेकर राजनीति और नौकरियों तक, जातिगत पहचान की भूमिका बेहद अहम है.ऐसे में जातिवार आबादी का आंकड़ा ना होना अपने आप में एक विडंबना है.विशेषज्ञों का यह भी तर्क है कि इस आंकड़े से कल्याणकारी योजनाओं की रूपरेखा अधिक सकारात्मक हो सकती है.जाति जनगणना करवाने का निर्णय केवल प्राशासनिक या सांख्यिकीय नहीं है,

बल्कि इसके गहरे ऐतिहासिक, सामाजिक और राजनीतिक निहितार्थ हैं.जाति जनगणना की एक लंबी पृष्ठभूमि रही है, जिसकी शुरुआत औपनिवेशिक काल यानी अंग्रेजों के राज में हुई थी.जाति का वर्गीकरणभारत में जाति गणना की शुरुआत ब्रिटिश शासन के दौरान हुई.देश में आम जनगणना 1871 से नियमित रूप से शुरू हुई, लेकिन 1881 की जनगणना से जातियों की व्यवस्थित गणना शुरू की गई.हालांकि, कई आलोचक इसे भारत में जातीय पहचान को और ज्यादा पुख्ता करने की साजिश के तौर पर देखते हैं.

इतिहासकार निकोलस डिर्क्स ने अपनी चर्चित किताब “कास्ट्स ऑफ माइंड” में लिखा, “औपनिवेशिक राज्य ने अपने जातीय सर्वेक्षणों और जनगणनाओं के माध्यम से भारत की लचीली और संदर्भ-आधारित सामाजिक पहचानों को स्थिर वर्गों में बदल दिया”यानी, जो जातियां पहले लचीली थीं, उन्हें ब्रिटिश शासन ने स्थायी, कठोर पहचान बना दिया गया. बहुत से विशेषज्ञ मानते हैं कि इसी प्रक्रिया ने जाति को भारतीय समाज 9के में केंद्र में ला खड़ा किया.हालांकि, यह गणना कुछ ही दशक तक चली.1931 का सेंसस वह आखिरी जनगणना थी,

जिसमें सभी जातियों के आंकड़े जमा किए गए.उसके बाद से केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का ही डेटा इकट्ठा किया जाता रहा है.दिलचस्प बात यह है कि मंडल आयोग (1980) ने ओबीसी की आबादी का अनुमान इन्हीं 1931 के आंकड़ों के आधार पर लगाया और सुझाव दिया कि ओबीसी की आबादी लगभग 52 फीसदी है.यही आंकड़ा 1990 में आरक्षण नीतियों का आधार बना.स्वतंत्र भारत और “जातिहीन” राष्ट्र की कल्पनाआजादी के बाद भारत में सरकार ने विस्तृत जाति जनगणना से दूरी बना ली.विशेषज्ञों के अनुसार, इसके पीछे वही डर काम कर रहा था कि जाति गणना सामाजिक विभाजन को और बढ़ा सकती है.

इस बारे में टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान में शोधकर्ता डॉ.आरबी भगत अपने शोध “सेंसर एंड कास्ट इन्युमरेशन” में लिखते हैं, “स्वतंत्रता के बाद भारत में नवगठित सरकार जातिगत जनगणना को फिर से शुरू करने से डर रही थी.इससे सांप्रदायिक सौहार्द, शांति और भारतीय राष्ट्र की एकता टूट सकती थी”तब सरकार एक जातिहीन देश का सपना देख रही थी.भारत की लोकतांत्रिक परियोजना एक “जातिहीन” समाज की ओर बढ़ना चाहती थी,

लेकिन जाति भारत के रोम-रोम में ऐसी बसी हुई है कि यह सपना केवल कागजों पर संभव हुआ.2011 में केंद्र सरकार ने पहली बार 1931 के बाद सभी जातियों की गिनती करने की कोशिश की.यह प्रयास सोशियो-इकोनॉमिक एंड कास्ट सेंसस (एसईसीसी) के जरिए से हुआ. तब देश में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार थी, जिसने 2011 की जनगणना में जाति आधारित आंकड़े जमा करने का निर्देश दिया.यह काम 1948 के “सेंसस ऑफ इंडिया ऐक्ट” के जरिए नहीं हुआ, बल्कि रजिस्ट्रार जनरल और सेंसस कमिश्नर ऑफ इंडिया ने इसे अलग से किया.

