बिहार: अग्रणी प्रदेश से पिछड़ा राज्य बनने की गाथा
समाज ने राजनीतिक तंत्र के आगे घुटने टेक दिए
शिक्षा समाज के प्राथमिकता का विषय नहीं है
स्वतंत्रता दिवस पर बिहार के बारे में एक समीक्षा…..
✍️ राजेश पाण्डेय
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
भारत देश में बिहार राज्य एक अजीब विडंबनाओ वाला प्रदेश है। प्राचीन एवं मध्यकाल के साथ-साथ इसका आधुनिक काल भी उज्जवल रहा है। स्वतंत्रता के बाद इसकी प्रशासनिक क्षमता एवं विद्वत्ता की सभी चर्चा करते थे। परन्तु 1960 के बाद बिहार धीरे-धीरे उसे औरा से पिछड़ता गया जिसके लिए वह जाना जाता था। इसके कई कारण हो सकते हैं। परन्तु आपातकाल के बाद तो स्थिति बद्तर होती गई। पूरा समाज अपने को राजनीतिक तंत्र के समक्ष नत मस्तक कर दिया।
राजनीतिक व्यवस्था ने अपने को समाज में बने रहने के लिए जातिवाद को पुज़ोर हवा दी। बाहर से नौकरी करने आए अधिकारी भी जातिवाद के चक्र में फंसकर अपने को निष्पक्ष नहीं रख पाए या कैडर बदलकर चले गए। पूरा समाज जाति में बंट गया। विकास भी इसके आसपास घूमने लगा। इससे बिहार की अधोगति प्रारंभ हो गई और इस अविकास में झारखंड का अलग होना इसके ताबूत में एक कील साबित हुआ।
बालू, बाढ़ और जातियों में बंटा बिहार की बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या ने समस्या को विकराल कर दिया। इसकी त्वरित प्रतिक्रिया यह हुई की 1990 में 2000 के दशक में हजारों परिवार रोजी-रोटी व कानून व्यवस्था के कारण बिहार से पलायन करते गये। विडंबना यह रही की जनता ने झारखंड राज्य में रहना पसंद किया लेकिन बिहार नहीं आये। जिस सामाजिक न्याय को स्थापित करने के लिए सरकारें आईं उन्होंने इसका शोषण किया, परिणाम पलायन में परिणत हो गया।बहरहाल अपने सांस्कृतिक समबद्धता की वजह से बिहारवासी सदैव अपनी संस्कृति को याद करते रहते हैं। तीन मूल एवं दो गौण भाषा भोजपुरी, मैथिली,मगही एवं अंगिका व वज्जिका में हजारों कथा-कहानी एवं हमारी संस्कृति संरक्षित है।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि वर्तमान बिहार की दशा एवं दिशा में पहले 35 वर्षों से चल रहे समाजवादी विचारधारा की सरकार है। जिसे दक्षिणपंथि भाजपा पार्टी ने अपने सत्ता सुख के लिए पिछले 20 वर्षों से नीतीश सरकार का समर्थन कर रही है। 1989 से 2005 की लालू-राबड़ी सरकार एवं 2005 से 2025 की नीतीश सरकार ने निश्चित तौर पर समाज में दो नव सामंतवाद वर्गों को जन्म दिया है जिसे यादव और कुर्मी-कोइरी के नाम से जाना जाता है। वर्तमान बिहार पूरी तरह से माफियां की शिकंजे में है।
बालू माफिया, भू-माफिया एवं शराबबंदी ने अपराध की दुनिया में कई प्रकार के आयामों को जन्म दिया है। जनगणना नहीं होने के कारण आंकड़े नहीं आ रहे हैं परन्तु ऐसा माना जा रहा है कि प्रदेश की जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई रही है। बांग्लादेशी और रोहिंग्या वासियों ने सीमांचल सहित कई जिलों की डेमोग्राफी को बदलकर रख दिया है। इसकी बानगी मतदाता पुनरीक्षण कार्य में देखा जा सकता है। राजनीतिक दल ने अपने राजनीतिक लाभ के लिए फर्जी तरीके से आधार कार्ड, वोटर कार्ड, राशन कार्ड एवं अन्य प्रमाण पत्र बनवाकर उन्हें बिहार का मूल निवासी बना दिया है।
