उपराष्ट्रपति पद के एनडीए उम्मीदवार श्री सी.पी. राधाकृष्णन

उपराष्ट्रपति पद के एनडीए उम्मीदवार श्री सी.पी. राधाकृष्णन

सत्ता, क्षेत्र , वर्ग , संतुलन और राजनीतिक व्याकरण की पुनर्कथा

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✍️ परिचय दास सर

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारतीय राजनीति में हर संवैधानिक पद की उम्मीदवारी केवल एक औपचारिकता नहीं होती बल्कि गहरे राजनीतिक संकेतों और व्यापक रणनीतिक संदेशों से जुड़ी होती है। जब एनडीए ने श्री
चंद्रपुरम पोन्नुसामी राधाकृष्णन को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया तो यह निर्णय अनेक स्तरों पर पढ़ा और समझा जाना चाहिए। उपराष्ट्रपति का पद यद्यपि संवैधानिक दृष्टि से राज्यसभा की अध्यक्षता और आवश्यक स्थिति में राष्ट्रपति पद का निर्वहन करता है लेकिन उसके पीछे का राजनीतिक संदेश और भविष्य की राजनीति की दिशा भी छुपी रहती है।

सी.पी. राधाकृष्णन दक्षिण भारत के एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक चेहरे हैं। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि से आते हैं और भाजपा को तमिलनाडु जैसे कठिन भू-राजनीतिक प्रदेश में स्थापित करने के प्रयासों का हिस्सा रहे हैं। एनडीए का यह निर्णय सीधे तौर पर संकेत देता है कि भाजपा अब केवल उत्तर भारत और हिंदी पट्टी की राजनीति तक सीमित नहीं रहना चाहती बल्कि दक्षिण भारत में अपनी गहरी पैठ बनाना चाहती है। यह चुनाव केवल व्यक्ति का चयन नहीं बल्कि भू-राजनीतिक समीकरणों को साधने का एक प्रयोग है।

तमिलनाडु भारतीय राजनीति का वह क्षेत्र है जहाँ अब तक भाजपा को कोई ठोस सफलता नहीं मिली। डीएमके और एआईएडीएमके की जकड़न यहाँ इतनी मजबूत रही है कि भाजपा हाशिये पर ही दिखाई देती रही लेकिन भाजपा का उद्देश्य केवल सत्ता में बने रहना नहीं है बल्कि उसे राष्ट्रीय स्तर पर सर्वव्यापी पार्टी का रूप देना है। ऐसे में राधाकृष्णन की उम्मीदवारी दक्षिण भारत को यह संदेश देती है कि केंद्र अब इस भूभाग को नजरअंदाज नहीं कर रहा। यह उनके सम्मान और प्रतिनिधित्व का प्रतीक है।

राजनीतिक दृष्टि से देखा जाए तो उपराष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी में सी.पी. राधाकृष्णन का नाम आगे करने के पीछे एक और रणनीतिक सोच है। एनडीए शायद यह भी जताना चाहती है कि उसका दृष्टिकोण केवल बहुसंख्यकता पर टिका नहीं है बल्कि वह विभिन्न भाषाई और सांस्कृतिक क्षेत्रों के प्रतिनिधियों को आगे बढ़ाना चाहती है। दक्षिण भारत के नेताओं को संवैधानिक पदों पर बैठाकर भाजपा यह संदेश देना चाहती है कि वह अखिल भारतीय दल के रूप में सबको साथ लेकर चलने में सक्षम है।

इस निर्णय को 2029 की राजनीति की तैयारी के रूप में भी देखा जाना चाहिए। यदि भाजपा 2024 और आगे के चुनावों में बहुमत बनाए रखती है तो उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती दक्षिण भारत में पैठ बढ़ाने की होगी। इस क्षेत्र में कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों की पकड़ मजबूत है। ऐसे में यदि भाजपा अपने शीर्ष संवैधानिक पदों पर दक्षिण के चेहरों को लाती है तो यह धीरे-धीरे एक स्वीकार्यता का माहौल बना सकता है। राधाकृष्णन की उम्मीदवारी एक प्रकार से उस लंबी रणनीति की प्रस्तावना है।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि भाजपा और एनडीए अब ‘समावेशी प्रतिनिधित्व’ की राजनीति का सहारा ले रहे हैं। राष्ट्रपति के पद पर द्रौपदी मुर्मू का चयन आदिवासी और महिला प्रतिनिधित्व की दिशा में बड़ा कदम था। उसी क्रम में उपराष्ट्रपति पद पर राधाकृष्णन का चयन दक्षिण भारतीय भाषाई और सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व की ओर संकेत करता है। भारतीय राजनीति में यह एक नया युग है जहाँ संवैधानिक पद अब केवल वरिष्ठ नेताओं के लिए ‘सम्मानजनक रिटायरमेंट’ का स्थान नहीं रह गए बल्कि इन्हें भू-राजनीतिक संतुलन और चुनावी रणनीति के औजार के रूप में प्रयोग किया जा रहा है।

