क्या भारत में चिकित्सा संबंधी शिक्षा में सुधार की आवश्यकता है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

यूक्रेन में उत्पन्न संकट और इसके परिणामस्वरूप मेडिकल छात्रों को वहाँ से सुरक्षित वापस निकालने, आरक्षण से संबंधित मुकदमेबाज़ी के कारण स्नातकोत्तर काउंसलिंग (Post-Graduate Counselling) में देरी तथा तमिलनाडु राज्य द्वारा NEET परीक्षा से बाहर होने हेतु कानून बनाने के कारण भारत की चिकित्सा शिक्षा प्रणाली ने अत्यधिक प्रतिकूल रूप से ध्यान आकर्षित किया है। इस बात पर गौर करने की आवश्यकता है कि व्यवस्था में क्या कमी है और स्थिति से निपटने हेतु क्या पर्याप्त उपाय किये जाने की ज़रूरत है।

भारत में चिकित्सा शिक्षा की समस्याएँ

  • मांग-आपूर्ति में असंतुलन: जनसंख्या मानदंडों के मामले में एक गंभीर समस्या मांग-आपूर्ति में व्याप्त असंतुलन की स्थिति है। निजी कॉलेजों में इन सीटों की कीमत प्रति वर्ष 15-30 लाख रुपए (छात्रावास खर्च और अध्ययन सामग्री शामिल नहीं) के बीच है।
    • यह राशि अधिकांश भारतीय जितना खर्च कर सकते हैं, उससे कहीं अधिक है। गुणवत्ता पर टिप्पणी करना मुश्किल है क्योंकि इसका कोई निश्चित मानदंड नहीं है। हालांँकि निजी-सार्वजनिक विभाजन के बावजूद अधिकांश मेडिकल कॉलेजों में यह अत्यधिक परिवर्तनशील और प्रतिकूल है।
  • कुशल संकाय/फैकल्टी का मुद्दा: नए मेडिकल कॉलेज खोलने की सरकार की पहल गंभीर रूप से फैकल्टी/संकाय के अभाव से प्रभावित है। सबसे निचले स्तर को छोड़कर, जहांँ कि नए प्रवेशकर्त्ता आते हैं, अन्य सभी स्तरों पर नए कॉलेजों द्वारा मौजूदा मेडिकल कॉलेज के शिक्षकों की ही भर्ती की जाती है। शैक्षणिक गुणवत्ता एक गंभीर चिंता का विषय बनी हुई है।
    • मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (MCI) ने भूतपूर्व फैकल्टी और भ्रष्टाचार की पहले की कई खामियों को दूर करने की कोशिश की। इसने संकाय की अकादमिक कठोरता में सुधार के लिये पदोन्नति हेतु आवश्यक ‘प्रकाशनों’ की शुरुआत की है लेकिन इसके परिणामस्वरूप संदिग्ध गुणवत्ता वाली पत्रिकाओं की भरमार हो गई है।
  • कम डॉक्टर-रोगी अनुपात: भारत में 11,528 लोगों पर एक सरकारी डॉक्टर और 483 लोगों पर एक नर्स है, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा अनुशंसित 1:1000 से काफी कम है।
  • पुराना पाठ्यक्रम और शिक्षण शैली: चिकित्सा क्षेत्र में नित नए आयाम स्थापित हो रहे हैं, लेकिन भारत में चिकित्सा अध्ययन पाठ्यक्रम को तद्नुसार अपडेट नहीं किया जाता है।
  • सामाजिक जवाबदेही का अभाव: भारतीय मेडिकल छात्र ऐसा प्रशिक्षण प्राप्त नहीं करते हैं, जो उन्हें स्वास्थ्य चिकित्सकों के रूप में सामाजिक जवाबदेही प्रदान करता हो।
  • निजी मेडिकल कॉलेजों के साथ समस्याएँ: 1990 के दशक में कानून में बदलाव ने निजी स्कूल खोलना आसान बना दिया और देश में ऐसे कई मेडिकल संस्थान उभरे, जो व्यवसाइयों और राजनेताओं द्वारा वित्तपोषित थे, जिन्हें मेडिकल स्कूल चलाने का कोई अनुभव नहीं था। इसने चिकित्सा शिक्षा का काफी हद तक व्यावसायीकरण कर दिया।
  • चिकित्सा शिक्षा में भ्रष्टाचार: चिकित्सा शिक्षा प्रणाली में कपटपूर्ण व्यवहार और बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार जैसे फर्जी- डिग्री, रिश्वत और दान, प्रॉक्सी संकाय आदि एक बड़ी समस्या है।

