भाषा को सियासत की बैसाखी की जरूरत नहीं,क्यों?

भाषा को सियासत की बैसाखी की जरूरत नहीं,क्यों?

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

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आजादी से पहले रोजी-रोटी की तलाश में अपने पूर्वांचल से बंबई पहुंचे। ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे। विरार में ठिकाना बनाया। टोकरी में केले बेचने लगे। मेहनत और लगन ऐसी कि धीरे-धीरे वे केले के बड़े व्यापारी बन गए। दादर में दुकान खुली, भुसावल से पूरी मालगाड़ी भर के केले आने लगे। इस बीच उनका राजनीतिक दखल भी बढ़ा। स्थानीय राजनीति में सक्रिय हुए।

हिंदी के शिक्षकों भर्ती करायी। पड़ोस में गुजराती और मराठी परिवार थे। लिहाजा उन्होंने गुजराती और मराठी भाषा भी सीख ली। मराठी अखबार के नियमित पाठक बने। आज हमारी चौथी पीढ़ी बंबई में है।

हमारे परिवार का हर शख्स कम से कम पांच भाषाएं, भोजपुरी, हिंदी, अंग्रेजी, गुजराती, मराठी को जानता है। किसी ने जबरदस्ती या दबाव में ये भाषाएं नहीं सीखीं। ये तो बस जिंदगी के साथ बहते हुए, पड़ोसियों के साथ हंसी-मजाक में, बाजार की चहल-पहल में आ गईं। मैं खुद आठ साल वर्धा में रहा, मराठी इलाके में। मराठी समझ लेता हूं, कामचलाऊ बोल भी लेता हूं। भाषा यूं ही सीखी जाती है।

पर, आज भाषा के नाम पर जो खेल चल रहा है, वह न भाषा का भला करेगा, न समाज का। ठाकरे बंधु और उनके जैसे सियासतदां भाषा को हथियार बनाकर अपनी राजनीति की रोटियां सेंक रहे हैं। यह भाषा की आड़ में वजूद बचाने की मुहिम है, न कि किसी संस्कृति या अस्मिता को सहेजने की कोशिश। भाषा तो वह धारा है, जो समाज को जोड़ती है, बांटती नहीं। बंबई जैसे शहर ने इसे बार-बार साबित किया है।

यह शहर, जो कभी बंबई था और अब मुंबई है, भाषाओं, संस्कृतियों और सपनों का मेला है। यहां गुजराती, मराठी, हिंदी, कोंकणी, तमिल, बंगाली रहे हैं। सब अपनी जगह बनाते हैं। किसी पर कुछ थोपा नहीं जाता। दुकानदार मराठी में सौदा करता है, पड़ोसी गुजराती में गप्पें मारता है। ऑफिस में अंग्रेजी चलती है। यह बंबई की तासीर है।

फिर भाषा के नाम पर यह बवाल क्यों? मराठी को थोपने की बात, गैर-मराठी को हाशिए पर धकेलने की सियासत—यह सब क्या है? यह तो वही पुराना खेल है, जिसमें सियासतदां अपनी नाकामी छिपाने के लिए अस्मिता का नारा बुलंद करते हैं। ठाकरे बंधु मराठी माणूस की बात करते हैं, लेकिन क्या मराठी माणूस की असल दिक्कत भाषा है? उसकी परेशानी तो रोजगार है, शिक्षा है, स्वास्थ्य है, बेहतर जिंदगी की चाह है।

क्या भाषा के नाम पर दंगा-फसाद करके ये समस्याएं हल हो जाएंगी? मराठी भाषा का सम्मान जरूरी है, लेकिन सम्मान थोपने से नहीं, प्यार से बढ़ता है। जब दादाजी मराठी अखबार पढ़ते थे, तो क्या किसी ने उनसे कहा था कि यह पढ़ना जरूरी है? नहीं। वे पढ़ते थे क्योंकि उन्हें उसमें अपने आसपास की दुनिया दिखती थी। भाषा सीखने का यही रास्ता है, जरूरत।

यह सियासत भाषा को नहीं, बल्कि समाज को कमजोर करती है। जब आप किसी को कहते हैं कि तुम्हारी भाषा कमतर है, तुम बाहरी हो, तो आप सिर्फ उस शख्स को नहीं, उसकी मेहनत, उसके सपनों को भी खारिज करते हैं। बंबई ने कभी ऐसा नहीं किया। इस शहर ने हर उस शख्स को गले लगाया, जो मेहनत के साथ आया। चाहे वह दादाजी हों, जो टोकरी में केले लेकर आए, या कोई और, जो अपने गांव से सपने संजोकर पहुंचा। भाषा ने कभी दीवार नहीं खड़ी की। फिर अब क्यों?

सच तो यह है कि भाषा के नाम पर यह सियासत सिर्फ वोट की खेती है। ठाकरे बंधु और उनके जैसे लोग जानते हैं कि भावनाओं को भड़काकर वोट बटोरे जा सकते हैं। ठाकरे बंधुओं का यह नाटक ‘मराठी’ के लिए नहीं, बल्कि ‘मुंबई मनपा’ को अपने कब्जे में लेने के लिए चल रहा है। लेकिन इस खेल में मराठी भाषा का क्या भला हुआ? क्या मराठी साहित्य को नई ऊंचाइयां मिलीं? क्या मराठी स्कूलों में बच्चों की तादाद बढ़ी?

क्या मराठी सिनेमा को नया बाजार मिला? जवाब है—नहीं। यह सियासत सिर्फ नफरत की दीवारें खड़ी करती है, जो न मराठी माणूस के काम आती है, न किसी और के।

भाषा तो संस्कृति की आत्मा है। उसे थोपने से नहीं, अपनाने से जिंदा रखा जाता है। हमारे दादाजी ने मराठी इसलिए सीखी, क्योंकि वे बंबई के हो गए थे। मेरे जैसे लोग, जो वर्धा में रहे, मराठी इसलिए समझते हैं, क्योंकि वहां की मिट्टी से जुड़े। भाषा सीखना कोई सजा नहीं, कोई जबरदस्ती नहीं। यह तो जिंदगी का हिस्सा है। अगर ठाकरे बंधु सचमुच मराठी का भला चाहते हैं, तो मराठी साहित्य को बढ़ावा दें, स्कूलों में मराठी पढ़ाई को आकर्षक बनाएं, मराठी सिनेमा को नई ऊंचाइयां दें। लेकिन नहीं, ये सब मेहनत का काम है। नफरत फैलाना आसान है, वोट बटोरना आसान है।

बंबई की आत्मा को समझने की जरूरत है। यह शहर सबको अपनाता है—चाहे आप भोजपुरी बोलें, गुजराती बोलें, या मराठी। यह शहर भाषा की दीवारें नहीं बनाता। ठाकरे बंधु और उनकी सियासत को यह समझना होगा कि भाषा के नाम पर नफरत का खेल न भाषा को बचाएगा, न समाज को। भाषा को सियासत की बैसाखी की जरूरत नहीं।

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