राज्यपाल या राष्ट्रपति के लिए समय सीमा तय नहीं किया जा सकता है- सुप्रीम कोर्ट

राज्यपाल या राष्ट्रपति के लिए समय सीमा तय नहीं किया जा सकता है- सुप्रीम कोर्ट

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की संविधान पीठ ने कहा है कि विधानसभा से पारित विधेयकों को मंजूरी देने को लेकर अदालत राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए समय-सीमा निर्धारित नहीं कर सकती है। हालांकि संविधान पीठ ने यह साफ कर दिया है कि राज्यपाल को सीधेतौर पर अनिश्चित काल तक ‌किसी विधेयक को अपने पास रोककर रखने का कोई अधिकार नहीं है।

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देश के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) बीआर गवई की अगुवाई वाली 5 जजों की संविधान पीठ ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत प्राप्त शक्ति का इस्तेमाल करते हुए पूछे गए संवैधानिक सवालों का जवाब देते हुए यह फैसला दिया है।

संविधान पीठ ने कहा है कि अदालत अनुच्छेद 142 के तहत प्राप्त अपनी असाधारण शक्तियों का इस्तेमाल कर विधेयकों को डिम्ड असेंट (स्वत: मंजूर मान लेना) घोषित नहीं कर सकती है। संविधान पीठ ने कहा है कि विधयेकों को स्वत: मंजूर घोषित करने की अवधारणा न सिर्फ संविधान की भावना के खिलाफ है बल्कि शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत का भी उल्लंघन करता है।

फैसला सुनाते हुए, सीजेआई बीआर गवई ने कहा है कि ‘विधानसभा से पारित विधेयकों को स्वत: मंजूर घोषित करने की अवधारणा एक संवैधानिक प्राधिकार यानी राज्यपाल के कामकाज पर अतिक्रमण करने के समान है।’ सीजेआई गवई के अलावा, संविधान पीठ में जस्टिस सूर्यकांत, विक्रम नाथ, पीएस नरसिम्हा और एएस चंदुरकर भी शामिल हैं। संविधान पीठ ने कहा कि अनुच्छेद 200/201 के तहत विधेयकों मंजूरी देने को लेकर राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए अदालत कोई समय सीमा निर्धारित नहीं कर सकती है।

पीठ ने कहा है कि ‘हमें यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि अनुच्छेद 200/201 के तहत, अदालत द्वारा निर्धारित समय सीमा खत्म होने पर राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा विधेयक को स्वत: मंजूरी दी गई घोषित करना, वास्तव में न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका के कामों पर कब्जा करना और उन्हें बदलना है, जो हमारे संविधान के दायरे में ठीक नहीं है। हालांकि संविधान पीठ ने कहा है कि यदि राज्यपाल लंबे समय तक या बिना किसी वजह के मंजूरी देने में करता है,

जिससे विधायी प्रक्रिया में रुकावट आती है, तो अदालत न्यायिक समीक्षा की अपनी सीमित शक्ति का इस्तेमाल करके राज्यपाल को विधेयक के गुणदोष पर विचार किए गए बगैर समय सीमा में सला करने का निर्देश जारी कर सकती है। अनुच्छेद 200 (विधेयकों को मंजूरी देने की शक्ति)से संबंधित है, जबकि 201 विधेयक से जुड़ा है जो राष्ट्रपति के विचार के लिए रखा गया है। राज्यपाल अनिश्चित काल तक विधेयक को रोककर नहीं रख सकते-

संविधान पीठ संविधान पीठ ने इस ऐतिहासिक फैसले में यह व्यवस्था दी है कि ‘राज्यपाल सीधे तौर पर अनुच्छेद 200 के तहत अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करके विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोक कर नहीं रख सकते।’ सर्वसम्मति से पारित 111 पन्नों के फैसले में संविधान पीठ ने कहा है कि यदि राज्यपाल को अनुच्छेद 200 (विधेयकों को मंजूरी देने की शक्ति) के तहत विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोककर रखने की इजाजत दी जाती है तो यह संघवाद के सिद्धांत के खिलाफ होगा। संविधान पीठ ने माना है कि राज्यपाल राज्य विधानमंडल को वापस भेजे बिना किसी विधेयक पर अनिश्चित काल तक सहमति रोक नहीं सकता है।

पीठ ने कहा है कि सहमति रोकने की ऐसी सरल शक्ति अनुच्छेद 200 के तहत मौजूद नहीं है और राज्यपाल को निष्क्रियता के माध्यम से कानून को रोकने में सक्षम बनाने वाली कोई भी व्याख्या संवैधानिक सिद्धांतों के विपरीत होगी। विधेयक पर राज्यपाल के पास हैं महज 3 विकल्प, चौथा नहीं- संविधान पीठ ने कहा है कि अनुच्छेद 200 के तहत प्रावधानों की समीक्षा से यह निष्कर्ष निकाला कि ‘जब विधानसभा से पारित होने के बाद जब कोई विधेयक मंजूरी के लिए राज्यपाल के पास भेजा जाता है तो राज्यपाल को संवैधानिक रूप से केवल तीन विकल्पों की अनुमति है।

