विनोद कुमार शुक्ल की रॅायल्टी और हमारी हिंदी

विनोद कुमार शुक्ल की रॅायल्टी और हमारी हिंदी

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

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हिंदी में कितना कमाते हो ? लिखकर क्या मिलता है ? कितनी रॅायल्टी मिली ? आदि सवाल लेखक से खूब पूछे जाते हैं.ये सवाल क्यों पूछे जाते हैं ,हम नहीं जानते.पूछने वालों का मंशा एक ही होती है कि आख़िर लेखक की हैसियत क्या है ? रॅायल्टी का सवाल फिर एक बार विनोद कुमार शुक्ल को 30 लाख की रॅायल्टी के साथ केन्द्र आया है। ‘हिन्दी युग्म’ प्रकाशन ने यह रॅायल्टी दी है। हिंदी की यह सबसे अधिक रॅायल्टी है।

फेसबुक पर संजीव चंदन ने एक और सूचना दी कि -अभी भी हिन्दी के बड़े लेखकों में नंबर एक पर एक करोड़ 77 लाख के एडवांस रॉयल्टी के साथ रत्नेश्वर कुमार सिंह बने हुए हैं। इस तरह हिंदी का सबसे बड़ा उपन्यास -‘ रेखना मेरी जान ‘ हुआ।’ विनोद कुमार शुक्ल 30 लाख की रॉयल्टी के साथ दूसरे नंबर पर विराजमान हुए।उनका उपन्यास ‘दीवार में एक खड़की रहती थी ‘ दूसरे नंबर पर फिलहाल ताजपोश है।’

समस्या रॅायल्टी की नहीं है।समस्या उससे भी गहरी है।समस्या है लेखक-प्रकाशक-किताब और रॅायल्टी को हम पूंजीवादी नज़रिए से कब देखेंगे ? असल में हिंदी में प्रकाशन अभी तक पूंजीवादी मूल्यों के साँचे में ढला नहीं है।

हिंदी का प्रकाशक जब किसी लेखक की किताब छापता है तो उसके अंदर पूंजीवादी भाव नहीं होता।वह लेखक-प्रकाशक के संबंधों को पूंजीवादी नियमों के ढाँचे में नहीं ढालता।बल्कि सामंती-अर्द्ध सामंती मूल्यों के ढाँचे में रखकर ही लेखक-प्रकाशक के संबंधों को देखता है।
‘हिंदीयुग्म’ ने विनोद कुमार शुक्ल के साथ शुद्ध पूंजीवादी रिश्ता बनाया है जो अब तक का बेहतरीन संबंध है।

हिंदी के प्रकाशन जगत में पूंजीवादी प्रकाशन संबंध क्यों नहीं बना ? इस सवाल पर बातें की जानी चाहिए।अधिकतर लेखक,लेखक संगठन आदि पूंजीवादी नज़रिए से लेखक,प्रकाशक,किताब,रॅायल्टी को देखते नहीं हैं।लेखक संगठन भी नहीं देखते।

हिंदी प्रकाशक जब किसी लेखक की किताब छापता है तो एहसान करता है। आए दिन हिंदी के ‘महान प्रकाशक’ अपने लेखक से यही कहते हैं , ‘आपकी किताब इसलिए बिकी है क्योंकि मैंने बेची है, आपके कारण किताब नहीं बिकती, बल्कि किताब तो मैं बेचता हूं।’
इस तरह लेखक को रद्दी साबित करने में प्रकाशक सफल हो जाता है।

लेखक भी मान लेता है वह नहीं बिकता, प्रकाशक बिकता है। यह सबसे घटिया सामंती धारणा है।एक जमाने में दरबारी कवि की यही दशा थी।लेखक इसलिए महान था क्योंकि वह दरबारी था, राजा के साथ जुड़ने से उसे यश-पैसा मिलता था। इन दिनों हिंदी में राजा के स्थान पर प्रकाशक आ बैठा है। इसने लेखक-प्रकाशक संबंधों का पूंजीवादीकरण नहीं होने दिया।

अंग्रेजी में अधिकांश प्रकाशक रॅायल्टी देते हैं।हिंदी में अधिकांश प्रकाशक अपने लेखक की पूंजीवादी अस्मिता को ध्यान में रखकर बात नहीं करते,बल्कि उनकी नज़र में हमेशा दरबारी लेखक की अस्मिता रहती है।प्रकाशक अपने को राजा समझता है।दाता समझता है।
सवाल यह है प्रकाशक-लेखक-रॅायल्टी-किताब के बारे में हमने पूंजीवादी धारणाएं विकसित क्यों नहीं कीं ? आपको हिंदी लेखकों के लेखन में इनकी पूंजीवादी धारणाएं नहीं मिलेंगी।

अवधारणाओं में न सोचना दूसरी बड़ी बीमारी है।लेखक अपनी अस्मिता को नहीं जानता,उसे लेखक की आधुनिक अंतर्वस्तु और मूल्य का ज्ञान नहीं है।वह तो सूर, कबीर ,तुलसी की परंपरा में अपने को देखता है।उसे दलित अस्मिता-स्त्री अस्मिता पर बातें करने में मजा आता है, अपनी किताब पर बातें करने में मजा आता है लेकिन लेखक की आधुनिक अस्मिता की अवधारणा पर बातें करने में मजा नहीं आता।

अधिकांश प्रगतिशील -जनवादी लेखक तो पूंजीवाद से नफ़रत करते हैं ऐसी अवस्था में पूंजीवादी सिस्टम में लेखक -प्रकाशक-किताब आदि को देखने ,अपने को पुनर्परिभाषित करने का प्रश्न ही नहीं उठता।

प्रकाशक बाज़ार में पूंजीवादी तर्क से प्रवेश करता है।उसके नियमों से बिक्री करता है। पर किताब,लेखक, प्रकाशक, रॅायल्टी आदि को पूंजीवादी नज़रिए से नहीं देखता।वह सिर्फ बिक्री को पूंजीवादी तर्क से संचालित करता है बाकी मामलों में वह सामंती है।यही बीमारी की मूल जड़ है।

मुझे लेखक-प्रकाशक-किताब-रॅायल्टी-प्रकाशन आदि की आधुनिक अवधारणाओं में जीने वाले लेखक-प्रकाशक और नए पूंजीवादी संबंध चाहिए।विनोद कुमार शुक्ल को हिंदीयुग्म ने रॅायल्टी का चैक देकर नए आधुनिक लेखक-प्रकाशक संबंधों की घोषणा की है।

 

 

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