धरती का उत्सव : गोवर्धन~पूजा पर्व का समकालीन पुनर्पाठ
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

गोवर्धन~पूजा पर्व ( गोवर्द्धन~पूजा पर्व ) केवल धार्मिक आस्था या कृषिजीवन से जुड़ी परंपरा नहीं बल्कि एक गहरे मानव-वैश्विक दर्शन का प्रतीक है। जब हम इसे आधुनिक विश्व और अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में देखते हैं तो इसमें प्रकृति, पर्यावरण, सामुदायिकता, सतत विकास और ‘इको-स्पिरिचुअलिटी’ (eco-spirituality) जैसे कई आधुनिक विचारों की प्रतिध्वनि सुनाई देती है। श्रीकृष्ण का गोवर्धन उठाना अब केवल पौराणिक चमत्कार नहीं रह गया—वह आज के संदर्भ में पर्यावरणीय प्रतिरोध और सामाजिक संरक्षण का रूपक बन गया है।
समकालीन दृष्टि से गोवर्धन पूजा का सबसे बड़ा अर्थ है—मानव और प्रकृति का पुनःसंवाद। आज जब जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग, अन्न संकट, पशु-हत्या और भूमि-क्षरण जैसी समस्याएँ विश्व को चुनौती दे रही हैं तब गोवर्धन पूजा एक प्राचीन भारतीय उत्तर बनकर उभरती है। इस पूजा का संदेश यही है कि मानव अपने जीवन का केंद्र केवल उपभोग नहीं, बल्कि संतुलन और सह-अस्तित्व बनाए।
श्रीकृष्ण जब ब्रजवासियों से कहते हैं कि इंद्र नहीं बल्कि गोवर्धन की पूजा करो तो वे दरअसल सत्ता के प्रतीक इंद्र से जीवन के वास्तविक आधार—भूमि, जल, पशु और अन्न—की ओर लौटने की बात कर रहे हैं। यह संदेश आज पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक है।
गोवर्धन पूजा एक ईको-फिलॉसॉफी (eco-philosophy) का उत्सव है। इसमें प्रकृति को पूज्य और जीवित माना गया है। पर्वत, गाय, भूमि, अन्न—सबको ब्रह्म स्वरूप समझा गया है। यह दृष्टि पश्चिमी सभ्यता की उस ‘एंथ्रोपोसेन्ट्रिक’ (man-centered) सोच से एकदम विपरीत है जिसमें मनुष्य को प्रकृति का स्वामी माना गया। पश्चिम के महान पर्यावरण-दार्शनिक जैसे जेम्स लवलॉक (James Lovelock) ने ‘Gaia Hypothesis’ के माध्यम से पृथ्वी को एक जीवित प्राणी बताया—ठीक वही दृष्टि भारत में गोवर्धन पूजा के रूप में हजारों वर्षों से जीवित है।
समकालीन भारतीय समाज में यह पर्व ग्रामीण जीवन की स्थायित्व-भावना का प्रतीक है। तकनीकीकरण और शहरीकरण के दबाव में जब खेती और पशुपालन धीरे-धीरे हाशिये पर जा रहे हैं तब यह पर्व हमें हमारी जड़ों से जोड़ता है। यह हमें स्मरण कराता है कि मानव सभ्यता की असली समृद्धि अन्न और पशु से ही आती है।
इसलिए यह पर्व आधुनिक आर्थिक मॉडल के विरुद्ध एक सांस्कृतिक प्रतिरोध भी है। गोवर्धन पूजा का अन्नकूट—जहाँ सभी वर्ग मिलकर अन्न बांटते हैं—समकालीन दृष्टि से फूड जस्टिस मूवमेंट (food justice movement) की तरह है, जो कहता है कि भोजन सबका अधिकार है, न कि किसी एक वर्ग का विशेषाधिकार।