राजनीतिक रूप से जागरूक बिहार का समाज जातिवाद चक्र में फंसकर अपने चतुर्दिक विकास को अवरोध कर लिया है। बिहार की जनता ने अत्यधिक राजनीतिक सत्ता पर भरोसा किया और सरकार ने भी सारे कार्य को करने की बात कही। जनता सरकार पर अपनी जीविका हेतु निर्भर हो गई। जिसके पास खेती थी वह इसे बढ़ाने के बजाय बचाने में लग गए। कृषि आधारित उद्योग राजनीति का आंकड़ा बन गया। सैकड़ो मिल बंद हो गए, छात्र रोजगार देने की जगह लेने वाले हो गए, उन्होंने सरकारी नौकरी पर पूरा भरोसा किया। इसे जीवन का वृत्ति बना लिया, येन-केन-प्राकेण सरकारी नौकरी प्राप्त करना सामाजिक स्टेटस का मुद्दा बन गया।
बिहार के बदहाल होने का समय 1974 के आंदोलन से ही प्रारंभ हो गया। राष्ट्रीय आंदोलन में इसने संपूर्ण क्रांति में भाग लिया। शिक्षण संस्थानों में शिक्षा की डिग्रियों के बदले नौकरी देने की बात होने लगी। शिक्षा जो ज्ञान पर आधारित थी, बुद्धि पर आधारित थी, वह अब रोजगार पर आधारित हो गया, आश्रित हो गया। जनसंख्या खूब बढ़ी, प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव पड़ा। 1990 के दशक में अलग झारखंड की मांग बड़ी और 15 नवंबर 2000 को झारखंड बिहार से अलग होकर इसके बदहाल होने में आखिरी कील ठोक गया। किसी भी प्रकार से नौकरी प्राप्त लेना प्राप्त कर लेना जनता का सकल बन गया। प्राकृतिक संसाधनों की लूट मच गई, बालू माफिया,भू- भूमिया व दारू माफिया बिहार का पर्याय बन गया।
बिहार के उद्योग धंधों का चलन समाप्त हो गया। कानून व्यवस्था पर टिप्पणी करते हुए हाईकोर्ट ने इस जंगल राज घोषित किया। लगातार दो पीढियों ने शिक्षा से दूरी बना ली। प्राथमिक शिक्षा पूरी तरह से ध्वस्त हो गया, पढ़े-लिखे शिक्षकों का प्रवेश सदैव के लिए समाप्त हो गया। 1985 से अंशत: और 1990 से पूर्णत: प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था बिहार में ध्वस्त हो गई। कुछ निजी विद्यालयों ने इस जीवंत बनाए रखा। एकदम से बिहार से बाहर जाकर शिक्षा ग्रहण करने की बाढ़ आ गई। आज बेंगलुरु, नोएडा, दिल्ली, फरीदाबाद, गुड़गांव, मुंबई, पुणे, भोपाल में बिहारी जनता से नई-नई बस्तियों का निर्माण कर डाला है क्योंकि यह बाहर से पढ़ाई लिखाई करके उक्त नगरों में ही बसना उचित समझते हैं। पटना से इंजीनियरिंग मेडिकल का केंद्र स्थल कोटा नगर में परिवर्तित हो गया।
