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आधुनिक भारत के विश्वकर्मा भारतरत्न डॉ. एम विश्वेश्वरैया को नमन.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

आधुनिक भारत के विश्वकर्मा. जीनियस इंजीनियर, विजनरी अर्थशास्त्री, स्टेट्समैन, भारतरत्न डॉ. एम विश्वेश्वरैया (मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया) की आज पुण्यतिथि है. विलक्षण मेधा के धनी विश्वेश्वरैया अपने काम की बदौलत देश- दुनिया में सर एमवी के नाम जाने गए. उनका योगदान केवल इंजीनियरिंग के ही क्षेत्र तक सीमित नहीं था. शिक्षा, कृषि, बैंकिंग, विज्ञान के क्षेत्र में भी उन्होंने महत्वपूर्ण काम किये. महत्वपूर्ण संस्थानों की नींव रखी.

दक्षिण भारत खासकर मैसूर को एक विकसित एवं समृद्धशाली क्षेत्र बनाया. कृष्ण राजसागर बांध, भद्रावती आयरन एंड स्टील व‌र्क्स, मैसूर विश्वविद्यालय, बैंक ऑफ मैसूर, मैसूर संदल ऑयल एंड सोप फैक्टरी, समेत अन्य कई महान उपलब्धियां उनकी देन हैं. उन्होंने ‘ब्लॉक सिस्टम’ को तैयार किया. आज भी यह व्यवस्था पूरे विश्व में प्रयोग में लाई जा रही है.

विश्वेश्वरैया बिहार में आधारभूत संरचना के विकास के लिए कई परियोजनाओं से जुड़े थे. उन्होंने गंगा नदी पर दो पुलों के निर्माण-स्थल के चयन में निर्णायक भूमिका निभाई.

अपने काम के प्रति विश्वेश्वरैया के समर्पण से जुड़ा एक प्रसंग है. विश्वेश्वरैया अपने जीवन के 9वें दशक में थे. सक्रियता जरा भी कम नहीं हुई थी. बिहार, पश्चिम बंगाल और असम के लिए गंगा पर दो पुल बनाने का प्रस्ताव था. 1945-1952 के बीच इस सवाल पर मंथन हो रहा था. बिहार, पश्चिम बंगाल और असम की सरकारें अपने-अपने क्षेत्र में साइट तय कर रही थीं.

विशेषज्ञों की राय बंटी हुई थी. कोई फैसला नहीं हो पा रहा था. अनिर्णय की स्थिति थी. तब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सुझाव दिया कि इस मामले को विश्वेश्वरैया के पास भेजा जाए, जो ईमानदारी, चरित्र और व्यापक राष्ट्रीय दृष्टिकोण के इंजीनियर हैं. वह स्थानीय दबावों से हटकर निष्पक्ष दृष्टिकोण रख सकते हैं. तत्कालीन परिवहन मंत्री, एन. गोपालस्वामी अय्यंगर ने 07 जनवरी, 1952 को विश्वेश्वरैया को एक पत्र लिखकर सबसे अधिक लाभकारी स्थान का चयन करने में उनकी सहायता का अनुरोध किया. कार्यभार ग्रहण करने से पहले, विश्वेश्वरैया को परिवहन मंत्री से आश्वासन मिला कि इस मुद्दे पर उनकी सिफारिशों को पूरी तरह से लागू किया जाएगा.

92 वर्षीय विश्वेश्वरैया को काम करने के लिए भारत सरकार ने सभी आवश्यक सुविधाएं दीं. यह आश्चर्यजनक है कि उस उम्र में भी बनारस से आगे गंगा के रास्ते को समझने के लिए वह मीलों पैदल चले. खुद वैकल्पिक स्थलों- मोकामा, सकरी गली घाट, फरक्का और राजमहल क्षेत्र का निरीक्षण किया. अपने सहयोगियों के साथ, वह कम ऊंचाई पर उड़ने वाले हवाई जहाज में जाकर सर्वे किया. उड़ान के दौरान विश्वेश्वरैया कॉकपिट में गए. सह-पायलट की सीट पर जाकर बैठ गए ताकि उन्हें बेहतर नजारा मिल सके. 92 साल की उम्र में भी वह साइकिल से पुल निर्माण के काम को देखने के लिए जाया करते थे. पर्याप्त संसाधनों की कमी के बीच उन्होंने लगभग 2 किलोमीटर लंबे पुल के काम को पूरा कर दिखाया.

