सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए राष्ट्रपति के लिए समय सीमा तय की है

सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए राष्ट्रपति के लिए समय सीमा तय की है

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

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सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में पहली बार राष्ट्रपति के विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए समय सीमा तय कर दी है। कहा है कि राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति को विचार के लिए भेजे गए विधेयकों पर राष्ट्रपति को तीन महीने में निर्णय लेना होगा।
अगर इसमें कोई देरी होती है और राष्ट्रपति तय समय में निर्णय नहीं लेते तो इसका उचित कारण रिकार्ड किया जाएगा और संबंधित राज्य को बताया जाएगा। बिल को अनिश्चितकाल के लिए दबाकर बैठ जाने पर सर्वोच्च अदालत ने कहा है कि अनुच्छेद 201 में राष्ट्रपति के पास कोई पाकेट वीटो या पूर्ण वीटो नहीं है। अनुच्छेद 201 में शैल डिक्लेयर शब्द का इस्तेमाल किया गया है, जिसका मतलब है कि दो में से एक विकल्प को उन्हें चुनना होगा। या तो वह विधेयक को मंजूरी दें या फिर उस पर मंजूरी रोक लें।

राज्यपाल का कार्यालय लोकतांत्रिक परंपराओं के तहत करे काम

संवैधानिक योजना संवैधानिक अथारिटी को अपनी शक्तियों का मनमाने ढंग से इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं देती। सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में विधेयकों पर सहमति के बारे में राज्यपाल और राष्ट्रपति को समय सीमा के दायरे में बांध दिया है। यदि राष्ट्रपति सहमति देने में देरी करते हैं, तो संबंधित राज्य सुप्रीम कोर्ट आ सकता है। राज्यपाल के कार्यालय को लोकतांत्रिक परंपराओं के अनुसार काम करना चाहिए।

तमिलनाडु सरकार ने उठाया था मुद्दा

यह ऐतिहासिक व्यवस्था न्यायमूर्ति जेबी पार्डीवाला और आर महादेवन की पीठ ने आठ अप्रैल को तमिलनाडु सरकार की याचिका पर दिए फैसले में दी है। तमिलनाडु सरकार ने राज्यपाल आरएन रवि द्वारा लंबे समय तक 10 विधेयकों को दबा कर बैठे रहने और विधानसभा द्वारा उन विधेयकों को दोबारा पारित कर भेजे जाने पर राष्ट्रपति के विचारार्थ भेजने का मुद्दा उठाया था। सुप्रीम कोर्ट ने 414 पृष्ठ के फैसले में राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए व्यवस्था तय की है। यह फैसला शुक्रवार की देर रात सुप्रीम कोर्ट वेबसाइट पर अपलोड हुआ है।

कानून बन गए 10 विधेयक

  • फैसले में कोर्ट ने तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा रोक कर रखे गए 10 विधेयकों को राज्यपाल के समक्ष दोबारा विचार के लिए भेजने की तिथि से मंजूर घोषित किया है। यह पहला मौका है जब सर्वोच्च अदालत ने सीधे विधेयकों को मंजूर घोषित किया है। विधेयकों को राज्यपाल और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बगैर कोर्ट के आदेश से कानून की हैसियत मिली है। सुप्रीम कोर्ट ने विधेयकों को सीधे मंजूरी का फैसला संविधान के अनुच्छेद 142 में प्राप्त विशेष शक्तियों के तहत किया है।
  • सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में राज्य विधानसभा से पारित विधेयकों को राज्यपाल द्वारा विचार के लिए राष्ट्रपति को भेजे जाने और राष्ट्रपति को अनुच्छेद 201 में मंजूरी देने की प्राप्त शक्तियों की विस्तृत व्याख्या की है।
  • कोर्ट ने कहा है कि वैसे तो संविधान के अनुच्छेद 201 में राष्ट्रपति के निर्णय लेने के लिए कोई समय सीमा तय नहीं है, लेकिन फिर भी उन्हें तर्कसंगत समय में निर्णय लेना चाहिए। राष्ट्रपति को अनुच्छेद 201 में मिली शक्ति को तर्कसंगतता के सामान्य नियम से कोई छूट प्राप्त नहीं है।
  • कहा कि प्रविधान की प्रकृति, सरकारिया कमीशन, पुंछी कमीशन की रिपोर्ट व गृह मंत्रालय का चार फरवरी, 2016 को जारी मैमोरेंडम को देखते हुए राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा विचार के लिए भेजे गए विधेयक पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेना चाहिए। अगर यह तय समय सीमा पार हो जाए और देरी हो जाए तो उसके उचित कारण रिकार्ड किए जाने चाहिए और संबंधित राज्य को बताए जाने चाहिए।

राज्यपाल के पास कोई पूर्ण वीटो नहीं

कोर्ट ने फैसले में कहा है कि जब कभी राज्यपाल अनुच्छेद 200 के तहत मिली शक्ति का इस्तेमाल करते हुए किसी विधेयक को पूरी तरह असंवैधानिक होने के आधार पर रोक लेते हैं और राष्ट्रपति के विचार के लिए भेजते हैं तो राष्ट्रपति को इस संवैधानिक अदालत से गाइडेड होना चाहिए। पीठ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेदारी है कि वह कार्यपालिका और विधायिका की कार्रवाई की वैधता और संवैधानिकता तय करे। ऐसे में राष्ट्रपति को बुद्धिमानी से काम लेते हुए संविधान के अनुच्छेद 143 में सुप्रीम कोर्ट को रिफरेंस भेज कर राय लेनी चाहिए। कोर्ट ने कहा है कि राज्यपाल के पास कोई पूर्ण वीटो नहीं है और यही नियम राष्ट्रपति पर भी लागू होता है।

पहले भी उठ चुका है विधेयकों को लटकाने का मामला

वैसे तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला तमिलनाडु के मामले में आया है, जिसमें राज्यपाल द्वारा लंबे समय तक विधेयकों को दबाए रखने और दोबारा पारित होकर आने पर राष्ट्रपति को भेजे जाने का मुद्दा तमिलनाडु सरकार ने उठाया था। लेकिन, यह पहला मौका नहीं है, जबकि ऐसा हुआ हो। गुजरात कंट्रोल ऑफ टेरोरिज्म एंड आर्गनाइज्ड क्राइम एक्ट (गुजकोका) भी लंबे समय तक राष्ट्रपति के पास लंबित रहा और चौथी बार भेजे जाने पर 2019 में बिल को राष्ट्रपति की मंजूरी मिली थी। जबकि यह बिल पहली बार 2003 में राष्ट्रपति को भेजा गया था।

 

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