क्या 2029 एक नई व्यवस्था का शुरुआती-बिंदु साबित हो सकता है?

क्या 2029 एक नई व्यवस्था का शुरुआती-बिंदु साबित हो सकता है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में बनी समिति ने ‘एक देश, एक चुनाव’ पर अपनी सिफारिशें सौंप दी हैं, जो मेरी निगाह में उचित हैं। यह भारत की जरूरत भी है। साल 1982-83 में खुद चुनाव आयोग ने पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने की सिफारिश की थी। बतौर मुख्य चुनाव आयुक्त मैंने भी महूसस किया था कि आयोग किस कदर काम के दबाव में रहता है। उसे मतदान-नतीजों पर दायर याचिकाओं के जवाब देने के साथ-साथ राज्यसभा, राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति, विधान परिषद् आदि चुनाव भी संचालित करने होते हैं।

फिर हर साल चार-पांच विधानसभाओं के लिए भी मत डाले जाते हैं। लोकसभा के चुनाव अलग से होते ही हैं। इसीलिए चुनाव आयोग की एक राय रही है कि कम से कम लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होने चाहिए। अभी बेल्जियम, स्वीडन और दक्षिण अफ्रीका में राष्ट्रीय व स्थानीय स्तर के चुनाव एक साथ होते हैं। अगर अपने यहां भी इस पर सहमति बनती है, तो भारत इस परिवार का चौथा सदस्य बन जाएगा।

बहरहाल, कोविंद समिति ने सिफारिश की है कि लोकसभा व विधानसभा के चुनाव एक साथ कराए जाएं, और उसके अगले 100 दिनों के भीतर स्थानीय निकाय के चुनाव होने चाहिए। इसके लिए आयोग को जरूरी ‘लॉजिस्टिक’ व्यवस्था, यानी ईवीएम-वीवीपैट मशीनों की खरीद, मतदान कर्मियों व सुरक्षाकर्मियों की तैनाती और अन्य आवश्यक उपाय भी करने होंगे। ये व्यावहारिक सिफारिशें हैं। बस, इसके लिए पहले व्यापक राजनीतिक सहमति बनानी होगी। सियासी दलों में यह आशंका बिल्कुल नहीं होनी चाहिए कि किसी खास एजेंडे के तहत ऐसा किया जा रहा है। अगर संविधान में जरूरी संशोधन हो जाएंगे, तो आगे की प्रक्रिया आसान हो जाएगी। बेशक, सभी दल इस पर सहमत नहीं होंगे, लेकिन अधिकांश पार्टियों को साथ लेकर चलने में ही भलाई है।

हालांकि, इसे अदालत में भी चुनौती दी जा सकती है। न्यायिक समीक्षा की व्यवस्था हमारे लोकतंत्र को समृद्ध ही बनाती है। मगर संभावना यही है कि ऐसी याचिकाएं खारिज हो जाएंगी। इसकी वजह यह है कि भारत के शुरुआती चार चुनाव (1952, 1957, 1962 और 1967) इसी तर्ज पर हो चुके हैं। लिहाजा, अभी किसी नई व्यवस्था की सिफारिश नहीं की गई है या कोई अनुचित काम नहीं हो रहा। वैसे भी, सियासी दलों को इससे फायदा ही होगा।

अभी पूरे पांच साल सत्ता पक्ष और विपक्ष में नूरा-कुश्ती होती रहती है। सरकार बचाने और गिराने में दोनों पक्ष तमाम तरह के उपाय करते रहते हैं। नतीजतन, माननीयों को सदन में जरूरी बहस करने का पर्याप्त समय नहीं मिल पाता। अब विधेयकों पर चर्चा कम होती है, और ध्वनिमत से उनका पारित होना आम बात हो गई है। विकास कार्यों में लगने वाला ज्यादातर समय चुनावी रैलियों में बर्बाद होने लगा है। लिहाजा, एक साथ चुनाव होने के बाद इन सबसे पार पाना संभव हो सकेगा।

