कोरोना के बाद बच्चों से जुड़े बड़े खतरे आते दिख रहे हैं-कैलाश सत्यार्थी.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

कोविड-19 महामारी से उपजे संकट के बीच आज अंतरराष्ट्रीय बाल श्रम विरोधी दिवस मनाया जा रहा है। दो दिन पहले अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन यानी आईएलओ और यूनिसेफ ने बाल मजदूरी की स्थिति से संबंधित रिपोर्ट जारी की है, जो चिंताजनक है। पिछले 20 सालों में पहली बार बाल मज़दूरों की संख्या में बढोत्तरी हुई है। चार साल पहले करीब 15 करोड़ बच्चे बाल मजदूरी करते थे।

अब बढ़कर 16 करोड़ हो गए हैं। अफसोस तो यह है कि यह आंकड़े महामारी शुरू होने से पहले के हैं। जबकि महामारी से उपजे आर्थिक संकट, बेरोजगारी, पलायन, स्कूल बंदी आदि से बाल श्रम, वेश्यावृत्ति, बाल विवाह और बच्चों की ट्रैफिकिंग में भारी इजाफा होगा।

कोविड-19 का सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव उन गरीब व वंचित बच्चों पर ही पड़ने वाला है, जिनके माता-पिता बेरोजगारी, गरीबी या मृत्यु के शिकार हुए हैं। करोड़ों बच्चे कक्षाओं में वापिस न लौटकर बाल मजदूरों की जमात में शामिल होने के लिए अभिशप्त होंगे। मैंने अपने चार-पांच दशकों के संघर्ष में बच्चों के भविष्य पर इतनी गंभीर आपदा कभी नहीं देखी। यदि पूरा विश्व समुदाय बच्चों का बचपन बचाने के लिए एकजुट होकर गहरी संवेदनशीलता के साथ कठोर क़दम नहीं उठाता, तो हम एक पूरी पीढ़ी के भविष्य की बर्बादी के गुनहगार होंगे।

इस साल को संयुक्त राष्ट्र संघ ने बाल श्रम उन्मूलन वर्ष घोषित किया है। सतत विकास लक्ष्यों में बाल मजदूरी, गुलामी व ट्रैफिकिंग जैसे लक्ष्य 2025 तक हासिल करना है। यदि सरकारें व समाज मुस्तैद होकर नए संकल्प और उर्जा के साथ इस बुराई को खत्म करने के उपाय नहीं करते तो सतत विकास का यह लक्ष्य मजाक बन कर रह जाएगा।

दुर्भाग्य से बच्चों को शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा देने व गरीबी खत्म करने की कोशिशों में समग्रता के साथ हल करने के पर्याप्त प्रयास नहीं हुए। याद रखें कि जो बच्चे गरीबी में पैदा होते और जीते हैं, उन्हीं में ज्यादातर बाल मजदूर हैं तथा शिक्षा व स्वास्थ्य से वंचित हैं। यह पूरा दुष्चक्र है।

बाल मजदूर हमेशा के लिए इस स्थिति में बने रहते हैं क्योंकि खेत-खलिहानों, कारखानों, खदानों, ईंट-भट्ठों आदि में मजदूरी करने के लिए मजबूर बच्चे अस्वस्थ, निर्धन और अनपढ़ बने रह जाते हैं। जरूरत है कि स्थानीय इकाइयों से लेकर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऐसे कार्यक्रम चलें, जिनमें इन आयामों का समन्वय हो।

असलियत यह है कि बच्चों की गरीबी, मजदूरी, अशिक्षा और बीमारियां हमारी राजनैतिक व आर्थिक प्राथमिकताओं में नहीं हैं। भारत को ही लीजिए। देश की करीब 40% आबादी 18 साल से कम उम्र के बच्चों और किशोरों की है। लेकिन उनकी पढ़ाई-लिखाई, सुरक्षा व स्वास्थ्य पर कुल बजट का करीब 3-4% पैसा ही खर्च होता है।

यही हाल तकरीबन सभी विकासशील देशों का है। जरूरी है कि आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए बच्चों के मद में बजट बढ़ाया जाए। विदेशी अनुदान में भी बच्चों के विकास व कल्याण के लिए उचित धनराशि सुनिश्चित की जाए। कानूनों का मुस्तैदी से पालन कराने के साथ-साथ सामाजिक और निजी क्षेत्रों की भागीदारी को भी बढ़ावा मिलना चाहिए।

आईएलओ व यूनिसेफ की बाल श्रम पर संयुक्त रिपोर्ट जारी होने के अवसर पर मैं भी आमंत्रित था। जहां मैंने अमीर देशों से अपील की कि वे एक वैश्विक सामाजिक सुरक्षा कोष गठित करें। इसी तर्ज पर विकासशील देश सामाजिक सुरक्षा के कार्यक्रम मजबूत करें। यूरोपियन यूनियन और आईएलओ के उच्च स्तरीय सम्मेलन में भी मैंने इसका आह्वान किया है। आज बच्चों के शोषण को एक वैश्विक चुनौती के रूप में लेने की सबसे बड़ी ज़रूरत है।

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