छठ लोकपर्व है,लोकगीत इसका प्राणरस है-चन्दन तिवारी

छठ लोकपर्व है,लोकगीत इसका प्राणरस है-चन्दन तिवारी

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

छठ लोकपर्व है। लोकगीत इसका प्राणरस है। सूर्य भी तो इस जगत में प्राण फूंकता है। उगी हे सुरूज देव, भेल भिनसरवा, अरघ केरा बेरवा हो/ बरती पुकारे देव, दुनो करजोरिया, अरघ केरा बेरिया हो… यह सुबह के अर्घ्य के समय का गीत है। इस गीत के जरिये व्रती महिलाएं सूर्य देव से आराधना करती हैं कि आप उगिए।

सामूहिक स्वर में जब घाट पर यह गीत गाया जाता है, तो लगता है, कहीं सैकड़ों लोग एक साथ मंत्र का जाप कर रहे हों और सामने से सूर्य देव आ रहे हों। छठ में गाए जाने वाले लोकगीत ही उसके मंत्र और शास्त्र, दोनों हैं। छठ में जितने विधि-विधान होते हैं, उनमें थोड़ा-बहुत बदलाव अलग-अलग इलाके में बेशक आप देख सकते हैं, लेकिन एक बात हर जगह समान रूप से मिलेगी कि कहीं भी, कोई भी छठ का पर्व गीत के बिना करता हुआ नहीं मिलेगा।

मुझे छठ के पारंपरिक गीत बेहद पसंद हैं। खासकर वे गीत, जो व्रती महिलाएं अपने-अपने घाट पर व्रत के दौरान, प्रसाद बनाते वक्त, खरना के दिन सामूहिक स्वर में गाती हैं। इनमें सबके कल्याण की भावना होती है। सकल जगतारिणी हे छठी मइया, सभक शुभकारिणी हे छठी मइया/ जल-थल-वायु-अगिन में अहीं छी, अहीं छी जग के आधार/ सकल जगतारिणी हे छठी मइया, सभक शुभकारिणी हे छठी मइया…।

इधर चलन चला है कि पॉपुलर फिल्मी धुनों पर भी छठ गीत बनने लगे हैं, और यह भी कि जो कुछ सामयिक घट रहा है, उसको भी छठ के गीतों में लाया जाए। व्यक्तिगत तौर पर मैं इसकी पक्षधर नहीं हूं। सामयिक संदर्भों को लोकगीतों में लाने के लिए अनेक विधाएं हैं। फाग के गीत, चैती के गीत, सोरठी धुन पर गीत सब सामयिक विषयों को सामने लाते रहे हैं। सबसे बढ़कर तो कजरी की विधा है, जो हमेशा समकालीन विषयों को लेकर आगे बढ़ती रही है। इतनी विधाएं हैं, जिनमें कई प्रयोग किए जा सकते हैं।

वैसे छठ के गीतों का दायरा सीमित है, इसलिए इसे सीमित ही रहने दिया जाए। सृष्टि और प्रकृति से जुड़े तत्वों का मेल-जोल, सूप-दौरा में रखे जाने वाले सामान का विवरण, नदी-घाट का विवरण, बेटा-बेटी की कामना, अच्छे स्वास्थ्य की कामना, दुख से मुक्ति की कामना, सुख मिलने पर धन्यवाद ज्ञापित करने जैसे शाश्वत तत्वों को लेकर ही गीत गाया जाए।

छठ के पारंपरिक गीत में उगी हे सुरूज देव… कांच ही बांस के बहंगिया… गंगा माई के उंच अररिया… सोने के खड़उआं हे दीनानाथ… जैसे गीत मुझे बहुत पसंद हैं। छठ गीतों में कैसा प्रयोग हो, इसके लिए बिहार की मशहूर लोकगायिका विंध्यवासिनी देवी मानक हो सकती हैं। भूपेन हजारिका साहब जैसे संगीतकार के साथ मिलकर उन्होंने जो गाए, वे पारंपरिक छठ गीत की तरह लोकमानस में रच-बस गए हैं।

