ईश्वर ही प्रेम है और प्रेम ही ईश्वर है.

ईश्वर ही प्रेम है और प्रेम ही ईश्वर है.

प्रेमावतार श्रीकृष्ण अवतरणोत्सव पर विशेष

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क


प्रत्येक पवित्र मानवीय सम्बन्ध ईश्वरीय प्रेम का रूप ले सकता है , इसे प्रमाणित करना ही कृष्णावतार का प्रमुख उद्देश्य है ।
वस्तुतःईश्वर ही प्रेम है और प्रेम ही ईश्वर है । इसीलिए श्रीमद्भागवत् के रसेश्वर और गीता के योगेश्वर के दोनों रूप मनमोहक हैं । ब्रह्म को अपने भीतर महसूस करना , विश्व में देखना , उसे ज्ञान से जानना , उसे प्रेम के द्वारा देखना तथा आचरण से प्रचारित करना वह कार्य है जो भारत बहुत सी बाधाओं और विपत्तियों के बावजूद अपने बुरे या अच्छे दिनों में सतत् करता आ रहा है ।

सभी संतों के साथ स्वर में स्वर मिलाते हुए सिक्खों के गुरुग्रंथसाहब में भक्त रविदास की प्रेमिल वाणी में निष्कंप विश्वास के साथ कहा गया है –नीचहुँ ऊँच करै मेरो गोविन्द , नहिं काहू सों डरै । संत रविदास और सूरदास जैसे साहसी साधक जानते हैं कि मोक्ष परम पुरुषार्थ नहीं , प्रेम ही परम पुरुषार्थ है । वह दीनदयालु- पतित -पावन अद्भुत प्रेममय है। कहीं हम उन्हें घायल जटायु की धूल अपनी जटाओं से झारते देखते हैं -“जटायु की धूल जटाओं से झारी”। कहीं शबरी के दांतकाटे जूंठे बेर प्रेम से खाते हैं , कहीं दीन -हीन स्वाभिमानी ज्ञानी विप्र सुदामा के पाँवों को अपने आँसुओं से पखारते देखते हैं । यहाँ आकर भगवान अपने हो जाते हैं । वे बड़े भी नहीं , छोटे भी नहीं , हमारे माता -पिता , सखा सखी , भाई बहिन हैं । हम जो चाहें वही हैं ।

आचार्य शुकदेव जी स्पष्ट कहा है जो उस ब्रह्म को सिर्फ ज्ञानमय समझते हैं , वे उसके एक अंश को ही जान पाते हैं परंतु जो उसे प्रेममय समझते है , वह उसके सम्पूर्ण अंश को सहज ही जान जाते हैं । वस्तुत: मोक्ष परम पुरषार्थ नहीं है । “प्रेम: कुमर्थो महान “।

वह अज्ञेय ब्रह्म को -ताहि अहीर की छोहरियाँ-छछियाँ भर छाँछ के लिए उसका प्रेम पाकर कैसे नाच नचातीं हैं। वाह जय हो भक्तवत्सल भगवान की। भक्त नाच उठते हैं और तरंगित होकर गा उठते हैं — दुर्योधन को मेवा त्यागो , शाक विदुर घर खायो ।

” हम सब हाथी-घोड़े हैं उसके , यमुना उसकी पालकी ।
जय जय गिरधर गोपाल की जय कन्हैया लाल की ”

अब फिर बजे चैन की बंशी उस माई के लाल की , जय कन्हैया लाल की ”

ऐसे बहुसंख्यक कोटि – कोटि स्त्री- पुरुष जो तमाम भौतिक एवं आत्मिक उपलब्धियों से वंचित हैं और जिनके आँसूं लगभग सूख चुके हैं , ” कन्हैया आठें ” का आनन्दोत्सव पूरी मस्ती के साथ डूबकर मनाते हैं । अब तो कन्हैया आठें के ‘ पना ‘ चिकने रंगीन कागज पर परिष्कृत प्रिन्टिंग टेक्नीक में आकर्षक रूप से छपकर बिकने लगे हैं , पर ग्रामीण क्षेत्र में पुरानी लीथोप्रिन्टिंग में लाल स्याही से मोरपंख द्वारा उकेरी भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं द्वारा चित्रित झांकी का चलन अभी भी कायम है ।

लीला पुरुषोत्तम की सम्पूर्ण लीलाओं में रस लेने वाले निरक्षर खासतौर से स्त्रियां अपनी नौन , तेल , लकड़ी की समस्याओं से यकायक विसर जाते हैं , और अपनी गुंदयाऊ बाखर के बाहर , वेशरम के टटा पर चिपके ‘ कन्हैया जू ‘ के पने पर अंकित लीलाओं को देख-देखकर झूम उठते हैं क्योंकि उन्हें पक्का भरोसा है कि एक न एक दिन ” नीचहुं ऊँच करै मोरो गोविन्द , नहिं काहू सों डरे ” –

कन्हैया आठें के दूसरे दिन सवेरे मूंज की रस्सी में आम के पत्तों से गूंथ कर बंदनवार घर की चौखट पर बाँधने का चलन प्रत्येक गांव और नगर में लगता है कि द्वापर से ही अभी तक बदस्तूर जारी है । इसके अतिरिक्त गाय के पवित्र गोबर से चिपकाई गयी हरित दूर्वा भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव के हर्षोल्लास में चार चांद लगा देती है ।

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