कहा यह भी जा रहा है कि इससे चुनाव-खर्च में कमी आएगी। हालांकि, यह कोई बड़ा मसला नहीं है। असल में, किसी चुनाव-खर्च के दो हिस्से होते हैं- एक, राजनीतिक दलों के खर्च, दूसरा, चुनाव प्रबंधन का खर्च। आकलन है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में सियासी दलों ने तकरीबन 60 हजार करोड़ रुपये खर्च किए थे। एक साथ चुनाव होने पर भी इसमें कमी होने की बहुत संभावना नहीं दिखती, क्योंकि जिनके पास पैसे हैं, वे खर्च करेंगे ही। रही बात चुनाव प्रबंधन की, तो पूरे विश्व में सबसे सस्ता चुनाव भारत ही कराता है। अपने देश में चुनाव के प्रबंधन में प्रति वोट एक डॉलर का खर्च आता है, जबकि इसमें ‘लॉजिस्टिक’ खर्च भी शामिल है। पाकिस्तान के हालिया चुनाव में यह खर्च 1.76 डॉलर प्रति वोट था, जबकि दक्षिण अफ्रीका 25 डॉलर का खर्च वहन करता है। आंकड़े यही हैं कि ज्यादातर देश दो डॉलर से लेकर 25 डॉलर तक खर्च करते हैं। ऐसे में, एक साथ चुनाव कराने से हम यदि कुछ रकम और बचा लेंगे, तो वह बहुत मायने नहीं रखेगा। वैसे भी, जहां चुनाव पर सालाना अरबों रुपये खर्च होते हों, वहां कुछ करोड़ रुपये की बचत का प्रतीकात्मक महत्व ही ज्यादा है।

हां, ईवीएम-वीवीपैट मशीनों को बनाने में वक्त लग सकता है। अभी चुनाव आयोग के पास 20 लाख ईवीएम-वीवीपैट मशीनें हैं। साल 2024 के आम चुनाव में अनुमानत: 15 लाख मशीनों की जरूरत पड़ेगी, जबकि शेष राज्य विधानसभा चुनावों में इस्तेमाल होंगी। अगर पूरे देश में एक साथ चुनाव कराए जाएं, तो लगभग 40 लाख ईवीएम-वीवीपैट मशीनों की दरकार होगी। चूंकि देश में सिर्फ दो कंपनियां (भारत इलेक्ट्रॉनिक और इलेक्ट्रॉनिक्स कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड) ईवीएम-वीवीपैट मशीनें बनाती हैं और इनकी क्षमता प्रतिवर्ष पांच से छह लाख मशीनें बनाने की है, तो शेष 20 लाख ईवीएम-वीवीपैट मशीनें बनाने में इनको करीब तीन-साढ़े तीन साल का वक्त लग सकता है। फिर इसके लिए पूंजी की व्यवस्था भी एक मसला है, क्योंकि एक ईवीएम के निर्माण पर 32 हजार रुपये का खर्च आता है।

यहां यह आशंका नहीं होनी चाहिए कि ईवीएम-निर्माण में गड़बड़ी भी हो सकती है। हर मशीन के निर्माण की वीडियो रिकॉर्डिंग की जाती है, जो स्थायी तौर पर सुरक्षित रखी जाती है। यदि किसी ईवीएम में आपराधिक गड़बड़ी पकड़ में आती है, तो अपराधी तक आसानी से पहुंचा जा सकता है।

स्पष्ट है, चुनाव आयोग पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने में सक्षम है। कर्मियों की कमी कोई मसला नहीं है। हमारे संविधान-निर्माताओं ने शुरुआत में ही इसकी मुकम्मल व्यवस्था कर दी है। भले ही, तब एक चुनाव आयुक्त और कुछ कर्मियों के साथ चुनाव आयोग की परिकल्पना की गई थी, जो अब बढ़ते-बढ़ते तीन चुनाव आयुक्त और करीब 350 कर्मियों का एक कुनबा बन चुका है, लेकिन भारतीय संविधान ने चुनाव आयोग को यह अधिकार दे रखा है कि वह जरूरत पड़ने पर जितने चाहे, उतने केंद्र व राज्य कर्मियों की सेवाएं ले सकता है, और वे उसे देने से इनकार भी नहीं कर सकते। जाहिर है, भारत में एक साथ चुनाव कराने में कोई अड़चन नहीं है। अगर इस पर व्यापक राजनीतिक सहमति बनती है, तो साल 2029 एक नई व्यवस्था का शुरुआती-बिंदु साबित हो सकता है।

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