सांस्कृतिक वैविध्य के प्रति सरोकार ही होगी राष्ट्रकवि दिनकर के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि

सांस्कृतिक वैविध्य के प्रति सरोकार ही होगी राष्ट्रकवि दिनकर के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जयंती पर उन्हें शत् शत् नमन

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राष्ट्रकवि के जयंती पर विशेष आलेख

✍️ डॉक्टर गणेश दत्त पाठक

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने ब्रिटिश दासता के दौर में भारत के आमजन की पीड़ा को महसूस किया, अपनी लेखनी से संवेदना के स्वर को सुसज्जित किया, राष्ट्रीय चेतना को ऊर्जस्वित किया। यह तो हम सभी जानते हैं लेकिन दिनकर ने अपनी रचनाओं ‘रश्मिरथी, कुरुक्षेत्र, उर्वशी, संस्कृति के चार अध्याय’ के माध्यम से कई संदेश भी दिए, जो आज के दौर में ना केवल प्रासंगिक दिखते हैं अपितु व्यापक स्तर पर हमारा मार्गदर्शन भी करते हैं।

यदि हम राष्ट्रकवि के संदेशों को समझ पाएं और उसके अनुरूप आचरण करें तो राष्ट्र तत्व को मजबूती मिलेगी। सांस्कृतिक वैविध्य के प्रति सरोकार जताना ही राष्ट्रकवि दिनकर के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है। राष्ट्र कवि ने मूल रूप से राष्ट्रीयता, मानवता, विविधता का संदेश दिया। राष्ट्रकवि दिनकर के ये संदेश मानवता के अधिकतम कल्याण को ही संदर्भित दिखते हैं।

राष्ट्रकवि दिनकर ने ‘रश्मिरथी’ के माध्यम से विशेषकर युवाओं को साधना से साधन का मूलमंत्र दिया। दिनकर स्पष्ट तौर पर यह बताते दिखते हैं कि छात्रों को अपने अध्ययन काल के दौरान साधना के समर्पित प्रयास करने चाहिए। उन्हें अपने निरंतर साधना द्वारा अपनी आत्मशक्ति को जागृत करना चाहिए। यही आत्मशक्ति ही उनके व्यक्तित्व का मजबूत आधार बनेगी, जो उनकी जिंदगी को सार्थक और सुखमय बना जायेगी।

“तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के
पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।”

कोरोना महामारी के दौरान हमने देखा था कि हमारी आत्मशक्ति कितनी कमजोर थी? संकट के आते ही हमारी भौतिक व्यवस्थाओं के साथ साथ मानसिक जोश भी संकट में आ गया था।

“सच में विपत्ति जब आती है कायर को ही दहलाती है
सुरमा नहीं विचलित होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते।”

राष्ट्रकवि दिनकर ने मानव जीवन में धैर्य की महिमा को पुनः प्रतिष्ठित किया। आज के दौर में युवा फटाफट सब कुछ पा लेने की हसरत रखते हैं लेकिन दिनकर ने आत्मशक्ति के विकास पर बल देकर कहीं न कहीं धैर्य के तत्व को विशेष महत्व देने का प्रयास किया।

राष्ट्रकवि दिनकर ने ‘कुरुक्षेत्र’ के माध्यम से दुनिया को मानवता और शांति का महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाया। उन्होंने ‘ कुरुक्षेत्र’ में इस बात पर बल दिया कि युद्ध में विजेता कोई नहीं होता उभय पक्षों की वास्तव में हार ही होती है। जो जंग जीतता भी है, वह उसकी भारी कीमत चुकाता है और उसे काफी कुछ खोना ही पड़ता है।

युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता। दिनकर ने हालांकि महाभारत काल के कर्ण को कुरुक्षेत्र में उद्धृत किया लेकिन हाल में रूस यूक्रेन के जंग का वाकया भी दिनकर के विचार की पुष्टि करता है जिसका परिणाम सिर्फ उभयपक्षों की तबाही में ही दिखता है। आज के दौर में यदि परमाणु युद्ध हो जाए तो सिर्फ दुनिया तबाह ही हो सकती है। जीत तो भला किसे हासिल हो पायेगी?

