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क्या मुस्लिमों के मुख्यधारा में वापसी के संकेत है? - श्रीनारद मीडिया

क्या मुस्लिमों के मुख्यधारा में वापसी के संकेत है?

क्या मुस्लिमों के मुख्यधारा में वापसी के संकेत है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

शाहरुख खान की फिल्म ‘पठान’ की चमत्कारी कामयाबी और उसे लेकर मनाए जा रहे जश्न से प्रेरित नहीं है। जैसे हम एंटरटेनमेंट से लबरेज फिल्में देखना पसंद करते हैं, उसी तरह सबसे पहले हमारी नजर राजनीति पर ही जाती है। इसलिए, आइए हम वहां से उभर रहे कुछ संकेतों को देखें।

पहले संकेत में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीजेपी कार्यकारिणी की राष्ट्रीय बैठक में फिल्मों जैसी मामूली चीजों पर बेवजह विवाद पैदा करने के लिए कार्यकर्ताओं की क्लास लगा दी। दूसरे संकेत में, प्रधानमंत्री ने कहा कि पार्टी नेताओं को मुसलमानों में बोहरा समुदाय (जिसकी जड़ें गुजरात में गहरी हैं) जैसी जमातों, खासतौर से पसमांदाओं की ओर हाथ बढ़ाना चाहिए।

माना जाता है कि मुस्लिम आबादी में उनका अनुपात करीब 85 फीसदी है। एक अरसे से, बीजेपी और संघ यह मानते आ रहे हैं कि मुसलमानों में उनके खिलाफ जो विरोध है, उसकी अगुआई तथाकथित अशरफ करते रहे हैं, जिन्हें कुलीन तबके का माना जाता है। इस तरह, मुस्लिम आबादी को सामाजिक तथा आर्थिक आधारों पर बांटने की गुंजाइश दिखाई पड़ती है। यह उनके साथ जातिवादी राजनीति करने जैसा है, जो ‘सेकुलर’ पार्टियां हिंदुओं के साथ करती रही हैं।

प्रधानमंत्री ने अब इसे अपनी पार्टी के साथ सीधे संवाद में दाखिल कर दिया है और यह एक महत्वपूर्ण घटना है। उनकी पार्टी आज उनके बोलों, गतिविधियों, मुद्राओं, खीझों और मुस्कानों को इशारा मानकर जिस तरह काम कर रही है उससे हम मान सकते हैं कि खेल का खुलासा कर दिया गया है।

खासकर इसलिए उन्होंने अपनी पार्टी के नेताओं को सलाह दी है कि वे आगे बढ़कर ईसाइयों से मेलजोल बढ़ाएं, उनके इवेंट्स में शामिल हों, सूफियों आदि के आयोजनों में भी शरीक हों। हम जानते हैं कि प्रधानमंत्री हर साल इस तरह के अनुष्ठान करते हैं, लेकिन इस घटना के अगले सप्ताह ही सरकार ने वह तस्वीर जारी की, जिसमें वे अल्पसंख्यकों के मामलों की मंत्री स्मृति ईरानी के साथ अजमेर शरीफ के एक मौलवी को वहां चढ़ाए जाने के लिए चादर सौंपते दिखाई दे रहे थे।

यह वह हुकूमत है, जिसे भारत के 20 करोड़ मुसलमानों की ओर हाथ बढ़ाने की खास जरूरत नहीं है। उसने हिंदू वोटों का जबरदस्त ध्रुवीकरण करके मुस्लिम वोटों को बेमानी कर दिया है। मुस्लिम समुदाय सत्ता के पदों से पहले कभी इस तरह अदृश्य नहीं हुआ था। आज का शासक दल उनके बिना भी लोकसभा या उत्तर प्रदेश विधानसभा में बहुमत हासिल कर सकता है।

भारतीय मुसलमानों के मामले में एक और अहम बदलाव आया है, और इस बार यह राहुल गांधी की वजह से आया है। अपने एक कॉलम में योगेंद्र यादव ने लिखा है कि राहुल की भारत जोड़ो यात्रा जहां-जहां से गुजरी है, वहां-वहां उसने सामाजिक और साम्प्रदायिक तनावों को शांत करने का काम किया है।

सीएए के विरोध में हुए आंदोलन के बाद पहली बार मुसलमानों को ऐसा मंच मिला, जिसके सहारे वे गिरफ्तारी या यूएपीए जैसे कानूनों के तहत लंबी हिरासत में डाले जाने के खौफ से मुक्त होकर राजनीतिक गतिविधि के लिए सड़क पर उतर सकते हैं। राहुल जिस भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, वह व्यापक बहस को प्रभावित कर रही है।

यह मुसलमानों में भले ही वो जोश नहीं पैदा करती हो, जो ओवैसी का भाषण करता है, लेकिन वर्षों बाद यह सुनना भरोसा पैदा करता है कि भारत की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी मानती है कि मुख्यधारा की राजनीति में मुसलमानों के लिए भी जगह है।

यह इसलिए भी भरोसा जगाता है कि अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) से मुसलमानों ने अब तक ऐसी बात नहीं सुनी है। मुसलमानों के साथ खुलकर राजनीतिक संपर्क बनाने की झिझक तोड़ना कांग्रेस में आए बड़े बदलाव को दिखाता है, वरना एक समय वो भी था, जब वह हिंदुओं की नाराजगी के डर से मुसलमानों से प्रायः गुपचुप ही सम्पर्क रखती थी।

तीसरा संकेत, शाहरुख खान की ‘पठान’ की कामयाबी से है। भावनात्मक रूप से भले ही इसे ज्यादा बड़ा बताया जा रहा हो। इस कामयाबी से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है इसका इतने बड़े पैमाने पर जश्न मनाया जाना। चाहे वे बड़े शहरों के सिनेमाघरों के कुलीन दर्शक हों या छोटे शहरों के निम्न-मध्यमवर्गीय दर्शक, सभी फिल्म से खुश हैं।

सबसे अहम बात यह है कि वे उस नायक के कारनामों पर तालियां बजा रहे हैं, जो खुद को बेझिझक मुस्लिम बताता है। इसलिए, यहां एक सवाल! शाहरुख ने अगर भारतीय मुसलमान की जगह किसी राहुल या राज नाम का किरदार निभाया होता तो क्या इससे फर्क पड़ता?

उन्होंने किरदार का एक मुस्लिम नाम रखने का जोखिम उठाया। अगर उन्हें इसके कारण ही वाहवाही मिल रही है, या इसके बावजूद अगर आप शक्की किस्म के हैं, तो भी हमारे लोकप्रिय जनमत में थोड़े बदलाव को तो यह दर्शाता ही है।

भाजपा-संघ मानने लगे हैं कि उन्होंने अपना आधार मजबूत कर लिया है और 2024 तक हिंदू बंटने वाले नहीं। हिंदुत्व के अधिकतर लक्ष्य हासिल कर लिए गए हैं। ऐसे में किसी आंदोलन को भड़कने का मौका क्यों दें?

 

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