विघ्नहर्त्ता की सवारी आ रही है………

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

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गणेश का स्मरण होते ही मन में एक गहन आलोक उतर आता है। वे देवताओं के बीच केवल पूजनीय ही नहीं अपितु सबसे आत्मीय भी प्रतीत होते हैं। उनका रूप एक ओर अद्वितीय है तो दूसरी ओर जीवन के गूढ़ रहस्यों से ओतप्रोत। हाथीमुख, विशाल कान, गोल उदर और स्निग्ध दृष्टि—इन सबके बीच एक ऐसा सम्मिलित सौंदर्य है जो शक्ति और करुणा, कठोरता और कोमलता का संतुलन रचता है। वे विघ्नहर्ता हैं परंतु केवल विघ्नों को हरते ही नहीं, अपितु जीवन की जटिलताओं को सरलता में रूपांतरित कर देने वाले सृष्टिकर्ता भी हैं।

उनके मस्तक पर हाथी का स्वरूप केवल बल का प्रतीक नहीं, बल्कि स्मृति और धैर्य का द्योतक है। हाथी की प्रज्ञा और स्थिरता से युक्त यह रूप बताता है कि जीवन में आगे बढ़ने के लिए केवल शक्ति ही नहीं, धैर्य भी अनिवार्य है। उनके कान इतने विशाल हैं मानो वे सम्पूर्ण जगत की ध्वनियों को सुन सकें—मनुष्य की करुण पुकार से लेकर ब्रह्मांडीय निनाद तक। उनकी आँखों में गहन आत्मीयता है, जो यह स्मरण कराती है कि शक्ति जब करुणा से जुड़ती है तभी दिव्यता प्रस्फुटित होती है। उनका उदर जीवन की उदारता और विशालता का प्रतीक है, जहाँ सुख-दुःख, राग-द्वेष, वैभव-दैन्य सभी स्थान पाते हैं।

गणेश के चार हाथ जीवन-दर्शन का प्रत्यक्ष रूप हैं। एक हाथ परशु धारण किए हुए है, जो असत्य को काटने और अहंकार को भंग करने की शक्ति का संकेत है। दूसरा हाथ अंकुश लिए है, जो इन्द्रियों की चंचलता को संयमित करता है। तीसरे हाथ में मोदक है—आनंद और तृप्ति का प्रतीक, यह बताता है कि संयमित जीवन के बाद ही वास्तविक सुख मिलता है। चौथा हाथ आशीर्वाद देता हुआ है, जिसमें असीम करुणा और आश्वासन का भाव है कि भय मत करो, मैं सदैव तुम्हारे साथ हूँ।

उनकी सवारी मूषक है—एक छोटा-सा जीव, जो सामान्यतः उपद्रव और चपलता का प्रतीक माना जाता है किंतु गणेश उसे अपने चरणों में स्थान देकर यह बताते हैं कि महानता तभी पूर्ण होती है जब सबसे सूक्ष्म और नगण्य को भी महत्व दिया जाए। यही संदेश है कि ब्रह्मांड की महत्ता सबसे छोटे प्राणी तक के अस्तित्व को स्वीकार करने से ही सुनिश्चित होती है।

गणेश केवल मंदिरों के देवता नहीं, लोकजीवन की आत्मा भी हैं। महाराष्ट्र में उनका आगमन दस दिनों तक धूमधाम से मनाया जाता है। मिट्टी की मूर्तियाँ बनाकर उन्हें घरों में आमंत्रित किया जाता है और अंततः जल में विसर्जित कर दिया जाता है। यह परंपरा सृजन और विसर्जन के चक्र का संकेत है, यह स्मरण दिलाती है कि देवत्व मिट्टी और जल से अलग नहीं, बल्कि जीवन और मृत्यु की सतत प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है। दक्षिण भारत में उन्हें कला और विद्या का अधिष्ठाता माना गया है। तमिल परंपरा में वे ‘पिल्लैयार’ कहलाते हैं। उत्तर भारत में उनकी कहानियाँ बच्चों को सुनाई जाती हैं—जैसे कैसे उन्होंने व्यास की महाभारत को अपने तीव्र लेखन से अमर कर दिया।

उनकी कथा में गहन प्रतीकात्मकता है। माता पार्वती ने अपने तन के उबटन से गणेश को गढ़ा और द्वार पर बैठा दिया। शिव जब लौटे तो गणेश ने उन्हें रोक दिया। अप्रसन्न होकर शिव ने उनका मस्तक काट दिया। बाद में हाथी का मस्तक जोड़कर उन्हें पुनर्जीवित किया गया। यह घटना केवल पौराणिक रहस्य नहीं, बल्कि जीवन का गूढ़ संदेश है—मृत्यु केवल रूप का परिवर्तन है और विनाश के पश्चात भी सृजन संभव है।

गणेश की बालसुलभता मन मोह लेती है। वे नटखट बालक की भाँति मूषक पर विचरण करते हैं, माता की गोद में स्नेह पाते हैं और अपने प्रिय मोदक से तृप्त होते हैं। उनकी मासूम मुस्कान जगत की सारी कठोरता को पिघला देती है। वे एक ओर गंभीर दार्शनिक हैं तो दूसरी ओर चंचल बालक भी। यही द्वैत उन्हें और भी निकट बनाता है।

गणेश का स्मरण आरम्भ का प्रतीक है। चाहे विवाह हो, यात्रा हो, लेखन हो या यज्ञ—सब उनके नाम से प्रारम्भ होता है। ‘श्रीगणेश’ कहना केवल परंपरा नहीं बल्कि आत्मबल का आह्वान है। यह स्वीकार है कि मार्ग में अवरोध आएँगे, परंतु उनके स्मरण से वे सरल हो जाएँगे।

चित्रकार, शिल्पी, कवि, संगीतज्ञ—सभी अपने सृजन में उन्हें पुकारते हैं। उनके विग्रह पत्थर और धातु में गढ़े जाते हैं, उनकी छवि रंगों में उतारी जाती है, उनकी स्तुतियाँ छंदों में गाई जाती हैं। वे केवल देवता नहीं, बल्कि भारतीय चेतना की सामूहिक धड़कन हैं। उनका स्वरूप यह संदेश देता है कि कुरूप और सुंदर का भेद झूठा है—हाथीमुख भी दिव्य सौंदर्य का प्रतीक हो सकता है।

उनका ध्यान करते ही मन में यह अनुभूति होती है कि ब्रह्मांड के गूढ़ रहस्य सरलता में छिपे हैं। हाथी का मस्तक स्मृति है, कान धैर्य हैं, उदर उदारता है और मूषक विनम्रता है। वे जीवन के प्रत्येक तत्व को दिव्यता में रूपांतरित कर देते हैं।

गणेश केवल पूजनीय देवता नहीं बल्कि जीवन का काव्य हैं। वे विघ्नों को तोड़ते हुए संभावना का द्वार खोलते हैं। उनका स्मरण जीवन को एक मधुर लय में ढाल देता है। वे अनादि भी हैं, अनन्त भी—और उनका आशीष पाकर हर आरम्भ मंगलमय हो उठता है।

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