पहला विधेयक को मंजूरी देना, दूसरा, इसे राष्ट्रपति के लिए आरक्षित करना और तीसरा विधेयक को अपनी टिप्पणियों के साथ विधानसभा को वापस करना। पीठ ने स्पष्ट कर दिया कि राज्यपाल धन विधेयक को वापस नहीं कर सकता)। पीठ ने विधेयक की मंजूरी रोकने की राज्यपाल की स्वतंत्र शक्ति को पीठ ने खारिज कर दिया।

सीजेआई गवई ने कहा है कि ‘इस बात के बहुत बड़े कारण हैं कि विधेयक को टिप्पणियों के सदन को वापस करने के अधिकार के अलावा, इसे रोकने की कोई आसान पावर नहीं हो सकती। पहला प्रोवाइजो में राज्यपाल ‌को विधेयक को सदन में वापस करने से रोकता है, अगर यह धन विधेयक है। पीठ ने कहा है कि इसलिए, धन विधेयक के मामले में राज्यपाल के पास या तो विधेयक को मंजूरी देने या इसे राष्ट्रपति के पास भेजने तक ही सीमित है।

हालांकि, संविधान पीठ ने साफ किया है कि अगर विधेयक को रोकने का विकल्प अनुच्छेद 200 के मुख्य हिस्से में पढ़ा जाता है, तो धन विधेयक को भी आसानी से रोका जा सकता है, जिसे पढ़ना, हमारी राय में, संवैधानिक प्रावधानों के खिलाफ है। कोर्ट ने कहा है कि राज्यपाल के पास विधेयक को मंजूरी नहीं देने और रोककर रखने का कोई विकल्प नहीं है। राज्यपाल को विधेयक रोकने की इजाजत दी तो खत्म हो जाएगा संघवाद- संविधान पीठ संविधान पीठ ने कहा है कि राज्यपाल को विधेयक को रोकने की इजाजत देने से संघवाद का सिद्धांत खत्म हो जाएगा।

पीठ ने आगाह किया कि राज्यापाल विधेयक को विधानसभा में वापस किए बिना सिर्फ रोकने की इजाजत देने से देश में संघवाद का सिद्धांत पूरी तरह से खत्म हो जाएगा। संघवाद को संविधान का मूलभूत संरचना मानने वाले कई उदाहरणों का जिक्र करते हुए, संविधान पीठ ने ‘यह संघवाद के सिद्धांत के खिलाफ होगा और राज्य विधानसभाओं की शक्तियों का हनन होगा, यदि राज्यपाल को अनुच्छेद 200 के पहले प्रोवाइजो बातचीत के तरीके को पालन किए बगैर विधेयक को रोकने की इजाजत दी जाए।’

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि ‘हमारी राय में, राज्यपाल और हाउस (सदन) के बीच संवैधानिक बातचीत शुरू करने वाला पहला प्रोवाइजो और अनुच्छेद 200 के जरूरी हिस्से के तहत राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयक को आरक्षित करने का विकल्प, इंडियन भारतीय संघवाद की सहयोगात्मक भावना को दिखाता है, और संविधान में बताए गए चेक-एंड-बैलेंस मॉडल के अलग-अलग पहलुओं को भी सामने लाता है।

पीठ ने कहा कि हम संतुलन के पारंपरिक नजरिए के आदी हैं, जहां एक संस्था या ब्रांच के फैसले को दूसरी संस्था बेकार कर देती है। हमारी सोची-समझी राय में, इस समझ को और ज्यादा बारीक नजरिए से देखना चाहिए।

एक बातचीत की प्रक्रिया, जिसमें अलग-अलग या विरोधी नजरियों को समझने और उन पर सोचने, उनमें तालमेल बिठाने और सार्थक तरीके से आगे बढ़ने की क्षमता हो, उतना ही असरदार चेक-एंड-बैलेंस सिस्टम है जिसे संविधान ने तय किया है।’ राष्ट्रपति द्वारा पूछे गए 14 में से 13 संवैधानिक सवालों का संविधान पीठ ने दिया जवाब 1. जब संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के समक्ष कोई विधेयक अता है तो उनके पास क्या संवैधानिक विकल्प होते हैं?