यदि हम गोवर्धन पूजा को सस्टेनेबल डेवलपमेंट (sustainable development) के परिप्रेक्ष्य से देखें तो यह मानव और पर्यावरण के बीच संतुलन की आदर्श संहिता है। श्रीकृष्ण ने इंद्र की पूजा को निरस्त करके प्रकृति के प्रति कृतज्ञता की परंपरा स्थापित की। यह वही भाव है जिसे आज संयुक्त राष्ट्र ‘Sustainable Development Goals’ (SDGs) में रखता है—जहाँ पर्यावरण, गरीबी उन्मूलन और सामूहिक समृद्धि को एक साथ जोड़ा गया है। गोवर्धन पूजा का वास्तविक सार यही है कि मानव की समृद्धि तभी संभव है जब वह अपने पर्यावरण के साथ सहजीवी (symbiotic) संबंध बनाए रखे।
पश्चिमी विद्वानों ने भारतीय उत्सवों को केवल धार्मिक नहीं बल्कि ecocentric rituals के रूप में देखना प्रारंभ किया है। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के कुछ नृविज्ञानियों ने भारतीय ग्रामीण उत्सवों पर अध्ययन करते हुए कहा कि “Indian agrarian festivals like Govardhan Puja represent a unique form of ecological gratitude.” अर्थात्, ये पर्व केवल देवताओं को प्रसन्न करने के लिए नहीं बल्कि प्रकृति के प्रति सामूहिक कृतज्ञता प्रकट करने के लिए हैं। यह दृष्टिकोण पश्चिमी ‘Deep Ecology’ आंदोलन से गहराई से मेल खाता है जो कहता है कि हर जीव, हर वृक्ष, हर पर्वत का अपना मूल्य है—मनुष्य से स्वतंत्र और समान।
अमेरिकी पर्यावरण विचारक हेनरी डेविड थोरो (Henry David Thoreau) ने कहा था—“Heaven is under our feet as well as over our heads.” गोवर्धन पूजा इसी विचार का भारतीय रूप है। यह कहती है कि स्वर्ग धरती पर है, हमारे खेतों में, हमारी गायों में, हमारे अन्न में। गोवर्धन पर्वत जो कृष्ण के स्पर्श से दिव्य हुआ, वास्तव में उस धरती का प्रतीक है जो जीवन देती है। इस प्रकार विदेशी दार्शनिक दृष्टि से यह पर्व पृथ्वी-केंद्रित आध्यात्मिकता (Earth-centered spirituality) का उदाहरण है।
गोवर्धन पूजा को नये अर्थों में पुनर्परिभाषित किये जाने की ज़रूरत है। आज इसे ग्रामीण पारिस्थितिकी के पुनरुत्थान से जोड़ा गया है। यह पर्व ‘अन्न-संस्कृति’ (food culture) और ‘गौ-संस्कृति’ (cow culture) के पुनर्जागरण का माध्यम है। यह आधुनिक ‘consumerism’ के विरुद्ध एक वैकल्पिक दृष्टि प्रस्तुत करता है जिसमें उपभोग नहीं बल्कि संरक्षण और सामूहिकता ही जीवन का आधार हैं।
पश्चिमी नृविज्ञानियों ने इस पर्व को ‘Communal Ritual of Resistance’ कहा है—अर्थात् ऐसा सामूहिक अनुष्ठान जो मनुष्य को सत्ता, पूंजी और अहंकार के विरुद्ध खड़ा करता है। जब कृष्ण इंद्र की पूजा को अस्वीकार करते हैं तो वह केवल देवता के विरोध में नहीं बल्कि उस मानसिकता के विरोध में हैं जो शक्ति और अधिकार को सर्वोपरि मानती है। यह आज के वैश्विक संदर्भ में ‘decolonial’ और ‘anti-capitalist’ प्रतीक बन जाता है—जहाँ जीवन का अर्थ उत्पादन और लाभ से नहीं बल्कि समरसता और करुणा से मापा जाता है।
