चित्रगुप्त : मनुष्य की आत्मकथा के मौन कवि

चित्रगुप्त : मनुष्य की आत्मकथा के मौन कवि

चित्रगुप्त पूजा पर विशेष

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

चित्रगुप्त, वह नाम जो भारतीय स्मृति में युगों से एक अदृश्य न्याय की उपस्थिति के रूप में अंकित है। वे लेखा-जोखा रखते हैं — पर वह लेखा केवल पाप-पुण्य का नहीं बल्कि मनुष्य के मन के उतार-चढ़ाव का, उसके संकल्पों और दुविधाओं का भी है। अगर धर्म का धरातल कर्म है तो चित्रगुप्त उस कर्म की अन्तःपंक्तियों को पढ़ने वाले शिल्पी हैं। उनकी भूमिका इतनी सूक्ष्म है कि वे न केवल मृत्यु के बाद के न्याय के प्रतीक हैं बल्कि जीवित मनुष्य के भीतर की अंतरात्मा के रूप में भी विद्यमान हैं।

आज के समय में जब हर व्यवस्था अपने लेखे~जोखे से विमुख हो रही है, जब सत्ता अपने ही अपराधों की गिनती मिटा रही है तब चित्रगुप्त का स्मरण एक नैतिक पुनर्स्थापन की तरह उभरता है। वे हमें याद दिलाते हैं कि जो लिखा गया है, वह मिटता नहीं — वह किसी न किसी रूप में ब्रह्मांड की स्मृति में सुरक्षित रहता है। यह स्मृति ही उस अदृश्य नैतिकता का दस्तावेज़ है जिस पर मनुष्य के अस्तित्व की सभ्यता खड़ी है। चित्रगुप्त इसी स्मृति के संरक्षक हैं।

किंवदंती कहती है कि वे ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं — अर्थात विचार से उत्पन्न हुए देवता। इसीलिए उनका कर्म भी विचार का कर्म है, लेखन का कर्म है। वे कलम के देवता हैं जो मनुष्य की नियति को शब्दों में बाँधते हैं। उनके पास जो लेखा है, वह दरअसल एक अनंत ग्रंथ है जिसमें हर प्राणी की कहानी दर्ज है। पर सोचिए, इस ग्रंथ का अर्थ केवल मृत्यु के बाद का निर्णय नहीं है। यह ग्रंथ जीवन की भी निरंतर समीक्षा है — वह आंतरिक लेखा जो हर शाम मनुष्य अपने भीतर बनाता है।

समकालीन परिप्रेक्ष्य में चित्रगुप्त को केवल कर्मों के हिसाब रखने वाला देवता मान लेना उनके अर्थ को सीमित करना है। आज के विमर्श में वे अकाउंटेबिलिटी और ट्रांसपेरेंसी के दार्शनिक प्रतीक हैं। वे सत्ता से पूछते हैं — तुम्हारे निर्णयों के पीछे कौन-सा लेखा है? वे मनुष्य से पूछते हैं — तुम्हारे कर्म का उद्देश्य क्या था? इस प्रश्न का सामना करना ही नैतिकता की पहली शर्त है। चित्रगुप्त इस प्रश्न को जीवित रखते हैं, ठीक वैसे ही जैसे किसी कवि के भीतर आत्मालोचना का स्वर जीवित रहता है।

आज जब समाज डेटा और सर्विलांस के युग में प्रवेश कर चुका है तो एक विचित्र स्थिति बनती है — हर व्यक्ति का व्यवहार रिकॉर्ड में है, पर उसका नैतिक मूल्यांकन नहीं। ऐसे समय में चित्रगुप्त का विचार एक विमर्श प्रस्तुत करता है कि केवल रिकॉर्ड होना पर्याप्त नहीं, न्यायसंगत व्याख्या भी आवश्यक है। उनके पास केवल संख्याएँ नहीं हैं, उनके पास संवेदना है; उनके पास केवल प्रमाण नहीं, बल्कि विवेक है। आधुनिक प्रशासन और समाज विज्ञान के लिए यह एक चेतावनी है — आंकड़े नहीं, दृष्टि महत्त्वपूर्ण है।

चित्रगुप्त का लेखन किसी यांत्रिक गणना का लेखन नहीं है, वह आत्मा की भाषा में लिखा गया दस्तावेज़ है। जब किसी मनुष्य का ‘पाप’ लिखा जाता है तो उसमें केवल कर्म नहीं, उसके पीछे की स्थिति और विवशता भी दर्ज होती है। वे अपराध के साथ करुणा को भी पढ़ते हैं। यही कारण है कि चित्रगुप्त न्याय करते हुए केवल दंड नहीं देते, बल्कि आत्मबोध का अवसर भी देते हैं। वे एक नैतिक कवि हैं — जो मानव की भूलों को कविता में बदल देते हैं, ताकि वह अपनी ही कहानी को समझ सके।