संविधान पीठ ने इसका जवाब देते हुए कहा है कि विधानसभा से पारित विधेयक आने पर, राज्यपाल उसे पर मंजूरी दे सकते हैं, मंज़ूरी रोक सकते हैं या राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए आरक्षित रक सकते हैं। मंजूरी रोकने के साथ ही अनुच्छेद 200 के पहले प्रोवाइजो के मुताबिक विधेयक को विधानसभा में वापस भेजना भी जरूरी है।

पहला प्रोवाइजो, जो कहता है कि विधेयक को सदन में वापस भेजा जाए। कोई चौथा विकल्प नहीं है, लेकिन मंज़ूरी रोकने के विकल्प को क्वालिफाई करता है।राज्यपाल के पास विधेयक को सदन में वापस भेजे बिना रोकने का अधिकार नहीं है।

2. क्या संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के समक्ष कोई विधेयक पेश किए जाने पर उनके पास उपलब्ध सभी विकल्पों का प्रयोग करते समय मंत्रिपरिषद द्वारा दी गई सहायता और सलाह मानने के लिए राज्यपाल बाध्य हैं? इसका जवाब देते हुए, संविधान पीठ ने कहा है कि ‘आमतौर पर, राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह के तहत कार्य करता है।

लेकिन अनुच्छेद 200 में राज्यपाल विवेक का प्रयोग करता है। राज्यपाल को अनुच्छेद 200 के तहत विवेक इस्तेमाल करता है जैसा कि अनुच्छेद 200 के दूसरे प्रावधान में उनकी राय में शब्दों के उपयोग से संकेत मिलता है। राज्यपाल के पास विधेयक को वापस करने या राष्ट्रपति के लिए विधेयक को आरक्षित करने का विवेक है।

3. क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा संवैधानिक विवेक का प्रयोग की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है? संविधान पीठ ने कहा है कि अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा किए गए कार्यों के लिए विवेक के इस्तेमाल की न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती है। अदालत इस प्रकार लिए गए निर्णय की योग्यता-समीक्षा में प्रवेश नहीं कर सकता।

हालांकि, राज्यपाल की निष्क्रियता की एक स्पष्ट परिस्थिति में, जो लंबी, अस्पष्ट और अनिश्चित है, अदालत ‌राज्यपाल को विवेक के प्रयोग की योग्यता पर कोई टिप्पणी किए बिना एक उचित समय अवधि के भीतर अनुच्छेद 200 के तहत अपने कार्यों का निर्वहन करने के लिए एक सीमित परमादेश जारी कर सकता है।

4. क्या भारतीय संविधान का अनुच्छेद 361 भारतीय संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की कार्रवाई के संबंध में न्यायिक समीक्षा पर पूर्ण प्रतिबंध है? संविधान पीठ ने इसका उत्तर देते हुए कहा है कि अनुच्छेद 361 न्यायिक समीक्षा पर एक पूर्ण प्रतिबंध लगाता है। हालांकि, इसका उपयोग न्यायिक समीक्षा के सीमित दायरे को नकारने के लिए नहीं किया जा सकता है कि यह न्यायालय अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा लंबे समय तक निष्क्रियता के मामलों में प्रयोग करने के लिए सशक्त है।जबकि राज्यपाल को व्यक्तिगत प्रतिरक्षा प्राप्त है, राज्यपाल का पद इस न्यायालय के अधिकार क्षेत्र के अधीन है।

5. संवैधानिक रूप से निर्धारित समय सीमा और राज्यपाल द्वारा शक्तियों के प्रयोग के तरीके के अभाव में, क्या राज्यपाल द्वारा भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत सभी शक्तियों के प्रयोग के लिए समयसीमा लागू की जा सकती है और न्यायिक आदेशों के माध्यम से प्रयोग का तरीका निर्धारित किया जा सकता है?

6. क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा संवैधानिक विवेक का प्रयोग न्यायोचित है?

7. संवैधानिक रूप से निर्धारित समयसीमा और राष्ट्रपति द्वारा शक्तियों के प्रयोग के तरीके के अभाव में, क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा विवेक के प्रयोग के लिए समयसीमा लागू की जा सकती है और न्यायिक आदेशों के माध्यम से प्रयोग का तरीका निर्धारित किया जा सकता है? संविधान पीठ ने इन तीनों सवालों (सवाल 5, 6 और 7 ) का एक साथ उत्तर दिए हैं।

संविधान पीठ ने कहा है कि अनुच्छेद 200 और 201 का पाठ इस तरह से तैयार किया गया है, ताकि संवैधानिक प्राधिकारियों को अपने कार्य करने के लिए लचीलापन प्रदान किया जा सके। विभिन्न संदर्भों और स्थितियों को ध्यान में रखते हुए, समय सीमा तय करना, इस छूट के बिल्कुल खिलाफ होगा, जिसे संविधान ने इतनी सावधानी से बनाए रखा है। संविधान में तय समय सीमा के बिना, इस अदालत के लिए अनुच्छेद 200 के तहत शक्तियों के इस्तेमाल के लिए कानूनी तौर पर समय सीमा तय करना सही नहीं होगा।