विदेशी अकादमिक जगत में कुछ समकालीन इंडोलॉजिस्ट्स (Indologists) जैसे डेविड हबर्मन, मार्क मूस और रॉबर्ट एलबॉर्ट ने गोवर्धन पूजा को भारतीय लोक-धर्म की जीवंत परंपरा कहा है जो धर्म और पर्यावरण दोनों का सेतु है। उनके अनुसार यह त्योहार भारतीय सोच की उस विशिष्टता को दिखाता है जिसमें ‘धर्म’ केवल पूजा नहीं बल्कि एक living ecology है—एक ऐसी जीवन-व्यवस्था जिसमें ईश्वर, मनुष्य, और प्रकृति एक-दूसरे में घुले हुए हैं।
समकालीन मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी गोवर्धन पूजा का एक अर्थ है। आधुनिक जीवन की जटिलता और तनाव में जब व्यक्ति अलगाव और असंतुलन से गुजरता है, तब ऐसे पर्व उसे अपने परिवेश और समाज से पुनः जोड़ते हैं। यह पर्व ‘साझेपन’ और ‘समुदायिकता’ की अनुभूति देता है। इससे व्यक्ति का ‘ecological self’ पुनर्जीवित होता है—एक ऐसा आत्म जो अपने पर्यावरण के साथ एकात्म है।
आधुनिक साहित्य में गोवर्धन पूजा के प्रतीक को नया अर्थ मिला है। कुछ लेखक इसे ‘राष्ट्र के पुनःगोवर्धन उठाने’ की उपमा में प्रयोग करते हैं—अर्थात संकट के समय सामाजिक जिम्मेदारी उठाने की प्रेरणा। यह दिखाता है कि यह पर्व अपने धार्मिक संदर्भ से परे जाकर एक सांस्कृतिक और नैतिक आदर्श बन गया है।
यदि हम वैश्विक परिप्रेक्ष्य में तुलना करें तो गोवर्धन पूजा जापान के Shinto Nature Festivals, अमेरिका के Earth Day, और अफ्रीका के Harvest Ceremonies से तुलनीय है। फर्क यह है कि जहाँ पश्चिमी पर्व केवल प्रतीकात्मक हैं, वहाँ गोवर्धन पूजा जीवन के हर स्तर पर क्रियाशील है। इसमें केवल उपदेश नहीं बल्कि प्रत्यक्ष कर्म है—गायों का स्नान, अन्न का साझा, भूमि की पूजा—यह सब जीवन की संपूर्णता का अभ्यास है।
समकालीन युग में गोवर्धन पूजा इस बात का सजीव उदाहरण है कि भारतीय परंपरा किसी जड़ता में नहीं बंधी बल्कि लगातार पुनःअर्थायन की प्रक्रिया में है। यह पर्व आज भी गाँवों से लेकर महानगरों तक अलग-अलग रूपों में मनाया जाता है—कहीं गोबर से बने गोवर्धन की पूजा होती है, कहीं अन्नकूट के विशाल भंडारे लगते हैं और कहीं पर्यावरण-सेवा के अभियान। यह दिखाता है कि भारतीय संस्कृति में धर्म स्थिर नहीं बल्कि समय के साथ विकसित और संवर्धित होता है।
गोवर्धन पूजा केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं बल्कि एक वैश्विक विचार है—एक ऐसी चेतना जो मनुष्य को यह याद दिलाती है कि वह पृथ्वी का स्वामी नहीं बल्कि उसका संरक्षक है। कृष्ण का गोवर्धन उठाना आज के समय में केवल ब्रज की कथा नहीं बल्कि पूरी पृथ्वी का प्रतीक है—जहाँ हर व्यक्ति, हर समाज, अपने हिस्से का गोवर्धन उठाने की जिम्मेदारी ले। यही इस पर्व की समकालीन सार्थकता है—धर्म और पर्यावरण, परंपरा और आधुनिकता, लोक और वैश्विक चेतना—सभी का सुंदर, जीवंत और शाश्वत संगम।