आवश्यक सुधार

  • मेडिकल स्कूल स्थापित करने और सीटों की सही संख्या के लिये अनुमति देने हेतु मौजूदा दिशा-निर्देशों पर फिर से विचार करने की सख्त ज़रूरत है।
  • प्रैक्टिस करने वाले चिकित्सकों को शिक्षण विशेषाधिकार देना और ई-लर्निंग टूल की अनुमति देना पूरे सिस्टम में गुणवत्तापूर्ण शिक्षकों की कमी को दूर करेगा। साथ ही इन सुधारों से शिक्षण की गुणवत्ता से समझौता किये बिना मौजूदा चिकित्सा सीटों को दोगुना किया जा सकता है।
  • सतत् शिक्षण प्रणालियों पर आधारित आवधिक पुन: प्रमाणन परिवर्तन की तीव्र गति के साथ बने रहने के लिये आवश्यक हो सकता है।
  • छात्रों को अपने बुनियादी प्रबंधन, संचार एवं नेतृत्व कौशल में सुधार करने की आवश्यकता है।
  • डॉक्टरों के रूप में उनकी सामाजिक प्रासंगिकता को ध्यान में रखते हुए उन्हें प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है।
  • कक्षाओं में विषयों का एकीकरण, नवीन शिक्षण विधियों तथा अधिक प्रचलित प्रौद्योगिकी के उपयोग की आवश्यकता है।
  • कॉलेजों में चिकित्सा अनुसंधान और नैदानिक कौशल पर कार्य करने की आवश्यकता है।

उठाए जाने वाले कदम 

  • सीटों को बढ़ना: कई संस्थानों ने निजी-सार्वजनिक भागीदारी मॉडल का उपयोग कर ज़िला अस्पतालों को मेडिकल कॉलेजों में परिवर्तित करके सीटों में वृद्धि का प्रस्ताव रखा है। नीति आयोग इसी दिशा में अग्रसर है।
    • हालाँकि सरकार को इन विचारो को लागू करने से पहले एक कार्यात्मक नियामक ढाँचा तथा एक उचित सार्वजनिक-निजी मॉडल जो निजी क्षेत्र के साथ-साथ देश की ज़रूरतों को पूरा करता हो, को मज़बूत करने की आवश्यकता है।
    • मुख्यतः राजनीतिक-निजी क्षेत्र के गठजोड़ के कारण हम बुरी तरह विफल रहे हैं।
  • कॉलेज फीस को नियंत्रित करना: नेशनल मेडिकल काउंसिल (National Medical Council- NMC) द्वारा कॉलेज फीस को विनियमित करने के हालिया प्रयासों का मेडिकल कॉलेजों द्वारा विरोध किया जा रहा है। सरकार को निजी क्षेत्र में भी चिकित्सा शिक्षा पर सब्सिडी देने या वंचित छात्रों के लिये चिकित्सा शिक्षा के वित्तपोषण के वैकल्पिक तरीकों पर गंभीरता से विचार करना चाहिये।
  • नियमित गुणवत्ता मूल्यांकन: मेडिकल कॉलेजों का गुणवत्ता मूल्यांकन नियमित रूप से किया जाना चाहिये, साथ ही रिपोर्ट सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध कराई जानी चाहिये। NMC द्वारा सभी मेडिकल स्नातकों के लिये गुणवत्ता नियंत्रण उपाय के रूप में एक सामान्य परीक्षा का आयोजन किया जा रहा है।
  • व्यावसायिक स्वास्थ्य शिक्षा में परिवर्तनः आज की चिकित्सा शिक्षा ऐसे पेशेवरों को तैयार करने में सक्षम होनी चाहिये जो 21वीं सदी की चिकित्सा प्रणाली के अनुरूप हो। लैंसेट रिपोर्ट ‘हेल्थ प्रोफेशनल्स फॉर ए न्यू सेंचुरी: ट्रांसफॉर्मिंग हेल्थ एजुकेशन टू स्ट्रॉन्ग हेल्थ सिस्टम्स इन ए इंटरडिपेंडेंट वर्ल्ड’ (2010) स्वास्थ्य पेशेवर या व्यावसायिक शिक्षा में बदलाव के लिये प्रमुख सिफारिशों की रूपरेखा प्रदान करती है जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
  • चिकित्सा पेशेवरों के मानकों को बढ़ाने के अलावा जीवनशैली और जीवन भर की बीमारियों के साथ बढ़ती उम्र वाली आबादी की सेवा के लिये स्वास्थ्य पेशेवरों की बढ़ती कमी को पूरा करने हेतु प्रणाली को बदलने की आवश्यकता है।
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