मैं बचपन से ही छठ देखती रही हूं। इसमें बहुत कुछ बदला है, लगातार बदलने की कोशिश जारी भी रहती है। मगर अच्छी बात यह है कि इस पर्व पर बाजार हावी नहीं हो पा रहा। जैसे, छठ में आज भी आपको घर पर में बनाकर खाना होगा। अमीर हो या गरीब, सब नहाय-खाय के दिन लौकी की सब्जी और चावल ही खाते हैं।

सब ठेकुआ ही प्रसाद में चढ़ाते या बांटते हैं। हालांकि, इधर एक-दो बदलाव ऐसे भी दिखे हैं, जो पीड़ा देते हैं। एक तो यह कि अब छठ घाटों पर भी अमीरी और गरीबी का फर्क दिखने लगा है, और दूसरा यह कि छठ गीतों को भी सामान्य फिल्मी गीत की तरह बनाने की कोशिश हो रही है।

हाल के वर्षों में छठ गीतों में अश्लीलता का बढ़ना बेहद दुखद है। मेरा मानना है कि छठ गीतों में शालीनता बचाना छठ महोत्सव समितियों के हाथों में है। वे तय कर लें कि जो मूल रूप से छठ के गीत होंगे या मूल गीत के करीब होंगे, या फिर जिन गीतों में छठ का मर्म-भाव व तत्व होगा, उन्हीं गीतों को छठ घाटों पर, गलियों में सार्वजनिक तौर पर बजाया जाएगा, तो निस्संदेह वैसे ही गीत बनने-बजने लगेंगे, जो सदियों से हमारे दिलों के करीब रहे हैं।

स्पष्ट है, समाज को अपने तईं प्रयास करना होगा। कुछ गायक तर्क देते हैं कि अश्लील गीतों को ‘मिलियन व्यूज’ मिल जाते हैं, जबकि उम्दा गीत अपने श्रोताओं को तरसते रहते हैं। इसलिए श्रोताओं को तय करना होगा कि उनको क्या सुनना चाहिए। वे अपने बच्चों या परिवार को क्या सुनाना चाहते हैं। श्रोता यह रोना नहीं रो सकते कि यही गाना चल रहा है।

छठ की पवित्रता को ध्यान में रखते हुए समाज को जागना चाहिए। मुझे भी अश्लील गीत गाने के ऑफर मिलते हैं। न कहने पर यह धमकी भी दी जाती है कि इस जीवन में गायक-कलाकार बनने का ख्वाब छोड़ दो। मगर अच्छी बात यह रही है कि जिन लोगों ने मुझे उस वक्त इस तरह की सलाह दी थी, वही अब मुझसे अच्छे गीतों की मांग करने लगे हैं।

पूर्वांचल के सभी युवाओं को छठ पर्व से प्रेरणा लेते हुए अपनी संस्कृति के लिए दृढ़ता के साथ खड़ा होना चाहिए। ‘पब्लिक डिमांड’ के अनुसार गाने के बजाय मैंने पब्लिक की डिमांड बदलने के लिए गाने का प्रयास किया। इसका लाभ यह मिला कि चंद कार्यक्रम ही सही, पर वे यादगार रहे। मान-सम्मान और गरिमा-मर्यादा के साथ।

हां, एक सुखद बदलाव यह हुआ है कि अब हर साल अधिक से अधिक पुरुष व्रतियों की संख्या बढ़ रही है। हमारे समाज में जिउतिया से लेकर तीज जैसे अनेक पर्व हैं, जिनमें महिलाएं अकेले ही उपवास करती हैं, लेकिन छठ संभवत: इकलौता ऐसा पर्व है, जो पुरुषों में भी कोमल-कल्याण भाव जगा रहा है।

छठ का त्योहार निश्चय ही पूरी आस्था के साथ मनाएं, लेकिन श्रोतागण जहां भी छठ गीतों में छेड़छाड़ देखें, तुरंत विरोध करें। मगर इसके साथ अच्छा यह भी होगा कि रचनाकार बेटियों पर केंद्रित अधिक से अधिक छठ गीत लिखें। ऐसा करने से छठ की मर्यादा भी बची रहेगी और उसके दायरे का भी अधिकाधिक विस्तार होगा। विंध्यवासिनी देवी तो गा भी चुकी हैं- पांच पुतर अन धन लछमी, लछमी मंगबई जरूर/ पियवा के काया मोरा कंचन, बर मंगबई जरूर..

 

 

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