लोक विजयोत्सव का नीलकंठ चिरई

लोक विजयोत्सव का नीलकंठ चिरई

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

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आज विजयादशमी का दिन है। पर अपने गाँव-जवार से कोसों दूर दिल्ली जैसे बड़े नगर में बैठा हूँ। यहाँ उत्सव की रंगत है। मेला है। देवी की प्रतिमाएँ हैं। पर अपनों से दूर होने का कसक भरा खालीपन किसी कोने में लगातार खटकता है। गाँव की याद ऐसे मौकों पर हूबहू साँझ की उस धुँधली धूप जैसी उतर आती है। धीरे-धीरे। फिर चारों ओर छा जाती है।

विजयादशमी वहाँ केवल पंचांग की कोई तिथि नहीं होती, वह ऋतु के सत्र का वृत्तांत होती है। खेतों की हवा में उसकी आहट होती है, आँगन की चौखट पर उसके रंग। मन के भीतर उसका छंद। बरखा की थकान से बोझिल मौसम जैसे उतर चुका होता है। खेतों में धान की मुस्कुराती बालियाँ होती हैं। उनका सुवास अंतर्मन को उत्फुल्ल करता है।

आम की डाल पर बैठा नीलकंठ अपने नीले पंखों से गगन और धरती के बीच कोई रहस्य लिखता सात्विक रेखाचित्र होता है। लोक का विश्वास है कि विजयादशमी की सुबह यदि यह नीली छटा आँख में भर आए तो सारे वर्ष के लिए मंगल खुल जाता है। मानो वह पक्षी नहीं, मनुष्य का अपना अंतराल में बोया हुआ स्वप्न उड़कर क्षितिज तक जा पहुँचा है।

सवाल यह है कि यह नीलकंठ कौन है? नीलकंठेश्वर तो शिव कहे जाते हैं। जगत हलाहल पीने वाले। पर, यह नीलकंठ केवल पक्षी नहीं, लोक-मन का संदेशवाहक है। धरती और आकाश के बीच बना हुआ पुल। उसका नीला रंग जैसे दूर तक फैले आकाश की निस्तब्ध गहराइयों को अपने भीतर समेट लाता है।

उसकी उड़ान मन को उस ओर ले जाती है, जहाँ विजय का आशय केवल बाह्य संग्राम नहीं होता। वह स्वयं पर विजय का आह्वान भी होता है। विजयादशमी की जड़ें इसी गहरी अनुभूति में हैं—राम ने रावण को केवल इसलिए नहीं जीता कि राज्य मिले; उन्होंने उसे जीता ताकि मनुष्य का आत्मबल, सत्य और धर्म की प्रतिष्ठा बार-बार स्मरण दिलाए। लोक ने इस पर्व को युगों से इसी दृष्टि से ग्रहण किया है कि दशहरा बाहरी राक्षस-मरण का नृत्य नहीं, अंधकार, अहंकार और आलस्य पर मनुष्य के सतत युद्ध का स्मरणोत्सव है।

ग्राम्य स्त्रियाँ जब इस दिन प्रातः तुलसी-चौरे पर दीपक धरती हैं और सरसों के तेल की वह लौ बाल्य-नयन के सम्मुख झिलमिलाती है। उनके छोटे बच्चे खेत की ओस भरी मेड़ों पर नीलकंठ की खोज में दौड़ते फिरते हैं। जैसे ही कहीं पेड़ की शिखा पर उसकी नीली झिलमिलाहट पर नज़र टिकती है, अनाम उल्लास भीतर लहर भर देता है।

वह क्षण परिवर्तन का होता है, जहाँ से अनुभव होता है कि जीवन की चक्की फिर से नई गति से घूमने लगी है। यही है लोकविश्वास का चमत्कार—दृश्य को अदृश्य के साथ, चिड़िया को भाग्य के साथ, और ऋतु को अध्यात्म से बाँध देने की अद्भुत कला।

ऋतुओं के द्वार पर लोक ने अपने उत्सव बाँधे हैं। यही कारण है कि विजयादशमी भी शरद ऋतु के किवाड़ खोलती है। वर्षा के दिनों का कीचड़ और धूमिलता पीछे छूट जाते हैं। आकाश धुला-धुला हो जाता है। खेत-खलिहान नए और ताजे लगते हैं। बाहर की इस स्वच्छता को देख कर मनुष्य भीतर के गहराइयों को भी उजियारा करने के लिए प्रेरित होता है। यही बाह्य और आंतरिक परिशुद्धि का संगम इस पर्व का वास्तविक परिवेश रचता है।

विजयादशमी हमें बताती है कि संघर्ष और साधना के बाद ही विजय का प्रभात होता है। नीलकंठ की उड़ान इस सतत याद को पुष्ट करती है कि मानव का संघर्ष केवल स्थूल युद्ध तक सीमित नहीं है। उसे अपने भीतर भी जीतना है—वासना, मोह और असत्य के जाल गहन रावण-रूप हैं जिनसे मुक्त होना आवश्यक है।

राम का रावण पराजित करना दरअसल हर मनुष्य का आत्मसंघर्ष है जो निरंतर चलता रहता है। लोक की सहज दृष्टि ने इस अर्थ को बहुत पहले पकड़ लिया; इसलिए जब गाँव का बच्चा रावण के पुतले को जलते देखता है, तो उसके कोमल मन में भी धारण हो जाता है कि असत्य चाहे कितना ही विराट रूप धर ले, उसकी जड़ें खोखली होती हैं और उसका विनाश अटल और सुनिश्चित है।

दशहरे की संध्या जब लोग रामलीला देख कर लौटते हैं और आकाश में संयोग से कहीं नीलकंठ की झलक पा लेते हैं, उस मुहूर्त में वे भीतर से कोई अप्रकट स्वर सुनते हैं—विजय राजसत्ता की नहीं, आत्म-सत्ता की है।

यही कारण है कि लोकजीवन में विजयादशमी केवल पर्व नहीं, बल्कि उस संग्राम यात्रा का उत्सव है जिसमें आत्मा स्वयं अपने अंधेरे से बाहर निकलकर दीप की लौ जैसी हो जाती है। यह वही लौ है जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलती जाती है। गाँव से शहर, घर से हृदय तक, और निरंतर मानव की आंतरिक विजय की कथा कहती है।

शुभ विजयादशमी

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