राज्यपाल के लिए दिए गए तर्क के हिसाब से, अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति की मंजूरी न्यायिक समीक्षा के दायरे में नहीं है। इसी वजह से, राष्ट्रपति भी अनुच्छेद 201 के तहत शक्तियों के इस्तेमाल के लिए कानूनी तौर पर समय सीमा से बंधे नहीं हो सकते।

8. राष्ट्रपति की शक्तियों को नियंत्रित करने वाली संवैधानिक योजना के आलोक में, क्या राष्ट्रपति को संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत एक संदर्भ के रूप में सर्वोच्च न्यायालय से सलाह लेने और सर्वोच्च न्यायालय की राय लेने की आवश्यकता होती है,

जब राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति की सहमति के लिए या अन्यथा आरक्षित रखता है? संविधान पीठ ने इसका जवाब देते हुए कहा है कि ‘राष्ट्रपति को हर बार जब कोई विधेयक राज्यपाल द्वारा आरक्षित किया जाता है, तो न्यायालय की सलाह लेने की आवश्यकता नहीं होती है। राष्ट्रपति की व्यक्तिपरक संतुष्टि पर्याप्त है। यदि स्पष्टता की कमी है या सलाह की आवश्यकता है, तो राष्ट्रपति संदर्भित कर सकते हैं।

9. क्या अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति के निर्णय, कानून के लागू होने से पहले के चरण में न्यायिक समीक्षा के अधीन है? क्या अदालतों को किसी भी तरीके से किसी विधेयक की सामग्री पर न्यायिक निर्णय लेने की अनुमति है, इससे पहले कि वह कानून बन जाए? संविधान पीठ ने इसका जवाब नहीं में दिया है। पीठ ने कहा है कि संविधान के अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति के निर्णय, कानून के लागू होने से पहले के चरण में न्यायिक समीक्षा के अधीन नहीं है। विधेयकों को तभी चुनौती दी जा सकती है जब वे कानून बन जाएं।

10. क्या संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग और राष्ट्रपति/राज्यपाल के/द्वारा आदेश संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत किसी भी तरह से प्रतिस्थापित किए जा सकते हैं? संविधान पीठ ने इसका उत्तर नहीं में दिया है। पीठ ने कहा है कि संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग और राष्ट्रपति/राज्यपाल के/द्वारा आदेश इस न्यायालय द्वारा संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत किसी भी तरह से प्रतिस्थापित नहीं किए जा सकते हैं। हम स्पष्ट करते हैं कि संविधान, विशेष रूप से अनुच्छेद 142, विधेयकों की ‘मंजूर मानी गई सहमति’ की अवधारणा की अनुमति नहीं देता है।

11. क्या राज्य विधानमंडल द्वारा बनाया गया कानून राज्यपाल की सहमति के बगैर लागू कानून है? पीठ ने इसका जवाब भी नहीं में दिया है । पीठ ने कहा है कि अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की मंजूरी के बगैर राज्य विधानसभा द्वारा बनाए गए कानून के लागू होने का कोई सवाल ही नहीं उठता। अनुच्छेद 200 के तहत गवर्नर की कार्यपालिका की भूमिका को कोई दूसरी संवैधानिक अथॉरिटी नहीं बदल सकती।

12. आर्टिकल 145(3) के प्रोवाइजो को देखते हुए, क्या इस शीर्ष कोर्ट की किसी भी पीठ के लिए यह जरूरी नहीं है कि वह पहले यह तय करे कि उसके सामने चल रही कार्यवाही में शामिल सवाल ऐसा है जिसमें संविधान की व्याख्या के बारे में कानून के जरूरी सवाल शामिल हैं और इसे कम से कम पांच जजों की पीठ के समक्ष भेजा जाए? संविधान पीठ ने इस सवाल का जवाब दिए बगैर वापस कर दिया क्योंकि यह सवाल इस संदर्भ में क्शनल नेचर से जुड़ा नहीं है।

13. क्या अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट की शक्तियां प्रक्रियात्मक कानून के मामलों तक सीमित हैं या इसके तहत ऐसे निर्देश जारी करने/आदेश पास करने तक फैला हुआ है जो संविधान या लागू कानून के मौजूदा जरूरी या प्रोसिजरल प्रावधानों के खिलाफ या उनसे मेल नहीं खाते हैं? संविधान पीठ ने कहा कि इसका जवाब सवाल संख्या 10 में दे दिया गया है।

14. क्या संविधान, अनुच्छेद 131 के तहत मुकदमे के अलावा केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच विवादों को सुलझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के किसी और अधिकार क्षेत्र पर रोक लगाता है? संविधान पीठ ने इस सवाल को निरर्थक बताया है।

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