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एक राजा जिसने 'मिस्टर क्लीन' की इमेज में पलीता लगा दिया,कैसे? - श्रीनारद मीडिया

एक राजा जिसने ‘मिस्टर क्लीन’ की इमेज में पलीता लगा दिया,कैसे?

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श्रीनारद मडिया सेंट्रल डेस्क

चुनाव के नतीजों में उलटफेर कर देने वाली लहरे जिन्हें देश ने देखा, वोटर के मन को बदल देने वाली लहरे जिसे साल 2014 में पूरी जनता ने देखा। विपक्ष को सत्ता में लाकर बिठा देने वाली लहरे और सत्ता को विपक्ष में बिठाने वाली लहरे से भी मुखातिब हुआ देश। देश की सबसे पुरानी पार्टी को इतिहास की राजनीति का डब्बा बना देने वाली लहरों की तपिश को जनतंत्र ने महसूस किया। लेकिन आज हम हिन्दुस्तान की सियासत को बदलकर रख देने वाली राजनीति के एक किरदार से रूबरू करवाएंगे।

जिन्होंने मौसम बदला, माहौल बदला, चुनाव बदला और चुनाव के नतीजे भी बदले। लेकिन फिर भी उसे भारतीय राजनीतिक इतिहास का ट्रेजेडी किंग कहा जाता है। बोफोर्स तोप दलाली के मुद्दे पर मंत्री पद को छोड़ वीपी सिंह भारतीय राजनीति के पटल पर नए मसीहा और क्लीन मैन की इमेज के साथ अवतरित हुए थे। लेकिन, मंडल कमीशन की सिफारिशों को देश में लागू करते ही वीपी सिंह सवर्ण समुदाय की नजर ‘राजा नहीं, ‘रंक’ और ‘देश का कलंक’ में तब्दील हो गए।

साल 1984 जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश की राजनीति की तस्वीर बदली। कांग्रेस ने सहानुभूति को बटोरने के लिए पूरे जोर-शोर से नारा लगाया “जब तक सूरज चांद रहेगा, इंदिरा तेरा नाम रहेगा।” इस नारे ने कांग्रेस को भारी जीत दिलाई। 1984-85 के दौर में हुए आठवें लोकसभा चुनाव में इस नारे के साथ ही राजीव गांधी के समर्थन में गढ़े गए नारे “उठे करोड़ों हाथ हैं, राजीव जी के साथ हैं” ने कांग्रेस को पूरी ताकत दी और 409 सीटों पर उसे कामयाबी मिली। लाल कृष्ण आडवाणी की शब्दों में कहे तो ये लोकसभा का नहीं अपेतु शोकसभा का चुनाव था।

राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने 1980 से 1982 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे विश्वनाथ प्रातप सिंह को 31 दिसंबर 1984 को बतौर वित्त मंत्री शामिल किया। लेकिन वीपी सिंह का टकराव प्रधानमंत्री से ही हुआ। जिसकी वजह बना एक रक्षा सौदा। दरअसल, विश्वनाथ प्रताप सिंह को यह खबर मिली थी कि कई भारतीयों ने विदेशी बैंकों में अकूत धन जमा करवाया है। इस पर वीपी सिंह ने ऐसे भारतीयों का पता लगाने के लिए अमेरिका की एक जासूस संस्था फ़ेयरफ़ैक्स की नियुक्ति कर दी।

इसी बीच स्वीडन ने 16 अप्रैल 1987 को यह समाचार प्रसारित किया कि भारत के बोफोर्स कंपनी की 410 तोपों का सौदा हुआ था, उसमें 60 करोड़ की राशि कमीशन के तौर पर दी गई थी। जब यह समाचार भारतीय मीडिया तक पहुँचा तो वह प्रतिदिन इसे सिरमौर बनाकर पेश करने लगा। इस ‘ब्रेकिंग न्यूज’ का उपयोग विपक्ष ने भी ख़ूब किया। उसने जनता तक यह संदेश पहुँचाया कि 60 करोड़ की दलाली में राजीव गांधी की सरकार जांच से भाग रही थी। इसे बोफोर्स घोटाला कहा गया, जिसमें राजीव गांधी,