अपने शिक्षा एवं ज्ञान को केवल नौकरी तक सीमित रखना बिहार के पतन का कारण माना जा सकता है। संस्था हमारे यहां के ध्वस्त हो गए। विश्वविद्यालय व महाविद्यालय में शिक्षा की देवी का विसर्जन कर दिया गया। बिहार के ऑक्सफोर्ड पटना विश्वविद्यालय की दशा देखकर आप समझ सकते हैं, यह संस्थाएं डिग्री बांटने वाली कार्यालय बन गई है। बिहार के बर्बाद होने में संस्थाओं का प्रतिबद्ध नहीं होना प्रत्येक सदस्य का कटिबद्ध नहीं होना, प्रमुख कारण है। सरकारी संस्था सफेद हाथी साबित हो रहे हैं। सरकार वोट व सामाजिक ताना-बाना हेतु सरकारी नौकरियों की भर्ती निकाल कर स्थिति को और विस्फोटक बना दिया है। इससे कोष पर अतिरिक्त बोझ पड़ेगा और पलायन बढ़ेगा।
समाज की ओर से ही सुधार होगा, सामाजिक स्तर पर ऋषि पैदा होंगे तो सामाजिक सांस्कृतिक सुधार आएगा। व्यक्ति जब सभी प्रकार के नौकरियों का प्रयास करके थक हार कर बैठ जाता है तो शिक्षक बन जाता है और वह बिहार के भविष्य को ज्ञान प्रदान करता है। यह इस समाज की बहुत बड़ी विडंबना है जब संस्थान शिक्षा एवं ज्ञान देने के बजाय केवल डिग्रियां प्रदान करने वाली संस्थाएं बन जाए तो ज्ञान एवं शिक्षा का विकास अवरूद्ध हो जाएगा। नए-नए नवाचार सेहम वंचित हो जाएंगे।
बच्चे जब अच्छी तरह से प्राथमिक शिक्षा एवं माध्यमिक शिक्षा ग्रहण करेंगे तो उन्हें अपने परिवार की सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक प्रस्तुति का बोध होगा। इससे वे अपना करियर व अकादमिक स्तर का चुनाव कर सकते हैं। जब वे अच्छी तरह से शिक्षा नहीं ग्रहण करेंगे तो उन्हें अपने जीवन में क्या बनना है किस विधा का चुनाव करना है, वह तय नहीं कर सकते हैं।
अजब विडम्बना है कि आज इन बच्चों का कैरियर उनके माता-पिता चुनते हैं कि हम इसे डॉक्टर बनायेंगे, इसे सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनायेंगे, इसे आई.ए.एस बनायेंगे। ऐसे में बच्चे का भविष्य अधर में लटका हुआ है। बिहार विकास के दौर से पीछे छूटता जा रहा है फिर यक्ष प्रश्न यह है कि बिहार कैसे चल रहा है?
जनमानस में विश्वास है कि बिहार का पुराना वैभव वापस लौट आएगा। बुद्ध, महावीर, मौर्य वंश, गुप्त वंश का काल आएगा। राष्ट्रीय आंदोलन में बिहार के जनमानस ने बढ़-चढ़कर अपनी जागृति का अपनी दशा का परिचय दिया है। वह जोश व जागृति जनता में अच्छे कार्य के लिए आज भी विद्यमान है।
सामाजिक रूप से समाज बड़ा समृद्ध है। इसका मूल रूप धार्मिक है इसका भाव करुणा का है। ईश्वर के प्रति आस्था, विश्वास व श्रद्धा इसके कण-कण में विद्यमान है। बिहार के जनमानस में करुणा की प्रचुरता है। सेना की नौकरी करना,आई.ए.एस बनना, आई.आई.टी क्रैक करना इस समाज के युवकों का शगल है, आइकॉन है। पलायन करना, दूर प्रदेश जाकर पैसे कमाना, पैसा घर भेजना यह दो सौ वर्षों की प्रवाहमय संस्कृति है।
एक बड़ा वर्ग मनीआॅडर अर्थव्यवस्था पर आज भी निर्भर है। योजनाओं में प्रशासनिक भ्रष्टाचार बंदरबाद समाज के एक वर्ग में व्याप्त है। सभी प्रकार की सरकारी योजनाओं में कमीशन आम बात है। बालू माफिया, दारू माफिया, भू-माफिया समाज की आज अकाट्य सच्चाई है। परन्तु जनता इसे टुकुर-टुकुर देख रही है और समझती है कि इसका अवसान एक दिन निश्चित होगा।
बिहार अपने वैभव को अवश्य प्राप्त करेगा।