क्या निर्वाचन आयोग की स्वतंत्रता अनिवार्य है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

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भारतीय लोकतंत्र में चुनाव केवल राजनीतिक वैधता और नागरिक भागीदारी की आधारशिला नहीं हैं, बल्कि ये देश की उस बुनियाद का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिस पर पूरी व्यवस्था टिकी हुई है।इस प्रक्रिया को स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से संपादित कराने के लिए निर्वाचन आयोग जैसी संस्था की प्रमुख भूमिका होती है। हालांकि, वर्तमान में निर्वाचन आयोग खुद सवालों के घेरे में है। क्या आयोग अपनी स्वतंत्रता और निष्पक्षता को बनाए रखने में चूक कर रहा है?

वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन के निदेशक डॉ. सुशील कुमार सिंह बताते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में आयोग पर उठे सवालों ने उसकी साख को दांव पर लगा दिया है। ऐसे में इस संवैधानिक संस्था को आगे बढ़कर अपनी निष्पक्षता का स्पष्टीकरण देना चाहिए और अपनी बिगड़ती छवि को सुधारने के लिए खुलकर सामने आना चाहिए।

समय के साथ चुनावी प्रक्रिया ने धन और बल के दुरुपयोग, राजनीति के अपराधीकरण, राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र की कमी और मतदान में कम भागीदारी जैसी चुनौतियों का सामना किया है। वह कहते हैं कि जहां एक ओर निर्वाचन आयोग जन-जागरूकता और मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए अपील करता रहा है, वहीं दूसरी ओर वह खुद आरोपों के कटघरे में है। जब आरोप गंभीर हों, तो आयोग को भी खड़ा होना चाहिए ताकि पारदर्शिता और साख को चोट पहुंचाने से रोका जा सके।

चुनाव आयोग पर क्‍यों लग रहे आरोप?

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 के अंतर्गत निर्वाचन आयोग का गठन किया गया है, जो चुनावों का निरीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण करता है। यह एक स्वतंत्र निकाय है और संविधान सुनिश्चित करता है कि यह बिना किसी हस्तक्षेप के अपने कार्यों को निष्पक्षता से संपादित कर सके।

इसके लिए हाल में चुनाव आयोग ने बिहार में मतदाता सूचियों का विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) शुरू किया है। बिहार में चुनाव आयोग की कार्रवाई को लेकर विपक्षी दल तीखी नाराजगी व्यक्त कर रहे हैं। आम आदमी पार्टी, कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल जैसे दलों ने इस प्रक्रिया की निष्पक्षता और समय को लेकर सवाल उठाए हैं। विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने आयोग पर सवाल उठाते हुए एक प्रजेंटेशन भी दिया।

SIR को लेकर लग रहे आरोपों पर चुनाव आयोग का कहना है कि हर चुनाव से पहले मतदाता सूची को अपडेट करना एक नियमित प्रक्रिया है, जिसका उद्देश्य नए मतदाताओं का पंजीकरण और मृत या डुप्लीकेट नामों को हटाना है।

वोटर लिस्ट में क्‍या खामियां होती हैं?

मतदाता सूची की सबसे बड़ी खामी डिजिटल होने के बावजूद एक व्यक्ति का कई जगह नाम होना है। ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि यदि कोई मतदाता किसी अन्य क्षेत्र में सूची में नाम दर्ज कराए, तो पहले से दर्ज नाम स्वयं हट जाए। इसके अलावा यदि किसी की मृत्यु हो गई हो, तो उनका नाम मतदाता सूची से हटाना चाहिए। फर्जी वोटरों की पहचान के लिए नई तकनीकी उपायों की आवश्यकता है।

चुनाव आयोग को क्या एक्शन लेना चाहिए?

डॉ. सुशील कुमार सिंह बताते हैं कि चुनाव आयोग को चाहिए – अगर किसी विशेष पते पर बहुत सारे मतदाता सूचीबद्ध हैं, तो उनकी अलग से जांच कराई जाए। सरकार वोटर आईडी और आधार को लिंक करने की तैयारी में है।

इस पर मार्च 2025 में चुनाव आयोग और आधार के अधिकारियों की बैठक हुई थी। इसमें दोनों को लिंक करने पर सहमति बनी है। इससे सुधार की उम्मीद की जा सकती है। निष्पक्षता और पारदर्शिता के बिना लोकतंत्र की सफलता सुनिश्चित नहीं की जा सकती। अब तो एक देश, एक चुनाव की मांग भी उठ रही है, लेकिन चुनाव आयोग के सामने नई-नई चुनौतियां भी खड़ी हो रही हैं।

सुधार के लिए सिफारिशें

साल 1980 की तारकुंडे समिति की सिफारिशें, 1989 की दिनेश गोस्वामी समिति, टीएन शेषन की सिफारिशें, इंद्रजीत गुप्त समिति की सिफारिशें और एमएस गिल की सिफारिशें सभी ने समय और परिस्थिति के अनुसार चुनावी सुधार के सुझाव दिए हैं।

सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश बीपी रेड्डी की अध्यक्षता में गठित विधि आयोग ने भी 1999 में चुनाव प्रणाली को बेहतर और पारदर्शी बनाने के लिए दर्जन भर सुझाव दिए थे। लोक जनप्रतिनिधित्व कानून में भी समय-समय पर संशोधन होता रहा है। चुनाव आचार संहिता को लेकर निर्वाचन आयोग काफी सक्रिय रहा है।

 संविधान के अनुच्छेद 324 से 329 के बीच चुनाव आयोग और चुनाव सुधार से जुड़ी बातें देखी जा सकती हैं। हालांकि, 1980 से चुनाव सुधार की दिशा में तेजी से कदम उठाए गए हैं। चुनावी प्रक्रिया में भी कई सुधार किए गए हैं, जिसमें मतदाता पहचान पत्र से लेकर ईवीएम का उपयोग शामिल है, लेकिन अभी भी यह पूरी तरह दुरुस्त नहीं हो पाया है।

निष्पक्षता और पारदर्शिता के साथ चुनाव कराना चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है, और यह संविधान की साख और लोकतंत्र की आन-बान-शान के लिए अत्यंत आवश्यक है। ऐसे में, चुनाव आयोग जैसी संस्था की छवि को धूमिल नहीं होने देना चाहिए। इसके लिए आयोग को चौकस रहना होगा।

‘नागरिकता प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं किया जा रहा आधार’

जस्टिस कांत ने टिप्पणी की कि आवश्यक दस्तावेज किसी व्यक्ति को राज्य का वास्तविक निवासी साबित करते हैं और एक बार ये दस्तावेज दिखा दिए जाने के बाद, यह दायित्व चुनाव आयोग पर आ जाता है। इस पर सिब्बल ने कहा कि बिहार में अधिकांश लोगों के पास आधार कार्ड होने के बावजूद, बूथ स्तर के अधिकारी इसे नागरिकता के प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं कर रहे हैं।

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