अमिताभ बच्चन समेत कांग्रेस के कई नेताओं का नाम आया। इसे क्लीन इमेज वाली राजीव सरकार के लिए एक बड़ा झटका माना गया। खुद को प्रधानमंत्री पद के काबिल समझते और भीतर ही भीतर सपना संजोने वाले वीपी सिंह को इसमें मौका दिखा और उन्होंने खुद को राजीव गांधी से अलग दिखाना शुरू करते हुए अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। जनता में बातें फैलने लगी की बोफोर्स तोपें अच्छी नहीं हैं, दलाली में खरीदी गई हैं।

1987 में वीपी सिंह कांग्रेस से किनारे कर दिए गए और अब उन्होंने पूरे मामले को जनता की अदालत के सामने पूरे जोर-शोर से उठाने का फैसला किया। कांग्रेस से इस्तीफा देते वक्त वीपी सिंह ने कहा- तुम मुझे क्या खरीदोगे, मैं बिल्कुल मुफ्त हूं। इतना कहते ही सिंह निकल पड़े गांव-गांव, कस्बे-कस्बे पर कभी मोटरसाइकिल तो कभी सायकिल पर ही लोगों को इस सौदे के संदेहास्पद होने की बात बताने के लिए। एक जटिल रक्षा सौदे को जादुई भाषा में लोगों को बताया जिसे वे समझ सकते थे।

वीपी सिंह लोगों से कहते थे कि सेना के जवानों ने पहली बार बोफोर्स दागा तो इसने बैक फायर किया और अपने ही कई जवानों की जान ले ली। सिंह ने अपने अंदाज में भरी गर्मी में मोटरसाइकिल पर, गले में गमछा लपेट कर, एक राजनीतिक कार्यकर्ता की तरह प्रचार किया। वे गांव के लोगों से सरल सा सवाल पूछते थे, क्या आपको अंदाजा है कि राजीव गांधी ने आपके घर में सेंध लगा दी है? फिर वे अपने कुर्ते की जेब से एक माचिस निकालते थे और लोगों को दिखाते थे। इस माचिस को देखो। जब आप अपनी बीड़ी, हुक्का या चूल्हा जलाने के लिए चार आने (25 पैसे) की माचिस खरीदते हैं तो एक चौथाई टैक्स के रूप में सरकार को जाता है। सरकार इस पैसे से स्कूल।

अस्पताल, सड़क और नहर बनती है और सेना के लिए हथियार खरीदती है। यह आपका पैसा है। अगर कोई सेना के लिए हथियार खरीदने के नाम पर इसका कुछ हिस्सा चुरा ले तो क्या यह आपके घर में सेंध लगाना नहीं है? यह बताने के लिए कि केवल राजीव गांधी ने ही यह घूस लिया है, वीपी सिंह एक कहानी सुनाते थे। एक सर्कस में एक शेर था, एक घोड़ा था, एक बैल और एक बिल्ली थी। वे आसपास रहते थे, एक रात किसी ने पिंजड़े खोल दिए और अगली सुबह सर्कस के मालिक को घोड़े और बैल का कंकाल मिला। क्या किसी को शक है कि उन्हें किसने खाया होगा? शेर ने या बिल्ली ने?

अगर इतनी बड़ी रकम खाई गई है तो क्या किसी बेचारी बिल्ली ने खाया है? सिर्फ शेर के जैसे राजीव ही खा सकते हैं। वीपी ने 1988 में नई पार्टी बना ली – राष्ट्रीय मोर्चा। 1989 में लोकसभा चुनाव हुए। बोफोर्स तोप सौदे में ली गई दलाली को निशाना बनाकर विपक्षी दलों ने 1989 के चुनाव में अपनी तोपों से कई नायाब नारों के गोले कांग्रेस, विशेषकर राजीव गांधी पर छोड़े। राजीव भाई, राजीब भाई तोप दलाली किसने खाई। इसके अलावा राजीव सरकार से त्यागपत्र देने और बोफोर्स की दलाली के मुद्दे को उछालने वाले राजा मांडा के नाम से प्रसिद्ध विश्वनाथ प्रसाद सिंह से संबंधित थे।

