Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the newsmatic domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/imagequo/domains/shrinaradmedia.com/public_html/wp-includes/functions.php on line 6121
उत्तर और दक्षिण भारत के बीच विभाजन करना निंदनीय है - श्रीनारद मीडिया

उत्तर और दक्षिण भारत के बीच विभाजन करना निंदनीय है

उत्तर और दक्षिण भारत के बीच विभाजन करना निंदनीय है

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

लंदन से प्रकाशित ‘द इकोनॉमिस्ट’ पत्रिका ने एक शरारती लेख के जरिये उत्तर और दक्षिण भारत के बीच विभाजन की नयी परिभाषा गढ़ने की कोशिश की है. पत्रिका यह दावा करने की कोशिश करती है कि दक्षिण भारतीय राज्य आर्थिक दृष्टि से शेष भारत से अलग हैं क्योंकि भारत की केवल 20 प्रतिशत आबादी पांच दक्षिणी राज्यों (आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और तेलंगाना) में रहती है, लेकिन इन्हें कुल विदेशी निवेश का 35 प्रतिशत प्राप्त होता है.

इन राज्यों ने देश के अन्य हिस्सों की तुलना में अधिक विकास किया है और जहां 1993 में ये राज्य देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 24 प्रतिशत का योगदान करते थे, वहीं अब यह 31 प्रतिशत हो गया है. दक्षिण में 46 प्रतिशत टेक यूनिकॉर्न हैं और भारत का 46 प्रतिशत इलेक्ट्रॉनिक्स निर्यात इन्हीं पांच राज्यों से होता है. पत्रिका यह भी लिखती है कि 66 फीसदी आइटी सेवाओं का निर्यात भी दक्षिणी राज्यों से होता है. कुछ एजेंडाधर्मी लोगों को छोड़, सारा विश्व जानता है कि उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक भारत एक है.

इस उपमहाद्वीप में रहने वाले लोग विविध धर्मों, जातियों, भाषाओं, क्षेत्रों, वेशभूषा और खानपान के बावजूद स्वयं को भारतीय मानते हैं. यह सच है कि भारत में अलग-अलग क्षेत्रों पर अलग-अलग समय में अलग-अलग शासकों का शासन था, लेकिन भारत के सभी लोगों के बीच एक अटूट संबंध बना रहा. देश के विभिन्न हिस्सों में स्थित हमारे ज्योतिर्लिंग, तीर्थ और धाम इस बात के गवाह हैं कि सभी भारतीय पूरे राष्ट्र को अपना राष्ट्र मानते रहे हैं और विविधताएं कभी भी इसमें बाधक नहीं बनीं.

अफसोस की बात है कि विदेशी शासन के दौरान ब्रिटिश सरकार द्वारा ऐसा साहित्य रचा गया और जानबूझकर इतिहास लेखन के माध्यम से झूठी कहानियां गढ़ी गयीं, जिससे दक्षिण भारत के लोगों के मन में उत्तर भारतीयों के खिलाफ जहर भर गया. झूठा इतिहास रचा गया कि आर्य बाहर से आये थे और उनके आक्रमण से द्रविड़ आहत होकर दक्षिण की ओर जाने को मजबूर हुए. ऐसी स्थिति में हिंदी भाषा के प्रति शत्रुता को दक्षिणी राज्यों, विशेषकर तमिलनाडु, में बढ़ावा दिया गया.

कहा जाता है कि इस झूठी कहानी की शुरुआत एक जर्मन प्राच्यविद और भाषाशास्त्री ने की थी. आज प्रचुर मात्रा में वैज्ञानिक प्रमाण मौजूद हैं, जो साबित करते हैं कि आर्य आक्रमण सिद्धांत मिथक, मनगढ़ंत और काल्पनिक है. फिर भी भारत के तेज विकास से ईर्ष्या करने वाले पश्चिमी देशों द्वारा यह एजेंडा चलाया जा रहा है. दक्षिण में हुए विकास का सहारा लेकर पत्रिका ने शरारतपूर्ण तरीके से इस मुद्दे को राजनीति से जोड़ा है और कहा है कि सत्तारूढ़ भाजपा के पास दक्षिणी राज्यों में मजबूत आधार नहीं है.

पत्रिका का तर्क है कि इसलिए यह कहा जा सकता है कि वर्तमान सरकार के पास पूरे देश का जनादेश नहीं है. गौरतलब है कि जिस ब्रिटेन में ‘द इकोनॉमिस्ट’ प्रकाशित होती है, वहां अब तक किसी भी प्रधानमंत्री को पूरे देश से समान जनादेश नहीं मिला है. क्या इसका मतलब यह है कि प्रधानमंत्री के पास पूरे देश का जनादेश नहीं है? दुनियाभर के लोकतंत्र के इतिहास में ऐसे बहुत कम उदाहरण हैं, जब सभी क्षेत्रों से समान रूप से बहुमत वोट प्राप्त कर सरकार बनी हो.

