पूर्व जजों का आपस में ही भिड़ना गजब ‘राजनीति’ है
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
राजनीति में एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करना, समूहों का टकराना और बयानों की तलवारें चलाना कोई नई बात नहीं है। परंतु हाल के दिनों में यह परंपरा अब न्यायपालिका से जुड़े सेवानिवृत्त जजों तक पहुँच गई है। सलवा जुडूम फैसले और गृहमंत्री अमित शाह की टिप्पणियों पर प्रतिक्रिया देते हुए पूर्व जजों के दो खेमों में खुला टकराव सामने आया है। यह दृश्य असहज इसलिए है क्योंकि न्यायपालिका को सदैव राजनीति से ऊपर और निष्पक्षता का प्रतीक माना जाता रहा है। जब पूर्व जज दो समूहों में बाँटकर सार्वजनिक बयानबाज़ी करने लगते हैं, तो यह संदेश जाता है कि न्यायपालिका की गरिमा और स्वतंत्रता केवल काग़ज़ पर बची है, व्यवहार में नहीं।
यह सही है कि कोई भी व्यक्ति सेवानिवृत्ति के बाद अपने विचार रखने के लिए स्वतंत्र है। यदि कोई जज राजनीति में प्रवेश करता है, तो उसे उसी राजनीतिक धरातल पर आलोचना भी सहनी होगी। लेकिन जब बड़ी संख्या में पूर्व न्यायाधीश सार्वजनिक तौर पर बयान देकर किसी नेता या उम्मीदवार के पक्ष-विपक्ष में उतरते हैं, तो वे केवल व्यक्तियों पर असर नहीं डालते बल्कि पूरे न्यायिक समुदाय की निष्पक्षता पर संदेह खड़ा कर देते हैं।
दरअसल, समस्या इस बात की नहीं है कि कौन सही है और कौन ग़लत। असली चिंता यह है कि पूर्व जजों के समूह अब राजनीति की भाषा में एक-दूसरे से भिड़ रहे हैं। इससे न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर चोट पहुँचती है। लोकतंत्र में अदालतों का सम्मान इसलिए होता है क्योंकि लोग मानते हैं कि वह राजनीति से परे हैं। यदि यह धारणा ही टूट गई,
तो यह न केवल न्यायपालिका बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए भी घातक होगा। अब समय आ गया है कि पूर्व न्यायाधीश अपने मतभेदों को सार्वजनिक मंच पर उछालने से बचें। व्यक्तिगत राय रखने और सार्वजनिक रूप से राजनीतिक टकराव का हिस्सा बनने में अंतर है। न्यायपालिका की गरिमा बचाए रखना केवल मौजूदा जजों का नहीं, बल्कि सेवानिवृत्त जजों का भी कर्तव्य है। न्यायपालिका का सम्मान इसी में है कि वह राजनीतिक अखाड़ा न बने, बल्कि समाज के लिए नैतिक मार्गदर्शक बनी रहे।
जहां तक पूरे विवाद की बात है तो आपको बता दें कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने केरल में दिए भाषण में कहा था कि जस्टिस सुदर्शन रेड्डी ने अपने सलवा जुडूम निर्णय से नक्सलवाद को बढ़ावा दिया। अअमित शाह का दावा था कि अगर वह निर्णय नहीं दिया गया होता तो नक्सलवाद 2020 तक समाप्त हो गया होता। इस बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए सर्वोच्च न्यायालय के 18 सेवानिवृत्त न्यायाधीशों ने अमित शाह को पत्र लिखकर उनकी टिप्पणी को “दुर्भाग्यपूर्ण” बताया और नाम लेकर हमला करने से बचने की सलाह दी। उनके अनुसार यह न्यायपालिका की गरिमा के खिलाफ है।
इसके ठीक अगले दिन 56 सेवानिवृत्त न्यायाधीशों का समूह सामने आया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के चार पूर्व न्यायाधीश और पूर्व मुख्य न्यायाधीश- पी. सदाशिवम, रंजन गोगोई, एके सीकरी और एमआर शाह शामिल थे। इन न्यायाधीशों ने अपने वक्तव्य में कहा कि “न्यायिक स्वतंत्रता राजनीतिक बयानबाज़ी की ढाल नहीं बन सकती।”
बयान में कहा गया कि बार-बार कुछ पूर्व न्यायाधीश राजनीति से प्रेरित होकर बयान जारी करते हैं और न्यायपालिका को पक्षपाती दिखाते हैं। बयान में कहा गया कि यदि कोई सेवानिवृत्त न्यायाधीश राजनीति में आता है (जैसे जस्टिस रेड्डी ने विपक्ष का उपराष्ट्रपति उम्मीदवार बनकर किया), तो उसे उसी राजनीतिक क्षेत्र में जवाब देना होगा, न कि न्यायपालिका की ढाल के पीछे छिपकर।
देखा जाये तो यह प्रकरण इस बात को उजागर करता है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता और न्यायाधीशों की व्यक्तिगत राजनीतिक पसंद के बीच की रेखा धुंधली हो रही है। अमित शाह के आलोचक पूर्व जज मानते हैं कि गृहमंत्री का बयान संस्थान की गरिमा पर चोट करता है। वहीं अमित शाह के समर्थन में खड़े न्यायाधीश कहते हैं कि समस्या आलोचना में नहीं, बल्कि पूर्व न्यायाधीशों द्वारा बार-बार राजनीतिक रंग में बयान देने में है।
बहरहाल, सलवा जुडूम के फैसले को लेकर शुरू हुआ विवाद अब न्यायपालिका की छवि और स्वतंत्रता पर विमर्श का रूप ले चुका है। अमित शाह की टिप्पणी ने बहस को तेज़ किया, लेकिन उससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि पूर्व न्यायाधीश दो खेमों में बंटकर न्यायपालिका को ही राजनीतिक बहस का हिस्सा बना रहे हैं। इस पूरे घटनाक्रम से यही प्रश्न उठता है कि क्या न्यायाधीशों को राजनीति में प्रवेश करने के बाद न्यायिक स्वतंत्रता की आड़ लेनी चाहिए, या फिर उन्हें उसी राजनीतिक धरातल पर खड़ा होकर आलोचना का सामना करना चाहिए?