इस चयन का एक और निहितार्थ है—विपक्ष की राजनीति। विपक्ष ने अब तक यह धारणा बनाई है कि भाजपा दक्षिण भारत विरोधी है और हिंदी-हिंदुत्व की राजनीति तक सीमित है। राधाकृष्णन की उम्मीदवारी इस धारणा को तोड़ने का प्रयास है। यह विपक्ष के नैरेटिव के विरुद्ध एक ठोस प्रत्युत्तर है कि भाजपा केवल उत्तर भारत की पार्टी है। इससे विपक्ष के सामने यह चुनौती भी खड़ी होती है कि वह किस प्रकार अपनी क्षेत्रीय पहचान को बनाए रखते हुए राष्ट्रीय राजनीति में प्रासंगिक बने।

विस्तृत परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि सी.पी. राधाकृष्णन की उम्मीदवारी भारतीय संघीय ढाँचे में संतुलन बनाने का प्रयास है। भारत बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक और विविधताओं से भरा देश है। यदि राष्ट्रीय दल केवल एक ही क्षेत्र या भाषा तक सीमित रहते हैं तो उनकी अखिल भारतीय छवि कमजोर पड़ जाती है। भाजपा इस बात को समझ रही है कि उसे सत्ता में बने रहने के लिए और भविष्य की राजनीति पर प्रभुत्व बनाए रखने के लिए क्षेत्रीय संतुलन जरूरी है। यही कारण है कि संवैधानिक पदों पर अब क्षेत्रीय चेहरों को अधिक महत्त्व दिया जा रहा है।

राधाकृष्णन की उम्मीदवारी सामाजिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। वे एक ऐसे वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसे दक्षिण भारत में बड़ी सामाजिक हैसियत प्राप्त है। इससे भाजपा को स्थानीय सामाजिक समीकरणों को साधने में मदद मिलेगी। उपराष्ट्रपति जैसे पद पर उनके बैठने से यह धारणा बनेगी कि भाजपा केवल उच्च जातियों या किसी एक वर्ग की राजनीति तक सीमित नहीं बल्कि वह विभिन्न सामाजिक समूहों को अपने साथ जोड़ने का प्रयास कर रही है।

यह निर्णय मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी असर डालता है। राजनीति केवल सीटों और वोटों का गणित नहीं है बल्कि जनता के मनोभावों को प्रभावित करने का भी खेल है। जब कोई व्यक्ति संवैधानिक पद पर बैठता है तो उसकी पहचान और पृष्ठभूमि व्यापक स्तर पर एक संदेश देती है। राधाकृष्णन की पृष्ठभूमि और उनका दक्षिण भारत से आना एक गहरे मनोवैज्ञानिक प्रभाव का कारण बनेगा, जिससे धीरे-धीरे भाजपा को दक्षिण भारत में स्वीकृति मिल सकती है।

इसके अलावा इस उम्मीदवारी में भाजपा की दीर्घकालीन दृष्टि भी झलकती है। भाजपा केवल वर्तमान चुनावी राजनीति तक सीमित नहीं रहती बल्कि अगले कई दशकों के लिए अपनी वैचारिक और संगठनात्मक बुनियाद तैयार करती है। राधाकृष्णन जैसे नेताओं को आगे कर भाजपा यह सुनिश्चित करना चाहती है कि दक्षिण भारत में भी एक मजबूत वैचारिक ढांचा खड़ा हो सके।