अगर साहित्य में उन्हें देखा जाए तो वे एक ऐसे संपादक हैं जो मानव-जीवन के पांडुलिपि-संसार को सही क्रम में व्यवस्थित करते हैं। वे नीतिशास्त्र के साथ-साथ सौंदर्यशास्त्र के भी प्रतिनिधि हैं क्योंकि उनके लिए न्याय केवल दंड नहीं, सौंदर्य की पुनर्स्थापना है — उस सौंदर्य की, जिसमें सत्य, करुणा और विवेक साथ चलते हैं।

काव्य गद्य के स्तर पर चित्रगुप्त का चित्र एक गहन प्रतीकात्मक अनुभूति बन जाता है। कल्पना कीजिए, वे बैठे हैं — उनके सामने ब्रह्मांड का एक विशाल पन्ना फैला है। उस पर कोई नाम नहीं, केवल आभा है। वे किसी के आँसुओं की गिनती नहीं करते, वे आँसू के भीतर का अर्थ पढ़ते हैं। वे किसी अपराध को केवल कर्म नहीं, एक असफल करुणा के रूप में देखते हैं। उनकी कलम में स्याही नहीं, अनुभव की ज्वाला है। हर पंक्ति में एक प्रार्थना है, हर अक्षर में एक आत्मा।

समकालीन समाज में जब व्यक्ति अपनी ही आत्मा से विमुख हो चुका है, चित्रगुप्त की कल्पना हमें भीतर झाँकने के लिए प्रेरित करती है। वे बताते हैं कि जो कुछ बाहर घट रहा है, उसका लेखा भीतर बन रहा है। यह लेखा ही भविष्य का भाग्य है। आधुनिक नैतिकता, मीडिया, राजनीति, यहाँ तक कि अकादमिक जगत में भी, चित्रगुप्त की दृष्टि की पुनर्व्याख्या की ज़रूरत है — ताकि हम समझ सकें कि हर वक्तव्य, हर निर्णय, हर मौन एक लेख बन जाता है।

चित्रगुप्त की कलम आज की कलम से कहीं अधिक जीवंत है। वह केवल लिखती नहीं, सुनती भी है। वह इतिहास को सुनती है, समाज की धड़कन को सुनती है और मनुष्य के मौन में छिपी पुकार को भी सुनती है। यही सुनना उन्हें समकालीन बनाता है। आज की सभ्यता अगर आत्मालोचना खो चुकी है तो वह चित्रगुप्त को भूल चुकी है।

चित्रगुप्त की उपस्थिति किसी धार्मिक आग्रह की नहीं बल्कि एक दार्शनिक चेतना की है — जो कहती है कि जीवन का लेखा बाहर नहीं, भीतर है। जिस दिन मनुष्य अपने भीतर के चित्रगुप्त को पहचान लेगा, उसी दिन वह स्वयं अपने कर्मों का न्याय कर सकेगा। तब किसी देवता की ज़रूरत नहीं रहेगी — क्योंकि देवता भीतर बैठा होगा, विचार और संवेदना के रूप में।

वे चित्रगुप्त जो कभी यमराज के दाहिने बैठे थे, अब मनुष्य के दिमाग के बाएँ हिस्से में आकर बस गये हैं — वही जो विचार करते हैं, प्रश्न करते हैं , याद रखते हैं और कभी नहीं मिटाते।

इस तरह चित्रगुप्त अब कोई पुराण कथा नहीं बल्कि आधुनिक मनुष्य की आत्मकथा बन चुके हैं। वे हमारे भीतर के हिसाब-किताब के प्रतीक हैं — जहाँ हर झूठ, हर सच, हर प्रेम, हर धोखा एक-एक पंक्ति में दर्ज है और जब हम उस पंक्ति को पढ़ते हैं तो लगता है — चित्रगुप्त दरअसल हम ही हैं, अपने ही लेखन के भीतर बैठे हुए।

यही उनका ललित सौंदर्य है — कि वे धर्म के देवता होते हुए भी कविता के कवि हैं, न्याय के प्रतीक होते हुए भी करुणा के दूत हैं। उनके लेख में वह लालित्य है जो जीवन को उसके नैतिक और सौंदर्यात्मक आयामों में एक साथ रखता है। वे हमें सिखाते नहीं बल्कि याद दिलाते हैं — कि हर जीवन एक लेख है और हर लेख में एक चित्रगुप्त छिपे हैं । उसी के स्पर्श से शब्द उजाले बनते हैं और न्याय कविता हो जाता है।

आभार- परिचय दास सर

 

 

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