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क्या अब हम दंगों में जीने को अभ्यस्त हो चुके है? - श्रीनारद मीडिया

क्या अब हम दंगों में जीने को अभ्यस्त हो चुके है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

चीन में 1912-13 में जब मंचू राजशाही का अंत हुआ तो जनांदोलनकर्ताओं के सामने पदच्युत राजशाही ने अपनी कोई शर्त नहीं रखी। 1917 में सोवियत क्रांति में गद्दी छोड़कर भाग रहा ‘जार’ भी आंदोलनकारियों के सामने कोई शर्त नहीं रख पाया। लेकिन साढ़े तीन सौ साल की लूट-खसोट, अत्याचार और बर्बरतापूर्ण तानाशाही के बावजूद अंग्रेजों ने अपनी सारी शर्तें हमसे मनवा लीं।

तमाम आत्मघाती शर्तों को हमारे कर्ता-धर्ताओं ने केवल माना ही नहीं, 15 अगस्त सन् 1947 के बाद भी बड़े गर्व के साथ हम उनकी शर्तें पूरी करते रहे। आज़ादी के बाद भी देश ब्रिटिश संसद द्वारा पारित ‘गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935’ के द्वारा शासित होता रहा और गोरे सेनाध्यक्षों की मेहरबानी से जब-तब, जहां-तहां ‘यूनियन जैक’ फहराया जाता रहा।

हालांकि संविधान सभा भारत में लागू ब्रिटिश संसद द्वारा बनाए गए किसी भी कानून को, यहां तक कि भारतीय स्वतंत्रता एक्ट को भी रद्द या परिवर्तित कर सकती थी, लेकिन पूरी तरह से ऐसा कुछ नहीं किया गया। आधे से अधिक समय तक हमारी संविधान सभा भी चंद अंग्रेज अफसरों की ‘केबिनेट मिशन योजना’ के बंधनों में पूरी तरह जकड़ी रही। सांप्रदायिकता भड़काने और जात-पात तथा ऊंच-नीच का भेद पैदा करके हिंदुस्तान के टुकड़े करने वाले अंग्रेजों की इन्हीं नीतियों को हमने आजाद भारत में भी आत्मसात कर लिया।

मध्यप्रदेश का खरगोन हो या किसी अन्य प्रदेश का कोई और कस्बा, रोज दंगे हो रहे हैं और इनका कोई इलाज नहीं है तो इसकी वजह आखिर क्या है? क्या दंगों के बाद या लोगों के मर-खप जाने के बाद अपराधियों या आरोपियों के घर बुल्डोजर चलाना ही इसका इलाज है? और अगर सरकारें ही सही हैं और बुल्डोजर चलाना और उसकी वाहवाही लूटना ही आपका काम है तो इस सब के पहले हो रहे फसादों से लोगों को बचाने की जिम्मेदारी किसकी है?

सही है, बुल्डोजर चलाइए! आरोपियों या अपराधियों के हौसले पस्त करने का यह अच्छा तरीका हो सकता है, लेकिन दंगे रोकने का उपाय कौन करेगा? लोगों को मरने, बेघर होने से कौन बचाएगा? उन अपराधियों की पहले से पहचान क्यों नहीं की जा सकती? हमेशा घटना होने के बाद पहुंचने वाली हमारी पुलिस बारह महीने आखिर करती क्या है? उसके पास तो इलाके के हर बदमाश, हर अपराधी की लिस्ट होती है, फिर भी संवेदनशील समय पर वह इनकी नाथ क्यों नहीं कसती?

क्या बाकी के दिनों में वह भी इनकी कमाई पर ऐश करती फिरती है? या हमारे नेता चुनावी मौसम में साथ देने के बदले इन अपराधियों को पुलिस से बचाते रहते हैं? आखिर किसी एक क़ौम के त्योहार पर दूसरी क़ौम के लोग इस तरह हमलावर कैसे हो सकते हैं? वो पुलिस, वो प्रशासन आखिर वहां पदस्थ ही क्यों है जो इस तरह के दंगे रोक न सके! दरअसल, हम आदी हो चुके हैं इस तरह के दंगों के, फ़सादों के।

हमें कोई फर्क नहीं पड़ता किसी के मरने या बेघर होने का! यही वजह है कि त्योहार आते हैं और हमेशा की तरह यात्राओं, जुलूसों पर पत्थर फेंके जाते हैं। हम, हमारी पुलिस, प्रशासन और स्वयं चुनी हुई सरकारें भी सबकुछ हो जाने के बाद जागतीं हैं। क्यों? दंगे रोकना है तो बुल्डोजर बारहों महीने चलाना होगा।

अपराध होने के बाद इस तरह की कार्रवाई का बहुत ज्यादा अर्थ नहीं रह जाता। सरकार की वाहवाही की न तो अब लोगों को कोई गरज है और न ही आगे रहेगी। हमें सुशासन चाहिए। सरकारों को चाहिए कि ताली बजवाने के झूठे प्रहसन से बाहर आएं और हकीकत से सामना करें।

हमें सुशासन चाहिए
दंगे रोकना है तो बुल्डोजर बारहों महीने चलाना होगा। अपराध होने के बाद इस तरह की कार्रवाई का बहुत ज्यादा अर्थ नहीं रह जाता। सरकार की वाहवाही की न तो अब लोगों को कोई गरज है और न ही आगे रहेगी। हमें सुशासन चाहिए।

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