ब्रिटिश दासता के दौर में दिनकर ने अपनी लेखनी से राष्ट्रीय चेतना को जगाया, राष्ट्र प्रेमियों को प्रेरणा दिया, उनके दिल को झकझोरा, उनके दिमाग को उद्वेलित किया। प्रयास सिर्फ यहीं था कि पीड़ित मानवता को थोड़ी राहत मिल सके। ब्रिटिश दासता से मुक्ति मिल सके। रेणुका, हुंकार, सामधेनी आदि कविताओं ने स्वतंत्रता सेनानियों को प्रेरित और ऊर्जस्वित किया।

‘उर्वशी’ के माध्यम से राष्ट्रकवि दिनकर ने देव तत्व और मानव तत्व के बीच पारस्परिक और पूरक संबंध की वास्तविकता को उजागर किया। जितनी श्रद्धा मानव तत्व देव तत्व के प्रति रखते हैं उतनी ही श्रद्धा देव तत्व मानव तत्व के प्रति भी रखते हैं। उर्वशी के माध्यम से जड़ और चेतन के बीच सुंदर सामंजस्य का जैसा खाका दिनकर ने खींचा वह आध्यात्मिकता के सहज सरल स्वरूप का श्रृंगार कर जाता है। दिनकर ने यह स्पष्ट किया कि जहां देवत्व की एकरूपता, एकलयता,एक स्वर, एक राग, मानव तत्व की विविधता के प्रति आकर्षित होती है। वही मानव की क्षणभंगुर प्रवृति की लालसा अमरत्व को प्राप्त करने की होती है। मानव जगत की विविधता के अनुपम आयाम को सुप्रतिष्ठित करने में दिनकर की लेखनी की महत्वपूर्ण भूमिका रही।

‘संस्कृति के चार अध्याय’ के माध्यम से राष्ट्रकवि दिनकर ने भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए जिम्मेदार सांस्कृतिक तथ्यों की महता को प्रतिपादित किया। दिनकर ने भारत के सांस्कृतिक वैविध्य को दुनिया में शांति स्थापित करने का संदेश बताया। उनका महान संदेश यह रहा कि भारत में जितनी ही सांस्कृतिक विविधता संपोषित होगी उतनी ही एकता की प्रबल बयार बह पाएगी।

राष्ट्रकवि दिनकर वैसे मार्क्सवाद के विचार से प्रभावित दिखते हैं लेकिन उनका मार्क्सवाद आयातित मूल्यों पर आधारित नहीं होकर सनातन संस्कृति के सारगर्भित और शाश्वत मूल्यों पर आधारित था। सनातन संस्कृति के व्यापक और सारगर्भित मूल्यों को मानवता के प्रति ही संदर्भित देखते थे राष्ट्रकवि दिनकर।

“शांति नहीं तब तक जब तक
सुख भाग न नर का सम हो
नहीं किसी को बहुत अधिक हो
नहीं किसी को कम हो।”

राष्ट्रकवि दिनकर वेदना, संवेदना, अनुभूति के साक्षी बनकर अपने उदगारों को मार्मिक तरीके से अपने लेखनी से उजागर किया। दिनकर ने रूढ़िवादी जाति व्यवस्था पर कड़ा प्रहार किया उन्होंने अपने खंड काव्य ‘ परशुराम की प्रतीक्षा’ में लिखा कि

“घातक है जो देवता सदृश दिखता है
लेकिन कमरे में गलत हुक्म लिखता है
जिस पापी को गुण नहीं गोत्र प्यारा है
समझो उसने ही हमें यहां मारा है।”

राष्ट्र कवि दिनकर सही-गलत को स्पष्ट विभाजित करते थे एवं वैचारिक पाखंड पर प्रहार करने से बिल्कुल नहीं हिचकते। यहां तक कि अपने परम प्रिय मित्र प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू के गुट-निरपेक्ष नीति को भी सही नहीं ठहराते।

….”समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।”

दुनियां में जितने युद्ध हुए उनमें तटस्थतावादियों की बड़ी भूमिका रही है। दुनियां अच्छे लोगों की खामोशी की वजह से तबाह हुई है। उनका मत था कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी मसलों पर स्पष्ट राय रखना चाहिए।।

लेकिन राष्ट्रकवि दिनकर ने रश्मिरथी में विनम्रता को बेहद श्रेयस्कर बताने से परहेज नहीं किया। केवल जीत, समृद्धि और सफलता को दिनकर ने कभी पुरुषार्थ नहीं माना अपितु विनम्र भाव को ही विजय का सार सूत्र बतलाया;

“नहीं पुरूषार्थ केवल जीत में है,
विभा का सार शील पुनीत में है।”

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