स्वतंत्रता आंदोलन की आवाज ‘वंदे मातरम्’ के 150 वर्ष पूरे हो गए
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

‘वंदे मातरम्…’ वो गीत जो स्वतंत्रता आंदोलन की आवाज बन गया। जिसने गुलामी की नींद में सोए भारतीयों को जगाया। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की कलम से निकला ‘वंदे मातरम्’ जब गूंजता, तो सुनने वालों के दिलों में ऐसी क्रांति की लपटें उठतीं कि अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिल जाती। खेत-खलिहानों से लेकर जेल की अंधेरी कोठरियों तक यह गीत आजादी के मतवालों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना।
इसके हर स्वर में मातृभूमि की सुगंध और हर पंक्ति में आजादी का जज्बा था। अपनी माटी के प्रति समर्पण, त्याग और गर्व का प्रतीक राष्ट्रगीत ‘वंदे मातरम्’ सिर्फ लिखा या गाया नहीं गया, बल्कि जिया गया।
राष्ट्रगीत ‘वंदे मातरम्’ के 150 साल पूरे हो गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस अवसर पर राष्ट्रगीत के 150 वर्षों की स्मृति में विशेष डाक टिकट और स्मारक सिक्का जारी किया। इस दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि ‘वंदे मातरम्’ एक मंत्र है, एक स्वप्न है, एक संकल्प है और एक ऊर्जा है। यह गीत मां भारती की आराधना है। ‘वंदे मातरम्’ भारत की आज़ादी का उद्घोष था और यह हर दौर में प्रासंगिक है।
भारत में ब्रिटिश हुकूमत थी। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय सरकारी नौकरी में थे। उन्हीं दिनों अंग्रेजों ने एक आदेश दिया, जिसमें कहा गया कि अब से सभी भारतीयों को ‘गॉड सेव द क्वीन’ गीत गाना अनिवार्य है।
भारत की धरती पर विदेशी शासक के प्रशंसा में गीत गाने का यह फरमान बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय समेत लाखों भारतीयों को किसी भी हाल में मंजूर नहीं था। यह आदेश उनके जख्मों पर कुरेदकर नमक डालता सा लगा। अंग्रेजी फरमान के विरोध और इसको जबरन थोपने से आहत होकर बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ‘वंदे मातरम्’ लिखा था।
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का लिखा गीत वंदे मातरम् 7 नवंबर 1875 को पहली बार साहित्यिक पत्रिका बंगदर्शन में छपा। सात साल बाद बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय इसे अपने उपन्यास ‘आनंदमठ’ में शामिल किया, जोकि 1882 में प्रकाशित हुआ था।
1896 में कांग्रेस के कलकत्ता (मौजूदा कोलकाता) में हुए अधिवेशन में रवींद्रनाथ टैगोर ने मंच से वंदे मातरम् गाया। यह पहली बार था, जब यह गीत सार्वजनिक रूप से राष्ट्रीय स्तर पर गाया गया। उस वक्त सभा में मौजूद हजारों लोगों की आंखें नम हो गई थीं।
पूरा वन्दे मातरम् यहां पढ़ें…
वन्दे मातरम्!
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्,
शस्यश्यामलां मातरम्।
शुभ्रज्योत्स्नां पुलकितयामिनीम्,
फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीम्,
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्,
सुखदां वरदां मातरम्॥
वन्दे मातरम्!
कोटि कोटि कण्ठ कलकल निनाद कराले,
द्विसप्तकोटि भुजैर्धृत खरकरवाले,
के बोले मा! तुमि अबले?
बहुबल धारिणीं, नमामि तारिणीं,
रिपुदलवारिणीं मातरम्॥
वन्दे मातरम्!
तुमि विद्या, तुमि धर्म,
तुमि हृदि, तुमि मर्म,
त्वं हि प्राणा: शरीरे,
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारै प्रतिमा गढि
मन्दिरे मन्दिरे॥
वन्दे मातरम्!
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी,
कमला कमलदलविहारिणी,
वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्,
नमामि कमलाम् अमलाम् अतुलाम्,
सुजलां सुफलां मातरम्॥
वन्दे मातरम्!
श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिताम्,
धरणीं भरणीं मातरम्॥
वन्दे मातरम्!
वंदे मातरम् गाने पर लगा जुर्माना
19वीं सदी के आखिर और 20वीं सदी की शुरुआत होते-होते ‘वंदे मातरम्’ भारतीय राष्ट्रवाद का नारा बन गया था। 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध और स्वदेशी आंदोलन की शुरुआत के दौरान वंदे मातरम् जनता की अवाज बन गया। उसी साल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने वाराणसी अधिवेशन में ‘वंदे मातरम’ गीत सभी आयोजनों, सभा और सम्मेलनों में गाया।
20 मई 1906 को बारीसाल ( अब बांग्लादेश में है) में वंद मातरम् जुलूस निकाला, जिसमें 10 हजार से ज्यादा सड़कों पर उतरे थे। इसमें हिंदू और मुस्लिम समेत सभी धर्म और जातियों के लोगों ने वंदे मातरम् के झंडे हाथ में लेकर सड़कों पर मार्च किया था।
वंदे मातरम् की गूंज से सहमी ब्रिटिश सरकार, लगाई पाबंदी
रंगपुर के एक स्कूल में जब बच्चों ने यह गीत गाया तो अंग्रेजी सरकार ने 200 छात्रों पर 5-5 रुपये का जुर्माना सिर्फ इसलिए लगा दिया कि उन्होंने वंदे मातरम् कहा था। इसके बाद ब्रिटिश हुक्मरानों ने कई स्कूलों में वंदे मातरम् गाने पर पाबंदी लगा दी थी।
इतना ही नहीं शैक्षणिक संस्थानों को मान्यता रद्द करने की धमकी तक दे दी थी। उस समय छात्रों ने कक्षाएं छोड़ दीं, जुलूस निकाले और पर यह गीत गाना नहीं छोड़ा। कई जगहों पर तो पुलिस ने छात्रों को पीटा और जेल में डाला दिया।
- 7 अगस्त 1905 को वंदे मारतम् को राजनीतिक नारे के तौर पर पर पहली बार इस्तेमाल किया गया था।
- 1907 में जब मैडम भीकाजी कामा भारत के बाहर स्टटगार्ट, बर्लिन में पहली बार तिरंगा फहराया था तो उस ध्वज पर भी वंदे मातरम् लिखा हुआ था।
- 17 अगस्त 1909 को जब मदनलाल ढींगरा को इंग्लैंड में फांसी पर चढ़ाया गया, उस वक्त उनके आखिरी शब्द ‘वंदे मातरम्’ थे।
- अक्टूबर, 1912 में गोपाल कृष्ण गोखले दक्षिण अफ्रीका पहुंचे तो तब उनका स्वागत ‘वंदे मातरम्’ के नारे लगाकर किया गया।
कब और कहां वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत घोषित किया?
आजादी के बाद संविधान सभा में जन गण मन और वंदे मातरम् दोनों को राष्ट्रीय प्रतीकों के रूप में अपनाने पर पूर्ण सहमति बनी, इस मुद्दे पर कोई बहस नहीं हुई।
24 जनवरी 1950 को डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि आजादी की लड़ाई में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के कारण ‘वंदे मातरम्’ को राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ के समान दर्जा दिया जाना चाहिए और सम्मान भी बराबर ही होना चाहिए।
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