‘राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है’  इस नारे ने गंगा-यमुना के दोआब में बसे जिले में ऐसा जादू किया था कि फतेहपुर से ही सांसद बने वीपी सिंह बीजेपी से सशर्त और लेफ्ट से बिना किसी शर्त के समर्थन से देश के प्रधानमंत्री बन गए। लेकिन राष्ट्रीय मोर्चा की यह सरकार 11 महीनों से ज़्यादा नहीं चल सकी. 1991 में रथयात्रा के समय बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ़्तारी के बाद पार्टी ने वीपी सिंह सरकार के समर्थन वापस ले लिया था।

बोफोर्स मामले में कब क्या-क्या हुआ?

24 मार्च, 1986: भारत सरकार और स्वीडन की हथियार निर्माता कंपनी एबी बोफोर्स के बीच 1,437 करोड़ रुपये का सौदा हुआ। यह सौदा भारतीय थल सेना को 155 एमएम की 400 होवित्जर तोप की सप्लाई के लिए हुआ था।

16 अप्रैल, 1987: स्वीडिश रेडियो ने दावा किया कि कंपनी ने सौदे के लिए भारत के वरिष्ठ राजनीतिज्ञों और रक्षा विभाग के अधिकारी को घूस दिए हैं। 60 करोड़ रुपये घूस देने का दावा किया गया।

20 अप्रैल, 1987: लोकसभा में राजीव गांधी ने बताया था कि न ही कोई रिश्वत दी गई और न ही बीच में किसी बिचौलिये की भूमिका थी।

6 अगस्त, 1987: रिश्वतखोरी के आरोपों की जांच के लिए एक संयुक्त संसदीय कमिटी (जेपीसी) का गठन हुआ। इसका नेतृत्व पूर्व केंद्रीय मंत्री बी.शंकरानंद ने किया।

फरवरी 1988: मामले की जांच के लिए भारत का एक जांच दल स्वीडन पहुंचा।

18 जुलाई, 1989: जेपीसी ने संसद को रिपोर्ट सौंपी।

26 दिसंबर, 1989: तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने बोफोर्स पर पाबंदी लगा दी।

22 जनवरी, 1990: सीबीआई ने आपराधिक षडयंत्र, धोखाधड़ी और जालसाजी का मामला दर्ज किया। मामला एबी बोफोर्स के तत्कालीन अध्यक्ष मार्टिन आर्डबो, कथित बिचौलिये विन चड्ढा और हिंदुजा बंधुओं के खिलाफ दर्ज हुआ।

दिसंबर 1992: मामले में शिकायत को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया और दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को पलट दिया।

फरवरी 1997: क्वात्रोकी के खिलाफ गैर जमानती वॉरंट (एनबीडब्ल्यू) और रेड कॉर्नर नोटिस जारी की गई।

दिसंबर 2000: क्वात्रोकी को मलयेशिया में गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन बाद में जमानत दे दी गई। जमानत इस शर्त पर दी गई थी कि वह शहर नहीं छोड़ेगा।

फरवरी-मार्च 2004: कोर्ट ने स्वर्गीय राजीव गांधी और भटनागर को मामले से बरी कर दिया। मलयेशिया के सुप्रीम कोर्ट ने भी क्वात्रोकी के प्रत्यर्पण की भारत की मांग को खारिज कर दिया।

अप्रैल 2012: स्वीडन पुलिस ने कहा कि राजीव गांधी और अमिताभ बच्चन द्वारा रिश्वतखोरी का कोई साक्ष्य नहीं है।

13, जुलाई 2013: भारत से फरार हुए क्वात्रोकी की मौत हो गई। तब तक अन्य आरोपी जैसे भटनागर, चड्ढा और आर्डबो की भी मौत हो गई थी।

1 नवंबर, 2018: सीबीआई द्वारा सुप्रीम कोर्ट में बोफोर्स घोटाले की जांच फिर से शुरू किए जाने की मांग को शीर्ष अदालत ने खारिज कर दिया है।

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