चिपको आंदोलन ने देश को एक राह दिखाई थी

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

चिपको आंदोलन की शुरुआत प्रदेश के चमोली जिले में गोपेश्वर नाम के एक स्थान पर की गई थी. आंदोलन साल 1972 में शुरु हुई जंगलों की अंधाधुंध और अवैध कटाई को रोकने के लिए शुरू किया गया. इस आंदोलन में महिलाओं का भी खास योगदान रहा और इस दौरान कई नारे भी मशहूर हुए और आंदोलन का हिस्सा बने.

इस आंदोलन में वनों की कटाई को रोकने के लिए गांव के पुरुष और महिलाएं पेड़ों से लिपट जाते थे और ठेकेदारों को पेड़ नहीं काटने दिया जाता था. जिस समय यह आंदोलन चल रहा था, उस समय केंद्र की राजनीति में भी पर्यावरण एक एजेंडा बन गया थाय इस आन्दोलन को देखते हुए केंद्र सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम बनाया.

उत्तराखंड में एक आंदोलन की शुरुआत हुई थी, जिसे नाम दिया गया था चिपको आंदोलन. इस आंदोलन की चंडीप्रसाद भट्ट और गौरा देवी की ओर से की गई थी और भारत के प्रसिद्ध सुंदरलाल बहुगुणा ने आगे इसका नेतृत्व किया. इस आंदोलन में पेड़ों को काटने से बचने के लिए गांव के लोग पेड़ से चिपक जाते थे, इसी वजह से इस आंदोलन का नाम चिपको आंदोलन पड़ा था.

यह आंदोलन विशेषकर टिहरी, चमोली जिले के मंडल गांव और रेणी गांव में हुआ. रेणी गांव तो इस आंदोलन से विशेष रूप से जुड़ा रहा. दूसरे शब्दों में कहें, तो टिहरी, मंडल और रेणी गांव- ये तीनों ही वे प्रमुख स्थल रहे, जहां हुए आंदोलनों के कारण चिपको आंदोलन ने राष्ट्रीय स्वरूप अख्तियार किया. जिसके फलस्वरूप वनों को बचाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर पहल शुरू हुई.

असल में, शुरुआत में वनों की कटाई को लेकर इस क्षेत्र की महिलाओं ने कड़ा विरोध जताया. महिलाओं के इस विरोध के चलते ही इस आंदोलन की नींव पड़ी, और फिर देखते-देखते यह आंदोलन वनों के महत्व, उत्तराखंड और हिमालय में हो रही तमाम गतिविधियां, तमाम विषमताओं, जिससे पारिस्थितिकी को हानि पहुंच रही थी, उन सबसे भी जुड़ता चला गया.

यदि हम इस आंदोलन के बारे में विश्लेषण करें, तो पायेंगे कि इस आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा यह था कि इसमें महिलाएं तो अग्रणी भूमिका निभा ही रही थीं, इसके साथ ही तत्कालीन सामाजिक आंदोलनों से जुड़े लोग भी इससे जुड़ते गये और इस आंदोलन की मुखर आवाज बने. उन लोगों में सुंदरलाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है.

इसके साथ ही, उनके सर्वोदयी साथियों ने भी इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी और सबने मिलकर इस आंदोलन को एक बेहतर दिशा दी. यह चिपको आंदोलन की ही पहल थी, जिसके चलते देश में वन नीति में बदलाव हुआ और विशेष रूप से हिमालय में एक हजार मीटर से ऊपर की ऊंचाई पर स्थित वनों की कटाई पर अंकुश लगा. साथ ही, यह भी तय किया गया कि हिमालयी क्षेत्र में 65 प्रतिशत वन आवरण (फॉरेस्ट कवर) रहना चाहिए.

मैदानी क्षेत्रों के लिए 33 प्रतिशत वन आवरण बने रहने की बात भी तय हुई. कुल मिलाकर देखें, तो चिपको आंदोलन का जो सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा था, वह यह कि दुनिया में पहली बार पारिस्थितिकी और पर्यावरण को लेकर एक पहल की गयी. अपनी इसी पहल के कारण यह आंदोलन विश्वव्यापी हो गया. चिपको आंदोलन से जुड़े दूसरे महत्वपूर्ण पहलू में इस बात पर बल दिया गया कि किस तरह से हम हिमालय को संवार सकते हैं, उसे सजा सकते हैं, विशेष रूप से प्रकृति और पारिस्थितिकी के दृष्टिकोण से, क्योंकि वह हिमालय ही है, जो हवा, मिट्टी, वन, पानी देश-दुनिया को देता है.

इस लिहाज से देखें, तो चिपको आंदोलन का जो एक अत्यंत महत्वपूर्ण भाग रहा, वह यह कि इसने स्थानीय संसाधनों और उसके संरक्षण पर बहुत बल दिया. इसमें गौरा देवी जैसी कर्मठ महिलाओं ने अग्रणी भूमिका निभायी और उनके पीछे तत्कालीन कार्यकर्ता सुदंरलाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट ने इस आंदोलन को एक पैनापन दिया और इसे विश्वव्यापी बनाया.

चिपको आंदोलन के 50 वर्ष के बाद का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा यही कहा जा सकता है कि तब से लेकर आज तक भी चिपको आंदोलन वह बड़ा असर नहीं बना पाया, जिसकी अपेक्षा थी. इस अपेक्षा के पूरा न होने का सबसे बड़ा कारण यही है कि लोगों में अभी भी पर्यावरण और पेड़ों के प्रति एक गहरी समझ नहीं बन पायी है, बावजूद इसके कि दुनियाभर में हो रहे तमाम परिवर्तन भी कहीं दुर्भाग्य से पारिस्थितिकी तंत्र को पूरा झकझोर चुके हैं.

चिपको आंदोलन का यही बड़ा संदेश था कि वनों के चलते प्रकृति सुरक्षित रहती है. हमने तमाम तरह की नीतियों में चिपको आंदोलन को कहीं न कहीं उपयोग में लाने की कोशिश की, लेकिन चिपको आंदोलन उस समय प्रभावी होने के बाद आज भी कहीं इस अपेक्षा में है कि 1973 की वह आवाज कहीं एक बड़ा काम कर पाती, जो वो नहीं कर सकी.

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