मुझे तुम निष्प्राण मत समझो!तुम पश्चिम नहीं, पूरब के चेतन शील जीव हो।

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

प्रातः चूल्हे पर कड़ाही और मेरे उंगली का अनावृत स्पर्श हो गया। ईश्वर का धन्यवाद है कि उंगली का ही हुआ और किसी अंग का नहीं! स्पर्श से त्वचा ने अपना रंग बदल लिया,परन्तु सब ठीक है।
लेकिन मैं उसी समय मान लिया कि जलन हुआ ही नहीं,वह तो मेरे और कड़ाही के बीच स्पर्श हुआ था! उसने मुझे अपनी ताप दिखाई मै उसे अपना धैर्य दिखाया।

स्पर्श से प्रेम और गहरा हो गया,परन्तु अपने स्वभाव के अनुसार मैं कह ही दिया कि ‘यह तो तुम्हारी गर्मी नहीं, उस चूल्हे को धन्यवाद दो जिसने तुम्हारे अंदर इतने दहन को भर दिया’। तुम अपनी यौवन की मादकता में चूर थी,मैं स्पर्श कर अनुभव कर रहा था कि कोई दूसरे की आग में कितने तन्मयता के साथ अपनी सुध-बुध खो देता है। क्योंकि वह जवानी ही क्या जिसकी कोई कहानी न हो।

फिलहाल कड़ाही चूल्हे से उतरकर टुकुर-टुकुर ताक रही है,उसमें पड़ी सब्जियाँ भी निवाला बनने को तैयार है। लेकिन दूध का जला मट्ठा भी फूंक-फूंक कर पिता है। मैं बड़ी हिम्मत करके कड़ाही के पास गया और निहार कर ज्ञात करने लगा कि अभी भी वही तेवर है या कुछ नरमी आई है। इतने में मुंह ऐंठते हुए कड़ाही ने कहा बड़े अनाड़ी हो,सब समय-समय की बात होती है,एक समय मैं आग की शोला थी,अभी मैं बर्फ का गोला हूँ।

परन्तु तुम ये बताओ कि ये जो तुम्हारे अंदर बैठा है,उसकी डोर परमपिता परमेश्वर के हाथ में है अर्थात तुम आत्मा हो और परमात्मा से तुम्हारा सम्पर्क है। यही हाल मेरा भी है। आप तो पढे-लिखे है फिर यह बात क्यों कहते कि ‘कड़ाही ने जला दिया!’ मेरी तो कोई भूमिका नहीं है,मुझे तो जब चाहे, जहाँ चाहे,जिस चूल्हे पर चढ़ा दिया,मेरा धर्म है अग्नि को प्राप्त कर आहार को तैयार कर देना है।

मै तो निरीह हूँ,मेरे से इच्छा कहाँ पूछी जाती है,उससे बढ़कर मुझे तो निर्जीव समझा जाता है। परन्तु एक बात याद रखना यह पूरब की संस्कृति है,जो सभी में चेतना ढूंढती है। यह कोई पश्चिम का चलन नहीं कि जब चाहा, जिससे चाहा मन बहलाया और कूड़ेदान में डालकर सरकार के भरोसे छोड़कर आगे बढ़ गये।

खैर! छोड़ो तुम भी कैसी बातों को लेकर गम्भीर हो गये।आओ कुछ और बातें करें।
बहरहाल वह यौवन ही क्या जो अपनी मादकता पर विकल न कर दें।

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