भरोसा जीतने के लिए नीतीश कुमार बनना पड़ता है
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

बिहार चुनाव परिणाम को सभी अपनी दृष्टि से देख रहे हैं । हारनेवाले अपनी हार को स्वीकार नहीं कर रहे हैं । इसी कारण हार की वजहों की पड़ताल नहीं कर रहे हैं । कोई दसहजारी योजना को प्रमुख कारण बता रहा है तो कोई इसके उपर पेंशन की लेयर चढ़ा रहा है । जब कोई निष्कर्ष नहीं निकल रहा तो निर्वाचन आयोग और सरकारी मशीनरी पर सवाल खड़े कर कुछ लोग स्वयं संबोधि प्राप्त कर रहे हैं ।
1990 से 2005 वाले कालखण्ड के किशोर और युवा आज अपने परिवार और समाज में महत्वपूर्ण स्थिति में है । परिवार की सत्ता इन्हीं के पास है । इन किशोरों और युवाओं ने अपना कैरियर बेहतर करने के लिये अपना राज्य छोड़ा । इंटर काउन्सिल के लेट रिजल्ट के चलते उसी सत्र में दूसरे राज्यों के शैक्षिक संस्थानों में इनका नामांकन नहीं हुआ । अपने राज्य में एडमिशन लेने से बेहतर लगा था उन्हें एक साल गंवाकर किसी अन्य राज्य में जाना ।
अपनी बड़ी छोटी बहनों को पढाई छोड़ते उस समय की पीढ़ी ने देखा था । प्राइमरी या मिडिल स्कूल के बाद हाई स्कूल जाना था । हाई स्कूल घर से 3 से 7 किलोमीटर की दूरी पर होते थे । कहीं कहीं इससे भी अधिक दूरी तय करनी होती थी । इन बच्चियों की सुरक्षा की चिंता ने इनके सपने मार दिये थे । सपने देखनेवाली उम्र में सपनों के मरने का दर्द कोई उन्हीं से पूछे ! उन बच्चियों ने इसका जिम्मेद्दार अपने माता-पिता या भाइयों को नहीं माना । उस समय की सरकार को माना । आज वहीं बच्चियां अपनी जैसी बेटियों की मां बन चुकी हैं ।
नीतीश कुमार ने 2006 में बालिकाओं के लिये साइकिल योजना की शुरुआत की । इसके पहले हाई स्कूल की कक्षा में एक से दो बेंच पर एक किनारे छात्रायें होतीं । शेष पर छात्र होते । इस योजना ने बालिकाओं को पंख दिये । वे अपने भाइयों की तरह साइकिल से स्कूल जा सकती थीं । सकुचाती हुई अपने भाई की साइकिल के कैरियर पर बैठकर नहीं । चहचहाती हुई चिड़िया की तरह अपनी सखियों के साथ । अपनी साइकिल पर उड़ती हुई । शुरु में लड़खड़ाईं, धक्के मारे, गिरीं , लेकिन एक बार संतुलन साध लेने के बाद सालों पुराना डर जाने लगा था ।
इसके पहले कानून का शासन स्थापित हो चुका था । अभिभावक आश्वस्त हो गये थे । विश्वास लगातार बढ़ता गया । 2005 में मैट्रिक की बोर्ड परीक्षा में लगभग 1 लाख 87 हजार छात्रायें उपस्थित हुई थीं । वहीं संख्या 2024 में बढ़कर 8 लाख 72 हजार हो गयी । इस अनुपात में बालिकाओं की संख्या तो नहीं बढ़ी थी किंतु नीतीश कुमार के प्रति विश्वास कई गुना बढ़ गया था ।
तब इंटर कॉलेज अलग होते थे । प्रायः डिग्री कॉलेजों से सम्बद्ध । प्राइवेट इंटर कॉलेज भी थे । इनकी कोशिश थी कि अधिक से अधिक नामांकन हो और सेटिंग करके अच्छा रिजल्ट हो । हर इलाके में कोई न कोई इंटर कॉलेज ऐसा था जहां की प्रसिद्धि इस बात से थी कि वहां के घोड़े भी पास होते हैं । इन इंटर कॉलेजों का अच्छा खासा क्रेज था ।
फीस भी ठीक- ठाक । सिर्फ पढाई नहीं होती थी । अपवाद तब भी थे । अपवाद अब भी हैं । नीतीश कुमार ने हर पंचायत के किसी न किसी सरकारी स्कूल में इंटर तक की पढ़ाई शुरु कराई । सारे उच्च विद्यालय इंटर तक अपग्रेड कर दिये गये । जहां हाई स्कूल नहीं था वहां जूनियर हाई स्कूल अपग्रेड हुए । बालिकाओं को इंटर तक की पढ़ाई के लिये अपने पंचायत से बाहर नहीं जाना था । चरणबद्ध तरीके से शिक्षकों की नियुक्ति हुई ।
प्रत्येक विद्यालय में स्त्री पुरुष शिक्षक लगभग आधे-आधे । जितने छात्र उतनी छात्रायें । कई तरह की छात्रवृतियों और सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिये आरक्षण ने अभिभावकों को अपनी बेटियों को आगे पढ़ाने के लिये प्रेरित किया । इस पूरे परिदृश्य में बाल विवाह की घटनायें काफी कम हो गईं ।
अब बारी माताओं की थीं । देश के सबसे गरीब राज्यों में से एक बिहार का ग्रामीण मजदूर दिन भर की मजदूरी शाम को शराब की दूकान पर दे आता था । घर का चूल्हा उदास रह जाता था । बच्चे पानी पीकर भूखे पेट सो जाते थे । घर का मालिक दारु पीकर बीमार पड़ता । मातायें विरोध करने पर घरेलू हिंसा का शिकार होतीं । निम्न आय वाले अधिकांश परिवारों में दिन रात कलह की स्थिति रहती थी । इस कलह के जड़ में शराब था । नीतीश कुमार ने 2016 में शराबबंदी लागू की ।
इन महिलाओं को नीतीश कुमार में एक ऐसा मसीहा दिखने लगा था जो उनके दर्द को कम करने आया था । ये वही तो है जिसने हमें 10 साल पहले साइकिल देकर स्कूल भेजा था । काश ! इन पुरुषों पर हमारी निर्भरता को कम कर देता । नीतीश कुमार ने जैसे उनके मन की बात सुन ली हो । स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से जीविका दीदीयों को आर्थिक रुप से स्वावलम्बी बनाने का अभियान चला । यह अभियान कामयाब हुआ । आज देश के दूसरे राज्य भी इस मॉडल का अनुसरण कर रहे हैं ।
बूथ पर महिलाओं की कतार और रिकार्ड मतदान की व्याख्या जिस समय टिप्पणीकार कर रहे थे उस समय नीतीश कुमार दाल-भात, चोखा-चटनी खाकर आराम फरमा रहे थे । दसहजारी योजना, पेंशन स्कीम और मुफ्त बिजली यूनिट जैसी योजनाएं हर घर सरकारी नौकरी के वादे पर ऐसे ही भारी नहीं पड़ी साहब ! इसके लिये एक बड़े समूह का भरोसा जीतना पड़ता है । आधी आबादी का भरोसा जीतने के लिए नीतीश कुमार बनना पड़ता है ।
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