हिंदी भारत की सांस्कृतिक शक्ति है
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
हिन्दी दिवस केवल एक स्मरण दिवस नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक चेतना और आत्मगौरव का उत्सव है।भाषा और संस्कृति का रिश्ता शरीर और आत्मा की तरह है—भाषा सुदृढ़ रहेगी तो संस्कृति भी समृद्ध बनी रहेगी। मातृभाषा को केवल शिक्षा का साधन न मानकर जीवन का आधार समझा जाए। ऐसे समय में मातृभाषा और साहित्य ही वह ज्योति हैं, जो आत्मा को ऊष्मा और जीवन को दिशा देती हैं।
मातृभाषा आत्मविश्वास का बीज बोती है, साहित्य नैतिकता और राष्ट्रप्रेम का वृक्ष उगाता है, और कहानियाँ करुणा की धारा बहाती हैं। यही हमारी सुदृढ़ शरण है, जो हमें भविष्य की चुनौतियों में भी संतुलित रखती है। भाषा केवल शब्दों का संग्रह नहीं, बल्कि राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक गौरव का प्रतीक है।
भारत इस दृष्टि से समृद्ध है, जहाँ 22 संवैधानिक भाषाएँ, 121 प्रमुख भाषाएँ और लगभग 19500 बोलियाँ एक ही राष्ट्र की धारा में प्रवाहित होती हैं। यही विविधता हमारी राष्ट्रीय एकता को गहराई देती है और हमें वैश्विक पटल पर विशिष्ट बनाती है।साहित्य मातृभाषा का सबसे उज्ज्वल रूप है। हिन्दी और भारतीय साहित्य की अनेक कृतियाँ समाज और राष्ट्र की चेतना को गढ़ती रही हैं।
शोध बताते हैं कि मातृभाषा आधारित शिक्षा बच्चों की स्मृति, पठन और गणितीय क्षमता को कई गुना बढ़ा देती है।मातृभाषा का महत्व केवल कक्षा तक सीमित नहीं। दादी की कहानियाँ, माँ की लोरी, लोकगीत और त्योहार तब जीवंत होते हैं जब उन्हें अपनी भाषा में सुना और समझा जाए। यही भाषा पीढ़ियों को जोड़ने वाला सेतु है और जीवन को आत्मीयता से भर देती है। इसे ही संस्कृति की जड़ों को सींचने वाली अमिट धारा कहा जाता है।
निरंतर बढ़ती हिन्दी शक्ति आज न केवल भारत के सांस्कृतिक, सामाजिक और प्रशासनिक परिदृश्य को आकार देती है बल्कि विश्व मंच पर भी अपनी प्रगाढ़ छाप छोड़ रही है। आज दुनियाभर में हिन्दी चाहने वालों, बोलने या पढ़ने-समझने वाले लोगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। हिन्दी को लेकर भारतीय और विदेशी विद्वानों, साहित्यकारों तथा विभूतियों का आदर भाव वर्षों से रहा है। हिन्दी का वैश्विक सांस्कृतिक प्रभाव भी आश्चर्यचकित करता है।
लेकिन दुखद है कि आज भी पुनरुत्थानवादी मानसिकता वाले कुछ लोग हिन्दी की व्यापकता, समृद्धि और ताकत को नजरअंदाज करते हैं और संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी को स्थान नहीं मिलने की बात पर कुतर्क करके उसके वैश्विक पक्ष को कमतर आंकते हैं। हालांकि ऐसी नकारात्मक चर्चाओं से न हिन्दी का कुछ भला हो सकता है, न ही उसका अस्तित्व डिग सकता है। हिंदी को स्वीकार करना किसी क्षेत्रीय भाषा को कमज़ोर करना नहीं, बल्कि पूरे भारत को एक साझा सूत्र में पिरोना है।
विरोध करने वालों को यह समझना चाहिए कि हिंदी भारत की आत्मा है और आत्मा से विरोध राष्ट्र को कमज़ोर करता है। हिंदी का सम्मान करना किसी और भाषा का अपमान नहीं, बल्कि भारत की एकता और सांस्कृतिक शक्ति को मज़बूत करना है।
अमेरिकी चिकित्सक वॉल्टर चेनिंग तो यह मानते थे कि विदेशी भाषा का किसी स्वतंत्र राष्ट्र की शिक्षा एवं प्रशासन की भाषा होना सांस्कृतिक दासता है। हिन्दी भाषा की बढ़ती ताकत और वैश्विक प्रतिष्ठा आज न केवल भारत की बल्कि विश्व संस्कृति की सबसे मजबूत और सुंदर कड़ी बन चुकी है। विश्व की 5वीं सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा होने के नाते यह केवल भारत की नहीं, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी अपनी पहचान बना रही है। यह भारतीय सिनेमा, साहित्य, पत्रकारिता और इंटरनेट की प्रमुख धुरी है।
हिंदी सिर्फ हमारी मातृभाषा नहीं, बल्कि भविष्य की भाषा है, जो भारत का सम्मान और अवसर दोनों बढ़ाएगी। यह वह भाषा है, जो उत्तर भारत के गाँवों से लेकर दक्षिण भारत के महानगरों तक, फिल्मों से लेकर साहित्य तक, लोकगीतों से लेकर इंटरनेट तक, हर जगह सहज संवाद की डोर थामे हुए है। यह भारतीयता की वह बुनावट है, जिसमें अलग-अलग भाषाई और सांस्कृतिक रंगों को जोड़ने की क्षमता है।
हिंदी दिवस हमें केवल इतिहास की याद नहीं दिलाता, बल्कि यह चेतावनी भी देता है कि यदि हमने अपनी भाषा की ताक़त को नहीं पहचाना तो सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता अधूरी रह जाएगी। हमें यह स्वीकार करना होगा कि भाषा ही राष्ट्र की आत्मा है। आत्मा से दूरी, राष्ट्र से दूरी के समान है। हिंदी का सम्मान ही भारत की एकता, संस्कृति और स्वाभिमान का सम्मान है।