क्या हमारी हिंदी राजनीति के केंद्र में आ गई है?

क्या हमारी हिंदी राजनीति के केंद्र में आ गई है?

हिंदी संस्कृति की धारक एवं संवाहक है

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 हिंदी के बिना राष्ट्र गूंगा है-महात्मा गांधी 

हिंदी दिवस पर विशेष आलेख

✍🏻 राजेश पाण्डेय

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क


“बढ़ने दो उसे सदा आगे,
हिंदी जनमन की गंगा है,
यह माध्यम उस स्वाधीन देश का,
जिसकी ध्वजा तिरंगा है।”   गोपाल सिंह नेपाली

भाषा मूल रूप से वर्ण, लिपि और व्याकरण से निर्मित होती है। हमारी ज्ञान और बुद्धि के केंद्र में सदैव वेद रहे है। वेद ने हमें व्याकरण दिया है, इस व्याकरण के तहत हम भाषा एवं उससे सज्जित साहित्य का अध्ययन करते हैं। साहित्य समाज का दर्पण ही नहीं अतीत का अलबम भी है।भाषा पहचान व अस्मिता को चिन्हित करती है। राष्ट्र की अस्तित्व के लिए भाषा चाहिए। इतिहास साक्षी रहा है की भाषा भूगोल को प्रभावित ही नहीं किया बल्कि उसे बदला भी है।

हमारे देश ने हिंदी में 90 वर्षों तक पुरजोर स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी है। हिंदी को संपर्क भाषा माना गया परन्तु यह सेतु भाषा नहीं है। भाषा एक राष्ट्र को जोड़े रखने के लिए आवश्यक है, लेकिन एक भूगोल में एक ही भाषा नहीं बोली जाती है बल्कि कई बोलियों भी बोली जाती है।

हिंदी संपर्क भाषा के रूप में स्वतंत्रता की लड़ाई में जो भूमिका निभाई, वह अकल्पनीय थी। देश को सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से एक सूत्र में बांधने का कार्य किया। यही कारण था कि देश के स्वतंत्र होने पर उसे राष्ट्रभाषा का स्तर देने की बात हुई। परन्तु हिंदी प्रदेश के कुछ अंग्रेजी प्रेमी व्यक्तियों के विरोध एवं अहिंदी क्षेत्र के विद्वानों द्वारा असहमति के स्वर ने हिंदी को राजभाषा और अंग्रेजी को कार्यालयों, न्यायालयों,अंतरराष्ट्रीय व्यापार एवं अन्य उच्च सेवकों की परीक्षाओं में माध्यम भाषा के रूप में स्थापित कर दिया।

क्योंकि देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू जी का कथन था कि “जब तक गैर हिंदी भाषा वाले इस पर सहमत नहीं हो जाते तब तक आपकी भाषा एवं अंग्रेजी अपना कार्य करती रहेगी।” लेकिन महात्मा गांधी का कहना था कि हिंदी के बिना राष्ट्र गूंगा है।


आरोप है कि हिंदी भारत की एकमात्र भाषा होनी चाहिए। मतलब यह है की हिंदी राजनीति के केंद्र में आकर यह कह रही है कि मैं राजभाषा नहीं, राष्ट्रभाषा बनना चाहती हूं, इसके लिए मुझे पूरे देश का समर्थन है। इसका दोष वर्तमान सरकार पर लग रहा है, क्योंकि RSS की भाषा भी हिंदी ही है। तर्क यह है कि भारत के सुदृढ़ होने में केवल एक भाषा की सुदृढ़ता आवश्यक नहीं है। उसे पूरे देश में लागू होने में भी नहीं है।

हिंदी भारत की एकमात्र भाषा होनी चाहिए, इस उक्ति ने कई राज्यों में उथल-पुथल मचाया है। इसे दक्षिण के राज्यों में समय-समय पर देखा जा सकता है। विवाद भाषा और बोली का भी है। दरअसल भाषा एक बोली है जिसके पास शक्ति है, सत्ता है, संस्कृति है उसकी एक सभ्यता भी रही है अर्थात इस प्रक्रिया से बोली, भाषा बन जाती है और भाषा से शक्ति, सत्ता, संस्कृति व सभ्यता निकल जाती है तो वह बोली बन जाती है।

हिंदी भाषा एवं साहित्य के भारतेंदु युग में हम यह देखते हैं की उत्तर भारत की सुदृढ़ ब्रजभाषा निसहाय हो जाती है और खड़ी बोली भाषा के रूप में द्विवेदी युग में आकर पदस्थापित हो जाती है।भाषाविदों का कहना है कि हम पूरे देश को एक भाषा के परिदृश्य में देखने से परहेज़ करें। देश के विकास के लिए भाषिक विविधता आवश्यक है। भाषा अभिव्यक्ति है जो विविधता में ही प्रकट होती है। भाषाई राष्ट्रवाद कभी-कभी धार्मिक राष्ट्रवाद की तरह हिंसा से ओत-प्रोत प्रोत हो जाते हैं। भारत में राज्यों का गठन भी भाषाई आधार पर हुआ था।