कहा जा सकता है कि सी.पी. राधाकृष्णन को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने का निर्णय बहुस्तरीय महत्त्व रखता है। यह केवल एक संवैधानिक औपचारिकता नहीं, बल्कि दक्षिण भारत की राजनीति को साधने, विपक्ष की रणनीति को ध्वस्त करने, भाजपा की अखिल भारतीय छवि को मजबूत करने और दीर्घकालीन चुनावी लक्ष्य साधने का बड़ा कदम है। यह कदम भाजपा के उस राजनीतिक दर्शन को भी उजागर करता है जो केवल सत्ता तक सीमित नहीं बल्कि पूरे भारत को एक राजनीतिक-सांस्कृतिक इकाई के रूप में देखने की दृष्टि रखता है।

एनडीए ने जब सी.पी. राधाकृष्णन को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित किया तो यह कदम केवल एक संवैधानिक प्रक्रिया नहीं था। भारतीय राजनीति में इस प्रकार की उम्मीदवारी हमेशा बहुआयामी संदेश लेकर आती है। यह चयन केवल संसद के ऊपरी सदन की अध्यक्षता तक सीमित नहीं बल्कि देश की सामाजिक संरचना, मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियों, आर्थिक दृष्टिकोण और क्षेत्रीय समीकरणों तक गहरी छाप छोड़ने वाला निर्णय है।

भारत की राजनीति मूलतः सामाजिक ताने-बाने से संचालित होती है। जाति, वर्ग, समुदाय और सांस्कृतिक पहचान भारतीय मतदाता के मन में गहरे पैठ बनाए हुए हैं। दक्षिण भारत में विशेषकर तमिलनाडु में जातीय समीकरण बहुत गहरे और जटिल हैं। भाजपा लंबे समय से इस समाज में प्रवेश करने की कोशिश कर रही है लेकिन द्रविड़ राजनीति की पकड़ के कारण उसे पर्याप्त सफलता नहीं मिल सकी। ऐसे समय में सी.पी. राधाकृष्णन जैसे नेता को उपराष्ट्रपति पद पर लाना, सामाजिक रूप से यह संदेश देता है कि भाजपा दक्षिण भारतीय समाज को बराबरी का सम्मान दे रही है।

राधाकृष्णन एक प्रतिष्ठित पृष्ठभूमि से आते हैं और उनका एक गहन सामाजिक जीवन है। यह दक्षिण भारतीय समाज में उच्चतर वर्गों और मध्यम वर्गीय समुदायों को यह संदेश देता है कि भाजपा केवल उत्तर भारत के समाज के आधार पर नहीं बल्कि तमिल समाज को भी अपना हिस्सा मान रही है। इस तरह सामाजिक स्तर पर यह उम्मीदवार पूरे दक्षिण भारत के समाज को राष्ट्रीय राजनीति से जोड़ने का एक माध्यम बनता है।

राजनीति केवल बाहरी समीकरणों पर नहीं चलती बल्कि जनता के मन पर असर डालने वाले प्रतीकों और छवियों पर भी आधारित होती है। भाजपा पर प्रायः यह आरोप लगता रहा है कि वह हिंदी पट्टी की पार्टी है और दक्षिण भारत की संस्कृति, भाषा और समाज को उतना महत्त्व नहीं देती। विपक्षी दलों ने इस धारणा को और गहरा किया है। ऐसे में जब कोई दक्षिण भारत के पिछड़े समाजों से कोई चेहरा उपराष्ट्रपति पद पर आता है तो यह विशिष्ट मनोवृत्ति को प्रभावित करता है।

तमिल समाज लंबे समय से इस बात को लेकर संवेदनशील रहा है कि केंद्र में उनकी भाषा, उनकी संस्कृति और उनकी परंपराओं को पर्याप्त सम्मान नहीं दिया जाता। राधाकृष्णन की उम्मीदवारी इस संवेदनशीलता को सीधे संबोधित करती है। यह मनोवैज्ञानिक रूप से एक बड़े वर्ग को आश्वस्त करती है कि केंद्र सरकार और एनडीए तमिल समाज के योगदान और पहचान को सर्वोच्च पदों पर जगह दे रहे हैं।

भारत की राजनीति में अब विकास और अर्थव्यवस्था सबसे बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। दक्षिण भारत आर्थिक रूप से भारत का सबसे सशक्त क्षेत्र माना जाता है। तमिलनाडु, कर्नाटक, तेलंगाना और केरल की अर्थव्यवस्थाएँ देश की जीडीपी में महत्त्वपूर्ण योगदान करती हैं। यहाँ उद्योग, सूचना प्रौद्योगिकी, शिक्षा और व्यापार का बड़ा नेटवर्क है। ऐसे में दक्षिण भारत को राष्ट्रीय राजनीति में आर्थिक दृष्टि से और अधिक शामिल करना भाजपा के लिए आवश्यक है।

