क्या आप सच्चिदानंद सिन्हा को जानते हैं?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

मुझे बिहार की कुछ चुनिंदा विभूतियों के प्रति अतीव सम्मान है । उनमें एक हैं सच्चिदानंद सिन्हा । संभव है आप उन्हें जानते हों ; नहीं भी जानते हों । मुझे अधिक विश्वास है कि नयी पीढ़ी उनके बारे में कुछ नहीं जानती । यह मेरे लिए अत्यंत पीड़ादायक है । परसों मैंने चुपचाप छज्जूबाग स्थित सिन्हा लाइब्रेरी में जाकर कुछ समय बिताए ।जीर्ण -शीर्ण स्थिति देख कर मन क्षुब्ध हुआ । आज़ाद भारत की हुकूमतें आई और गईं, सिन्हा लाइब्रेरी की हालत निरंतर बद से बदतर होती चली गई ।
बिहार के नेताओं और कर्ताओं को गुंडों -शोहदों के महिमामंडन से फुर्सत मिले तब तो !
नयी पीढ़ी को पहले पता तो हो कि सच्चिदानंद सिन्हा थे कौन?
डॉ सच्चिदानंद सिन्हा का जन्म 10 नवम्बर को 1871 में मौजूदा बक्सर जिले के कोरान सराय के पास मोरार गाँव में हुआ था , जहाँ उनके पिता की छोटी -सी ज़मींदारी थी । उन्होंने पटना विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की और फिर लंदन जाकर बैरिस्टर बने । वहाँ उनके शिक्षकों में सुप्रसिद्ध भारतविद मैक्स मूलर भी थे , जिन्होंने इन्हें अपना नाम शुद्ध लिखना सिखाया । सिन्हा अपना नाम अशुद्ध लिखा करते थे ।
इसकी चर्चा उन्होंने अपने संस्मरण में की है । भारत लौटने पर उन्होंने कोलकाता , इलाहाबाद और पटना में वकालत की. राजनैतिक तौर पर उन्होंने बिहार को अलग प्रान्त बनाने में केंद्रीय भूमिका निभाई और सामाजिक स्तर पर बिहार में रेनेसां अथवा नवजागरण का सूत्रपात किया । यह उनके प्रयासों का ही नतीजा था कि बिहार 1912 में बंगाल से पृथक प्रान्त के रूप में अस्तित्व में आया ।
सिन्हा साहब ने ही इस तथ्य को समझा था कि बिहार जैसे पिछड़े इलाके दोहरा औपनिवेशिक संकट झेल रहे हैं । पहला तो ब्रिटिश उपनिवेशवाद था और दूसरा बंगाली उपनिवेशवाद. यह बंगला उपनिवेशवाद प्रत्यक्ष सीने पर सवार था । बिहार का नागरिक जीवन बंगालियों की गिरफ्त में था । हर जगह डाक्टर ,वकील ,प्रोफ़ेसर बंगाली ही होते थे । वे बिहारियों से भरपूर नफरत भी करते थे । रेलवे के विस्तार के साथ बंगालियों का भी अखिल भारतीय विस्तार हो गया ।
जात-पात में उलझे सत्तूखोर बिहारी केवल कमाना- खाना जानते थे । भोन्दू भाव न जाने, पेट भरे सो काम । उनका एक बहुत छोटा हिस्सा ही शहरी हुआ था , जिसमें मुख्यतः अशरफ़ मुसलमान और श्रीवास्तव कायस्थ थे । ये लोग भी हद दर्जे के काहिल थे । पटना से न कोई अखबार निकलता था , न यहाँ थियेटर की कोई परंपरा थी ।
साहित्य -संस्कृति के क्षेत्र में भी बिहारियों का पढ़ा -लिखा तबका बंगालियों का पिछलग्गू था. उन्होंने 1894 में बिहार टाइम्स अख़बार का प्रकाशन शुरू किया. आगे चल कर उन्होंने इलाहबाद की कायस्थ समाचार पत्रिका को खरीद लिया और उसे हिंदुस्तान रिव्यू बना दिया । 1911 में अपने साथी सर अली इमाम से मिल कर इन्होने केंद्रीय विधान परिषद् में बिहार का मामला रखने केलिए उत्साहित किया ।