राजभाषा एक संवैधानिक शब्द है। हिंदी को 14 सितंबर 1949 को संवैधानिक रूप से राजभाषा घोषित किया गया। इसलिए प्रत्येक वर्ष 1953 से 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में इसे मनाया जाता है। संविधान सभा में हिंदी को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव गोपाल स्वामी आयंगर ने रखा है जिसका समर्थन शंकर रामण देव ने किया। संविधान सभा में राजभाषा के‌ नाम पर हुए मतदान में हिंदुस्तानी को 77 वोट और हिंदी को 78 वोट मिले। लेकिन जैसे‌ ही हिंदी को राजभाषा बनाया गया इसे लेकर कई नामचिन नेताओं का विरोध प्रारंभ हो गया, जो पीढ़ी दर पीढ़ी आज भी जारी है।

भारत विश्व का एकमात्र ऐसा देश है जिसकी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। राष्ट्रभाषा में उस भाषा का सामाजिक- सांस्कृतिक प्रतिबिंब होती है, इससे जनता जुड़ाव एवं लगाव का अनुभव करती है। राष्ट्रभाषा से देश के विभिन्न सांस्कृतिक पक्षों की अभिव्यक्ति होती है।राष्ट्रभाषा का देश की विभिन्न भाषाओं से इसका गहरा संपर्क होता है। राष्ट्रभाषा का व्याकरण सरल होता है ताकि देश के अन्य हिस्सों के निवासी इसे सीख व समझ सकते हैं। भारत सहमति के आधार पर पिछले 80 वर्षों से हिंदी को राजभाषा से राष्ट्रभाषा बनाने के लिए कार्य कर रहा है।

विश्व परिदृश्य पर गौर करें तो कई देशों की अभूतपूर्व प्रगति में उनकी भाषायी सुदृढता को देखा और समझा जा सकता है। जापान, जर्मनी, फ्रांस, स्पेन, इजराइल रूस चीन का विकास अपनी बोली बानी में हुआ है। प्रत्येक व्यक्ति की आंतरिक प्रतिभा उसकी मातृभाषा‌ एवं बोली में उभरती है। यही कारण है कि विश्व में साहित्य की सर्वश्रेष्ठ कृतियां अपनी बोली बानी में ही रचे गए हैं।

सुखद पहलू यह है कि भारतीय सिनेमा ने हिंदी को विश्व के कोने-कोने में पहुंचाया है। भारतीय प्रधानमंत्री पिछले 11 वर्षों से विश्व मंचों पर हिंदी में अपने सारगर्भित उद्बोधन से राष्ट्र की भाषायी शक्ति को एक नई ऊर्जा प्रदान की है।

अपनी भाषा को हमसभी मातृभाषा के रूप में जानते हैं, जो हमें हमारी माता से आती है। जिसमें हमारी सभ्यता, संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज होते है। भाषा हमारी अभिव्यक्ति को परिलक्षित करते हुए हमें संबलता प्रदान करती है। यह गांव के बथान से लेकर विश्व स्तरीय सूचना व सम्प्रेषण में हमारी समझ को बढ़ाती है।

जिस समाज की अपनी बोली-बानी भाषा नहीं होती उसकी अपनी कोई संस्कृति भी नहीं होती। भाषा के अंदर वाक्य एवं उसके शब्द हमारी अवधारणा एवं मर्म को स्पष्ट करते हमारे मस्तिष्क एवं हृदय को संदेश संप्रेषित करते है कि आपके संवाद, आपकी समझ लोक कल्याणकारी है, जिम्मेदारी भरी हुई है, आपके भीतर सहिष्णुता का पुट है, आपमें मनुष्य होने की अभिव्यक्ति है।

भाषा हमें अपने प्रकृति एवं पर्यावरण से अटूट रूप से जोड़कर रखती है। वह हमारे भीतर दया, करुणा, आकांक्षा, अनुशासन, अभिनव, अभिवृति, स्पष्टता एवं अभिरुचि का संदेश देती है। हिंदी केवल कुछेक एक घंटे का सेमिनार एवं समारोह नहीं है और ना ही अगले दिन अखबारों के पृष्ठों पर छपे समाचार है, वरन यह दिवस हमें निरंतर अपनी भाषा पर गर्व करने, अपनी अभिव्यक्ति को स्पष्ट करने का संदेश देती है। हमें अपने भाषा पर गर्व करते हुए उसका प्रयोग नहीं सर्वाधिक प्रयोग करते हुए उसे सजाने एवं संवारने के लिए कटिबद्ध होना चाहिए।

बहरहाल भारत में 1650 भाषा एवं बोली बोलने वाला देश है, जिसमें से 22 को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया है। लेकिन हमें अपना एक राष्ट्रभाषा अवश्य चुनना होगा, जिसकी अधिकारिणी हिंदी है, क्योंकि यह संस्कृत की वाहिका होने के साथ-साथ हमारे संस्कृतिबद्ध समाज की चेतना है, जिसने मानवता के कल्याण में अपनी महती भूमिका का निर्वहन किया है।
और अंततः
“पर-भाषा पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।”

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