इसी तरह दक्षिण भारत के कुछ नेता भी ऐसे तर्क देकर अलगाववादी राजनीति को बढ़ावा दे रहे हैं. हम जानते हैं कि कुछ भ्रष्ट और अयोग्य नेताओं के कारण कई राज्यों का विकास बाधित हुआ, जिनमें दक्षिणी राज्य भी शामिल थे. पूर्वोत्तर के कई राज्य पूर्ववर्ती केंद्र सरकार की उपेक्षा के शिकार रहे हैं, लेकिन जम्मू-कश्मीर जैसे अनेक राज्यों को जनसंख्या के अनुपात से अधिक संसाधन मिलते रहे. हमें यह भी समझना होगा कि हमारे सभी राज्यों का विकास एक-दूसरे के सहयोग से ही हो सकता है.

जहां तक विकास का सवाल है, सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति आय वाले दस राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में से केवल दो दक्षिण से हैं और वह भी पांचवें और छठे स्थान पर हैं. इसकी वजह आईटी क्षेत्र है. जैसे खाद्यान्न उपलब्ध कराने में उत्तरी राज्यों का महत्वपूर्ण योगदान है, वैसे ही औद्योगिक उत्पादन, विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक और आईटी उत्पाद, मुहैया कराने में दक्षिणी राज्यों का बड़ा योगदान है. इस प्रकार भारत एक परिवार की तरह है और सभी राज्य इसके सदस्य हैं. परिवार में कोई छोटा या बड़ा नहीं होता, इसमें अमीर-गरीब का कोई विचार नहीं है. जरूरत इस बात की है कि सब मिलकर काम करें और भारत को समृद्ध बनायें. इसके अलावा, हम ‘वसुधैव कुटुंबकम’ यानी संपूर्ण पृथ्वी को एक परिवार मानते हैं.

राजनीतिक उद्देश्यों वाले लोगों ने अब दक्षिणी राज्यों को कर धन के हस्तांतरण में भेदभाव का मुद्दा उठाकर उत्तर-दक्षिण विभाजन को एक और आयाम दे दिया है. कहा जा रहा है कि दक्षिणी राज्यों को केंद्रीय करों से उनके वैध हिस्से से वंचित किया गया है. उल्लेखनीय है कि कर हिस्सेदारी वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर तय की जाती है.

पंद्रहवें वित्त आयोग की कार्यवाही के दौरान इन राज्यों ने केंद्र सरकार के समक्ष शिकायत व्यक्त की, जिसके अनुसार वित्त आयोग को पिछले आयोग द्वारा उपयोग की जाने वाली जनसंख्या को 1971 के बजाय 2011 की जनगणना के अनुसार उपयोग करने का निर्देश दिया गया था. आयोग ने जनसांख्यिकीय प्रदर्शन यानी जनसंख्या नियंत्रण को भी महत्व दिया. दक्षिणी राज्यों में धीमी जनसंख्या वृद्धि वहां की शिक्षा और औद्योगिक विकास के कारण थी, पर अधिकतर दक्षिणी राज्य जनसांख्यिकीय लाभांश को जनसंख्या नियंत्रण द्वारा पार कर चुके हैं और प्रवासी श्रमिकों पर उनकी निर्भरता लगातार बढ़ रही है, जो आपसी सहयोग के महत्व को दर्शाता है.

केंद्रीय कर हस्तांतरण में आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल की हिस्सेदारी पिछले वित्त आयोग की तुलना में 15वें वित्त आयोग की सिफारिशों में कमोबेश वही रही, जबकि कर्नाटक की हिस्सेदारी 4.71 प्रतिशत से घटकर 3.64 प्रतिशत और केरल की हिस्सेदारी 2.5 प्रतिशत से घटकर 1.92 प्रतिशत हो गयी. लेकिन केंद्रीय राजस्व में हिस्सेदारी के अलावा, इन राज्यों को महत्वपूर्ण राजस्व घाटा अनुदान भी दिया गया है.

इसलिए, तथ्य वित्त आयोग के कथित पूर्वाग्रह को साबित नहीं करते. राष्ट्रीय एकता और क्षेत्रीय सद्भाव के मुद्दों पर हमें अलगाववादी बयानों से बचना चाहिए क्योंकि इससे राष्ट्रीय एकता और जन कल्याण पर प्रभाव पड़ सकता है. अलगाववादी एजेंडे में शामिल अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों और मीडिया से भी सख्ती से निपटा जाना चाहिए.

Leave a Reply

error: Content is protected !!