श्रीनिवास मूर्ति ने विश्वेश्वरैया के काम पर एक किताब लिखी है. उसमें इसी से जुड़े एक दूसरे प्रसंग का भी उल्लेख मिलता है. बिहार के तत्कालीन राज्यपाल एम.एस. अणे ने उन्हें राजभवन में रहने के लिए व्यक्तिगत तौर पर आमंत्रित किया. विश्वेश्वरैया ने जवाब दिया कि काम की खातिर, वह रेलवे निरीक्षण डिब्बों (सैलून) में अपने सहकर्मियों के साथ रहना पसंद करेंगे. राज्यपाल ने विश्वेश्वरैया के इस रुख को सराहा. फिर उन्हें अपने सहकर्मियों के साथ गवर्नमेंट हाउस में रहने के लिए आमंत्रित किया. इस प्रस्ताव को उन्होंने स्वीकार लिया. पटना की गर्मी में रेलवे सैलून में रहना पसंद करनेवाले इस ग्रैंड ओल्ड मैन की सभी ने प्रशंसा की. राज्यपाल एम.एस. अणे ने उनके बारे में कहा कि ‘आराम से पहले कर्तव्य विश्वेश्वरैया का आदर्श है.’

तमाम जांच-पड़ताल के बाद विश्वेश्वरैया ने अपनी बहुमूल्य रिपोर्ट दी. चूंकि सरकार केवल एक पुल का निर्माण करना चाहती थी, इसलिए उन्होंने मोकामा को सबसे उपयुक्त स्थल के रूप में सुझाया. उनकी अन्य सिफारिशें भी बाद के दिनों में मान ली गई. फरक्का बराज और पटना में रिवर क्रोसिंग अरेंजमेंट की व्यवस्था बनी.

अगस्त, 1927 में गांधीजी ने मैसूर राज्य का दौरा किया. उस यात्रा के दौरान एक भाषण में गांधीजी ने कहा, ‘कृष्ण राजसागर बांध की तरह भद्रावती (आयरन वर्क्स), विश्वेश्वरैया की देशभक्ति और रचनात्मक प्रतिभा का प्रतीक है. उन्होंने अपनी प्रतिभा, ज्ञान, परिश्रम व अपनी सारी ऊर्जा मैसूर की सेवा में लगा दी है. एक बात जो हमें यहां सबसे ज्यादा प्रभावित करती है, वह यह है कि ऊपर से नीचे तक का पूरा उपक्रम आत्मनिर्भर है. इसका प्रवर्तक एक मैसूरवासी है, पूरी तरह से दक्षिण भारतीय. यह एक ऐसी चीज है जिस पर आपको और भारत को गर्व हो सकता है.’

जिस तरह डॉ. विश्वेश्वरैया वक्त के पाबंद थे, उसी तरह नियम के भी बड़े पक्के थे. एक प्रसंग है. वह ‘भारत रत्न’ की उपाधि लेने दिल्ली आये थे. सरकारी मेहमान के नाते वह राष्ट्रपति भवन में ठहराए गए थे. एक दिन सुबह तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद से वह बोले- ‘अब मुझे इजाजत दीजिए.’
राजेंद्र बाबू ने कुछ दिन और ठहरने का आग्रह किया. लेकिन उन्होंने कहा- ‘चूंकि राष्ट्रपति-भवन का नियम है कि कोई व्यक्ति यहां तीन दिन से अधिक नहीं ठहर सकता, इसलिए अब मैं न रुक सकूंगा.’
राजेंद्र बाबू ने जोर दिया- ‘यह नियम पुराना है. इस पर ध्यान न दीजिए और यह आपके लिए नहीं लागू होता है.’ पर, विश्वेश्वरैया ने राजेंद्र बाबू की एक बात नहीं मानी और उनसे विदा लेकर कहीं और ठहरने के लिए चले गए.

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