‘सोनपुर के मेलवा में धनिया हेरइली…’
कार्तिक पूर्णिमा पर विशेष
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

कार्तिक पूर्णिमा। गंगा और गंडक के कछार पर उगी एक सुबह। इसमें चाँदनी की कोर अभी उतरी नहीं, और जीवन की हलचल उस पहली किरन के इंतज़ार में थमी लगती है। और ऐसे ही किसी विभोर क्षण में, मन अपने आप सोनपुर की ओर बह जाता है। जहाँ काल और स्मृति दोनों का संगम है, और लोक-संवेदना अपने सबसे उजले रूप में छलकती है।
सोनपुर का मेला, महज मनुष्य की भीड़ का नहीं, समय का मेला है। यहाँ आते-आते लगता है, जैसे किसी पुरातन कथाओं का आलोक आज भी हवा में बसा है। कोई गज-ग्राह की पुकार; कहीं किसी हरिहरनाथ के नाम की धुन। वस्तुतः यह लोक की वह सामूहिक चेतना है, जिसे सभ्यता और संस्कृति ने अनगिनत रूपों में जिया है।
मेला, भारतीय जीवन की सामुदायिकता का सबसे विराट सौंदर्य है। यहाँ मनुष्य अकेला नहीं जाता, जाती है, उसके साथ, उसकी असंख्य स्मृतियाँ, रिश्ते, सपने और विश्वास। यह मिलन है, आर्थिकता और आत्मा का, कर्म और कला का। यहीं व्यक्ति अपने अभाव को भुला, समष्टि में लय हो जाता है।
गाँवों के मेले कभी वस्त्र और वस्तुओं के नहीं, संबंधों के व्यापार-स्थल थे। मुख्य सड़क के किनारे बँधी बैलगाड़ियाँ, दूर चबूतरे पर बैठी स्त्रियों की साखी-गोष्ठी, धान की बासमती गंध, या नदी पर पसरी चाँदनी। इन सबने मिलकर ही तो मेले को वह ‘लोक-गंध’ दी थी, जो शहरी आयोजनों में कभी संभव नहीं।
सोनपुर के मेले में व्यापार की हाँक और भक्ति की पुकार एक ही छाँव में सांस लेती थी। अशोक से लेकर आज तक, इस मेले ने आर्थिकता को भी सांस्कृतिक पर्व जैसा स्वीकार किया है। यहाँ हर वस्तु में समय की कसक झलक जाती है। मिट्टी के घड़े में मातृत्व, लकड़ी के हल में पुरखों की मेहनत, और छोटी-सी गुड़िया में बचपन की मुस्कान।
दरअसल लोकगीतों के भीतर जो इतिहास की धुनें हैं, वे समय के पार जाती हैं। यही सोनपुर का मेला है। इतिहास पार, स्मृति पार, जीवन के सबसे विराट सत्यों के पास।
हरिहरनाथ मंदिर की घंटी मनुष्य के अंत:करण के द्वंद्व को विशेष अर्थ देती है। वह घड़ी जब कोई वहाँ सिर नवाता है, वह सांस्कृतिक अनुष्ठान से कहीं बड़ा, अपने भीतर के द्वंद्वों का समर्पण है। जैसे हमारी सभ्यता ने बाह्य औपचारिकताओं के भीतर आंतरिक साधना की राह बनाई, वैसे ही मेले में भी वह संयम, वह संपूर्णता है। जहाँ व्यक्ति पल भर को ‘समाज’ हो जाता है।
और जब समय की छाया बदलती है… शहरीकरण, वितरण, तकनीक की बाढ़, तो वही मेला मौन हो जाता है। कहीं ध्वनि कम, दृश्यता अधिक। संवाद की जगह ‘इवेंट’ आ जाते हैं, और सामूहिकता के स्थान पर एकाकीपन का छायापथ। लेकिन, इस बदलते समय में भी, सोनपुर के किसी गुमनाम तंबू में कोई बूढ़ा कुम्हार मिट्टी को थामे जानता है, ‘लोक’ नष्ट नहीं होता, वह केवल पुनरावृत्त होता है।
वस्तुतः मेला महज़ स्थल नहीं, जीवित प्रतीक है। इसमें समूची भारतीय चेतना बड़े सहज भाव से अपना संस्कार, अपना प्रेम और अपना रुदन सब छोड़ आती है। गंडक की थरथराती लहरें, कार्तिक की चाँदनी, या किसी नौजवान की बिरहा, हर कहीं भारत का जीवित ‘मन’ झंकृत होता है।
सोनपुर के मेला अब भी साँस लेता है। वहाँ की हवा में अब भी कार्तिक की चाँदनी है, जो भोजपुरिया गीतों की उनींदी पंक्तियों से लिपटी चलती है। ‘सोनपुर के मेलवा में धनिया हेरइली…।’ यह कोई प्रेमगीत मात्र नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक गवाही है कि मनुष्य अब भी ढूँढ़ रहा है, किसी धनिया को, किसी सुगबुगाहट को, जिससे उसका युग, उसका घर, उसका मन फिर जुड़ सके।
आज भले ही वह सिलसिला क्षीण लगे, लेकिन महत्त्व इस बात का है कि क्या हम आज भी अपनी स्मृति के भीतर वह लोकमेल खोज सकते हैं? क्या समाज अपनी सामूहिकता की पहचान को डिजिटल धूल से उबार सकता है?
जवाब सोनपुर की आबोहवा में है। भारत, जिसके जीवन का मूल उत्सव है, वह अब भी फेरीवाले की आवाज़, हरिहरनाथ की घंटी, और कुम्हार के हाथों में गूंजता है। माटी को कभी कोई युग नष्ट नहीं कर सकता, वह सूरज की तरह हर युग में और उजागर होकर सामने आती है।
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