सी.पी. राधाकृष्णन का उपराष्ट्रपति पद पर चयन आर्थिक दृष्टि से यह संदेश देता है कि केंद्र अब दक्षिण भारत को ‘आर्थिक इंजन’ के रूप में भी मान्यता दे रहा है। यह कदम व्यापारिक समुदाय और औद्योगिक वर्ग के लिए भी सकारात्मक संकेत है। जब एक दक्षिण भारतीय नेता इस स्तर पर पहुँचते हैं, तो इससे यह विश्वास मजबूत होता है कि राष्ट्रीय नीतियों में दक्षिण भारत की आर्थिक चिंताओं और प्राथमिकताओं को शामिल किया जाएगा।

भारत की राजनीति का सबसे बड़ा समीकरण क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व है। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति जैसे पद अक्सर क्षेत्रीय संतुलन को साधने के लिए उपयोग में लाए जाते हैं। भाजपा ने पहले राष्ट्रपति पद पर आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू को बैठाकर झारखंड और पूर्वी भारत के क्षेत्रीय संतुलन को साधा। अब उपराष्ट्रपति पद पर दक्षिण भारत को प्रतिनिधित्व देकर भाजपा एक बड़े क्षेत्रीय संतुलन की ओर बढ़ी है।

तमिलनाडु राजनीतिक रूप से हमेशा से ही केंद्र सरकारों के लिए चुनौती रहा है। वहाँ के द्रविड़ दल क्षेत्रीय अस्मिता को लेकर राजनीति करते हैं और केंद्र के खिलाफ भावनाओं को भड़काते हैं। ऐसे में यदि कोई तमिल चेहरा देश के उपराष्ट्रपति पद पर बैठता है, तो यह क्षेत्रीय अस्मिता को सकारात्मक दिशा देता है। यह संदेश जाता है कि केंद्र और तमिल समाज के बीच दूरी घट रही है। इससे भाजपा को क्षेत्रीय स्तर पर स्वीकृति मिलने का रास्ता आसान होगा।

यह उम्मीदवारी आगामी चुनावों की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। 2024 के बाद यदि भाजपा सत्ता में आती है तो उसका अगला लक्ष्य 2029 और उससे आगे का राजनीतिक परिदृश्य होगा। भाजपा का उद्देश्य यह है कि वह कांग्रेस जैसी एक अखिल भारतीय पार्टी बने, जिसकी पैठ हर क्षेत्र में हो। इस दिशा में दक्षिण भारत की पकड़ बनाना अनिवार्य है। राधाकृष्णन की उम्मीदवारी इस लंबी रणनीति का हिस्सा है।

इसके अतिरिक्त यह कदम विपक्ष को मनोवैज्ञानिक और वैचारिक चुनौती भी देता है। जब विपक्ष भाजपा को केवल हिंदी पट्टी की पार्टी कहकर हमला करता है तो राधाकृष्णन जैसे उम्मीदवार उस आरोप को खारिज कर देते हैं। यह विपक्ष की रणनीति को कमजोर करने का तरीका है।

भारत का संघीय ढाँचा तभी संतुलित रहता है जब हर क्षेत्र को यह महसूस हो कि उसे बराबर का सम्मान मिल रहा है। उपराष्ट्रपति पद पर दक्षिण भारत के नेता का बैठना संघीय ढाँचे को और संतुलित करता है। यह संविधान की उस भावना को जीवंत करता है, जिसमें भारत की विविधता को समान रूप से प्रतिनिधित्व दिया जाए।

सी.पी. राधाकृष्णन की उम्मीदवारी केवल एक राजनीतिक निर्णय नहीं बल्कि बहुस्तरीय विमर्श का हिस्सा है। सामाजिक रूप से यह दक्षिण भारतीय समाज को सम्मान देता है, मनोवैज्ञानिक रूप से दक्षिण भारत की संवेदनशीलता को संबोधित करता है, आर्थिक रूप से यह क्षेत्र के योगदान को मान्यता देता है और क्षेत्रीय रूप से संघीय ढाँचे में संतुलन स्थापित करता है। दीर्घकालीन राजनीति के स्तर पर यह भाजपा की अखिल भारतीय रणनीति की ओर उठाया गया बड़ा कदम है।

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