विज्ञान का द्वंद्व: तटस्थ और निष्पक्ष होने का दावा 

विज्ञान का द्वंद्व: तटस्थ और निष्पक्ष होने का दावा 

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

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विज्ञान को आधुनिक युग में सत्य और प्रगति का पर्याय माना गया है। यह कहा जाता है कि विज्ञान मानवता को अज्ञान और अंधविश्वास से मुक्त करता है परन्तु जब विज्ञान का प्रयोग मनुष्य की स्वार्थसिद्धि, लालच, सत्ता और व्यापार के लिए किया जाता है तब वही विज्ञान द्वंद्वात्मकता का रूप ले लेता है।

विज्ञान का सबसे बड़ा द्वंद्व यह है कि वह तटस्थ और निष्पक्ष होने का दावा करता है जबकि वास्तव में उसका अधिकांश विकास पूँजी और राजनीति के इशारों पर होता है। उदाहरणस्वरूप—परमाणु ऊर्जा को ‘स्वच्छ और सस्ती शक्ति’ के नाम पर प्रचारित किया गया, जबकि उसका भयावह चेहरा हिरोशिमा-नागासाकी में सामने आया। आज भी परमाणु शस्त्र-स्पर्धा मानवता पर विनाश का खतरा बनकर मंडरा रही है।

दूसरा द्वंद्व चिकित्सा-विज्ञान में दिखाई देता है। बहुराष्ट्रीय दवा- कंपनियाँ नई-नई बीमारियों की पहचान और इलाज के नाम पर अरबों का व्यापार करती हैं। कई बार ऐसी बीमारियाँ गढ़ी जाती हैं जिनके लिए दवाएँ पहले से तैयार रहती हैं। इस प्रकार विज्ञान ‘जनकल्याण’ के बजाय ‘लाभ’ की भाषा बोलने लगता है।

तकनीकी क्षेत्र में विज्ञान का द्वंद्व और स्पष्ट दिखता है। मशीनें और कृत्रिम बुद्धिमत्ता मानव-श्रम को कम करने के नाम पर आईं परन्तु उनका सबसे अधिक प्रयोग बेरोज़गारी और असमानता बढ़ाने में हुआ। मोबाइल और इंटरनेट ने सूचना की दुनिया को पास लाने का दावा किया परन्तु वही तकनीक झूठ, अफवाह और निगरानी का सबसे बड़ा औज़ार बन चुकी है।

पर्यावरण के क्षेत्र में भी विज्ञान ने विकास का मुखौटा पहनकर प्रकृति का दोहन किया है। प्लास्टिक, रसायन, औद्योगिक प्रदूषण और जलवायु-परिवर्तन इसी ‘वैज्ञानिक प्रगति’ का नतीजा हैं। आज जब पूरा विश्व पारिस्थितिक संकट झेल रहा है, तब विज्ञान स्वयं को समाधानकर्ता कहता है, जबकि वह मूलतः समस्या-निर्माता रहा है।

विज्ञान का द्वंद्व तभी उजागर होता है जब वह मानवीय मूल्यों से कटकर केवल ‘उपयोगिता और लाभ’ का उपकरण बन जाता है। विज्ञान यदि संवेदना, नैतिकता और मानवीय विवेक से जुड़ा न हो तो उसका चमकदार चेहरा भी भीतर से खोखला और छलपूर्ण ही होता है।

विज्ञान का दावा है कि वह सत्य की खोज करता है और प्रमाणों के आधार पर ही किसी निष्कर्ष तक पहुँचता है लेकिन इतिहास गवाह है कि वैज्ञानिक सिद्धांत भी हमेशा अस्थायी साबित हुए हैं। जो कभी अंतिम सत्य माने गए, वे आगे चलकर खारिज कर दिए गए। न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत आइंस्टाइन के सापेक्षता सिद्धांत के सामने सीमित साबित हुआ। इसी प्रकार आज क्वांटम भौतिकी के आने से सापेक्षता का भी पुनर्मूल्यांकन हो रहा है। यह वैज्ञानिक खोज की स्वाभाविक प्रक्रिया है परंतु जब इन्हें ‘पूर्ण और अंतिम सत्य’ की तरह प्रचारित किया जाता है तब वह द्वंद्वात्मक बन जाता है।

विज्ञान का द्वंद्व यह भी है कि वह अपने परिणामों को ‘मानव-कल्याण’ की सेवा में प्रस्तुत करता है जबकि सच्चाई यह है कि अधिकांश वैज्ञानिक आविष्कार हथियार उद्योग, उपनिवेशवादी सत्ता या फिर कॉर्पोरेट कंपनियों के लिए किए गए। गनपाउडर से लेकर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तक का इतिहास देखें तो हमें स्पष्ट हो जाएगा कि विज्ञान सबसे पहले शासक वर्ग का औज़ार बना और बाद में आम जनता तक उसकी झलक पहुँची।

आज का विज्ञान खुद को तर्क और विवेक का समर्थक कहता है मगर उसके प्रचार में अक्सर अंधविश्वास जैसा भाव होता है। ‘वैज्ञानिक’ कह देने मात्र से कोई भी उत्पाद बिक जाता है, चाहे वह स्वास्थ्यवर्धक पेय हो, सौंदर्य प्रसाधन हो या कोई महँगा गैजेट। विज्ञान यहाँ सत्यापन से ज़्यादा ब्रांडिंग बन जाता है। यह बाज़ारवादी विज्ञान का सबसे बड़ा द्वंद्व है।

शिक्षा जगत में भी विज्ञान की यही प्रवृत्ति देखी जा सकती है। विद्यार्थियों को विज्ञान की खोजों को अंतिम और अपरिवर्तनीय मानने की शिक्षा दी जाती है। उन्हें यह नहीं बताया जाता कि विज्ञान स्वयं भी अपने ढाँचे में लगातार असुरक्षित और अपूर्ण रहता है। इससे एक प्रकार का ‘वैज्ञानिक अंधविश्वास’ जन्म लेता है। लोग सोचते हैं कि विज्ञान के पास हर समस्या का उत्तर है, जबकि विज्ञान के पास कई प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं।

विज्ञान का सबसे बड़ा द्वंद्व यह है कि वह अपने संकटों की ज़िम्मेदारी स्वीकार नहीं करता। ग्लोबल वार्मिंग, ओज़ोन-परत में छेद, जैव विविधता का संकट, समुद्र-स्तर का बढ़ना, यहाँ तक कि महामारी—इन सभी में वैज्ञानिक विकास और औद्योगिक विस्तार की बड़ी भूमिका रही है। लेकिन आज वही विज्ञान ‘सस्टेनेबल डवलपमेंट’ और ‘ग्रीन टेक्नोलॉजी’ के नाम पर समाधानकर्ता की भूमिका निभा रहा है। जैसे किसी ने आग लगाई हो और वही व्यक्ति फायर-ब्रिगेड बनकर आए।

विज्ञान का द्वंद्व केवल झूठे दावों या भ्रमित करने वाली व्याख्याओं में नहीं बल्कि उसके पूरे ढाँचे में गुँथा हुआ है। वह सत्य का मुखौटा पहनकर सत्ता, पूँजी और नियंत्रण की राजनीति का खेल भी खेलता है।

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