पिकनिक एक आयोजन नहीं,बल्कि साथ होने कका एहसास है
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

पिकनिक से जुड़ी जो पहली स्मृति मेरे जेहन में उभरती है, वह किसी प्रसिद्ध पर्यटन स्थल या कैमरे में कैद सुंदर दृश्य की नहीं, बल्कि बालमन के उस सादे लेकिन गहरे उत्सव की है जो नए साल के आगमन पर दोस्तों के झुंड के साथ घर से बाहर निकल जाने में बसता था।
जेब में सीमित पैसे, थैले में घर से लाया गया थोड़ा-सा सामान और मन में बेहिसाब आज़ादी क्या ही कहना उन यादों के बारे में! कहीं खुली जगह देखकर रुक जाना, ईंट-पत्थर से अस्थायी चूल्हा बनाना, बाद के दिनों में छोटी वाली गैस आ गयी थी। खाना बनने से पहले ही ठहाकों से वह पक जाता था। उस आनंद को शब्द देना सचमुच कठिन है, क्योंकि वह आनंद किसी स्वाद या दृश्य में नहीं, बल्कि साथ होने के एहसास में बसता था।
जिसने भी बैचलर जीवन जिया है, वह जानता है कि कॉलेज के दिन खुद में एक लंबी चलने वाली पिकनिक होते हैं। सहभोज कोई विशेष आयोजन नहीं होता था, बल्कि यह रोजमर्रा की आदत थी। कभी किसी के कमरे में, कभी हॉस्टल के बरामदे में, तो कभी खुले मैदान में हर जगह दोस्त थे और दोस्ती थी। +2 की पढ़ाई के लिए जब मैं चम्पारण से राँची गया,
तो लगा जैसे जीवन ने पहली बार अपनी पूरी बाँहें खोल दी हों। राँची के आसपास फैले जलप्रपात, बाँध और जंगल सिर्फ़ पिकनिक स्पॉट नहीं थे, वे हमारे युवामन की स्वच्छंदता के साक्ष्य थे। वहाँ किताबें कम और जिंदगी ज्यादा खुलती थी।
आज जब मन उन दिनों की ओर लौटता है, तो दो बातें एक साथ सामने आती हैं। पहली बिना तनाव का जीवन अक्सर पिता की कमाई की छाया में ही संभव होता है। उस समय जिम्मेदारियाँ दरवाज़े के बाहर खड़ी रहती थीं और भविष्य अभी दस्तक देने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था। दूसरी बात और भी कड़वी है कि जब जिंदगी ने क्या दिया, इसका हिसाब लगाने बैठता हूँ, तो समझ में आता है कि जो कुछ भी पाया है, उसकी कीमत मासूमियत खोकर चुकाई गई लगती है। समझदारी के नाम पर हमने न जाने कितनी बेफिक्र हँसी, कितनी निश्चिंत दोपहरें और कितनी बेनाम खुशियाँ पीछे छोड़ दीं।
मैं इस बात का पक्षधर हूँ कि आदमी को ज़बरदस्ती मैच्योर नहीं होना चाहिए। उससे भी अधिक खतरनाक है मैच्योर होने का नाटक करना। जीवन में मस्ती कोई फालतू चीज़ नहीं, वह तो आत्मा का ऑक्सीजन है। मस्ती चली गई, तो समझिए जीवन भले चल रहा हो, इंसान भीतर से ठहर गया है। असली परिपक्वता शायद यही है कि जिम्मेदारियों के बीच भी आदमी अपने भीतर के बच्चे को जिंदा रख सके।
आज का सबसे बड़ा दुख यह है कि किशोरावस्था के लगभग सारे दोस्त छूट चुके हैं। किसी से दूरी शहर ने पैदा की, किसी से समय ने, और किसी से हालात ने अलग कर दिया। दोस्तों का यूँ धीरे-धीरे छूट जाना भीतर कहीं चुपचाप खलता है, क्योंकि दोस्त सिर्फ लोग नहीं होते, वे हमारे अतीत के गवाह होते हैं। कॉलेज को गुज़रे अब एक दशक से भी ज़्यादा हो गया, लेकिन यह एहसास आज भी जस का तस है कि दोस्तों के साथ बिताया हर दिन पिकनिक जैसा था। साधारण सी चाय भी दावत बन जाती थी, और खाली जेब भी कभी खाली नहीं लगती थी।
आज ज़िंदगी में सुविधाएँ ज़्यादा हैं, लेकिन साथ बैठकर हँसने का वक्त कम है। मोबाइल में सैकड़ों कॉन्टैक्ट हैं, लेकिन मन की बात सुनने वाला कोई एक नाम ढूँढना मुश्किल हो गया है। अनावश्यक एक लेयर आ गया है।शायद यही समय का सच है जैसे-जैसे जिंदगी आगे बढ़ती है, कैलेंडर में छुट्टियाँ बढ़ती नहीं, दोस्त घटते जाते हैं। और तब पिकनिक एक आयोजन नहीं, बल्कि स्मृतियों में टँगा हुआ वह सपना बन जाती है, जिसे याद करके मन मुस्कुराता भी है और थोड़ी देर के लिए उदास भी हो जाता है।