गोवर्धन पूजा भारतीय ज्ञान-परंपरा में अंतर्निहित इकोसेंट्रिक एपिस्टेमोलॉजी (ecocentric epistemology) की पुनर्स्थापना के रूप में उभरती है। यहाँ धर्म का आशय किसी ईश्वरवादी तंत्र से अधिक एक जीव-तत्त्ववादी चेतना से है, जहाँ प्रकृति—मानव और गैर-मानव—के बीच अंतःसंबंध सत्ता की श्रेणी में नहीं, बल्कि सहजीविता (symbiosis) में व्यवस्थित है। श्रीकृष्ण का इंद्र-पूजन से विमुख होना वस्तुतः पॉवर-डिकंस्ट्रक्शन (power deconstruction) का कृत्य है जो पौराणिक संरचना के भीतर ‘प्रकृति बनाम सत्ता’ के विमर्श को उद्घाटित करता है।
यह पूजा भारतीय इको-हर्मेन्यूटिक्स का जटिल रूपक है जिसमें गोवर्धन पर्वत ‘भू-स्व’ (geo-self) का प्रतिरूप बन जाता है—एक ऐसा भू-तत्त्व जिसमें जीवन के सभी तंतु एकात्म हैं। आधुनिक पारिस्थितिक सिद्धांतों—जैसे जेम्स लवलॉक की Gaia Hypothesis या अरने नेस की Deep Ecology—में भी यही भाव मिलता है कि पृथ्वी एक जीवित चेतन इकाई है। गोवर्धन पूजा इस वैज्ञानिक अवधारणा का सांस्कृतिक रूपान्तर है, जहाँ ‘भू’ को मात्र संसाधन नहीं बल्कि ‘सचेत सत्ता’ माना गया है।
यदि इस उत्सव को सांस्कृतिक-राजनीतिक सैद्धांतिकी में पढ़ा जाए तो यह औपनिवेशिक आधुनिकता द्वारा थोपी गई एनथ्रोपोसीन आइडियोलॉजी (Anthropocene ideology) के विरुद्ध एक ‘री-रिचुअलाइज्ड रेजिस्टेंस’ है—अर्थात एक ऐसा अनुष्ठान जो मनुष्यकेंद्रिकता को विस्थापित करता है। अन्नकूट का सामूहिकता-भाव, गोबर का पुनर्संयोजन और भूमि की पूजा—ये सब इको-सोशियोलॉजिकल सिंटैक्स हैं जो जीवन और उत्पादन के बीच नैतिक अनुबंध की पुनर्परिभाषा करते हैं।
गोवर्धन पूजा न केवल एक धार्मिक घटना है बल्कि एक पारिस्थितिक पाठ (ecological text) भी है—जहाँ ‘कृष्ण’ केवल देवता नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक प्रतिपाठ हैं जो मनुष्य को उसके अहंकारी ‘इंद्र-प्रोजेक्ट’ से मुक्त कर, पृथ्वी के प्रति उत्तरदायी बनाते हैं। यही इस पूजा का सैद्धांतिक नाभिक है—एक अद्वितीय मिलन बिंदु जहाँ मिथक, पारिस्थितिकी और उत्तर-आधुनिक विचार एक दूसरे को पुनर्परिभाषित करते हैं।
आभार~ परिचय दास
- यह भी पढ़े…………..
- चित्रगुप्त : मनुष्य की आत्मकथा के मौन कवि
- प्रोफेसर फ्रांसेस्का ऑर्सिनी का हिंदी साहित्य में क्या योगदान है?
- बिहार में भाजपा की रैलियों का दौर जारी
- सीवान के लाल मनोज भावुक और प्रियंका सिंह का नया छठ गीत ‘ पलायन के दर्द : सुनs ए छठी मइया ‘ हुआ रिलीज