इसके नतीजे आने तक मनमोहन सिंह की सरकार जा चुकी थी और नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बन गए थे.जुलाई 2014 में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री स्वर्गीय अरुण जेटली ने इस सर्वे के आंकड़े जारी किए.इसके मुताबिक, देश में अनुसूचित जाति के लोगों की संख्या 21.53 फीसदी थी.इसके अलावा जाति आधारित कोई आंकड़ा सार्वजनिक नहीं किया गया.तब कई राज्यों की सरकारों ने आरोप लगाया कि जान-बूझकर सरकार ने जाति के आंकड़ों को सार्वजनिक नहीं किया.आलोचकों का कहना था कि आंकड़े छिपाने से जाति नहीं छिपती.फिर धीरे-धीरे देश में जाति आधारित जनगणना की मांग तेज होती गई.

जाति जनगणना की नई मांग और राजनीतिबिहार जैसे राज्यों ने हाल ही में जाति सर्वेक्षण किए हैं.2023 में बिहार सरकार के सर्वे में पता चला कि ओबीसी और ईबीसी ही राज्य की कुल आबादी का 63 फीसदी से ज्यादा हैं.इससे अन्य राज्यों में भी जाति सर्वेक्षण की मांग बढ़ी है.कर्नाटक, ओडिशा और महाराष्ट्र में भी जाति आधारित डेटा पर राजनीतिक बहसें तेज हुई हैं.

साल 2018 में “सेज जर्नल्स” में छपे एक लेख “काउंटिंग कास्टः सेंसस, पॉलिटिक्स एंड कास्टलेसनेस इन इंडिया” में त्रिणा विथ्याथिल लिखती हैं, “उपनिवेशवाद के बाद जनगणनाओं में जाति गणना को केवल पूर्व-अछूतों तक सीमित कर देना, जातिविहीनता को एक राष्ट्रीय आदर्श के रूप में संस्थागत करने की प्रक्रिया के बिल्कुल अनुरूप है, जबकि जाति अब भी सामाजिक और आर्थिक जीवन को संरचित करती है”यानी, एक ओर सरकारें जातिहीन समाज की बात करती रहीं,

लेकिन दूसरी ओर वास्तविक जीवन में जाति हर स्तर पर मौजूद रही.लंबे समय से उठ रही मांगों के बाद 30 अप्रैल 2025 को केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने घोषणा की कि आगामी जनगणना में जातियों की भी गिनती की जाएगी.उन्होंने कहा, “जनगणना एक संघीय विषय है.कुछ राज्यों ने सर्वेक्षण किए हैं, लेकिन वे हमेशा पारदर्शी नहीं रहे.

राष्ट्रीय जनगणना सही तरीके से और संवैधानिक रूप से कराई जाएगी”क्या इससे जाति जाएगी?विशेषज्ञों के अनुसार, यह कदम अब केवल राज्यों की राजनीति का हिस्सा नहीं रहेगा, बल्कि एक संघीय नीति के रूप में अपनाया जाएगा.इसके आलोचक भी हैं.जाति जनगणना पर बहस आज भी तेज है.समर्थकों का मानना है कि यह सामाजिक न्याय की दिशा में एक आवश्यक कदम है.जैसा कि प्रोफेसर योगेंद्र यादव लिखते हैं, “आप सामाजिक असमानताओं को तब तक ठीक नहीं कर सकते, जब तक आप उन्हें माप नहीं सकते” विशेषज्ञ कहते हैं कि जाति आधारित नीतियों के लिए डेटा जरूरी है.

आलोचकों को डर है कि इससे सामाजिक विभाजन और गहरा होगा.राजनीति वैज्ञानिक सुहास पलशीकर ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखे अपने लेख में चेतावनी दी, “जातियों की गणना सार्वजनिक जीवन में उनकी महत्ता को कम करने के बजाय और मजबूत कर सकती है” यही बात निकोलस डिर्क्स ने अपनी किताब में भी कही थी.इन तर्कों के जवाब में कई विशेषज्ञ ध्यान दिलाते हैं पिछले 100 साल से जाति नहीं गिनी गई, लेकिन इससे ना जाति गई, ना उसके साथ जुड़े भेदभाव और यातनाएं.क्या गिनने से ऐसा हो पाएगा?.

 

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