मिशन किसानी’ से लेकर ‘मिशन पंजाब’ का सच.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

आठ महीने से चले आ रहे किसान आंदोलन को लेकर पिछले दो सप्ताह में तीन बड़े घटनाक्रम हुए। पहला घटनाक्रम था अदाणी ग्रुप द्वारा 2017 में लुधियाना के किला रायपुर गांव में 80 एकड़ में स्थापित किए गए मल्टी माडल लाजिस्टिक्स पार्क को अचानक बंद किए जाने की आधिकारिक घोषणा और फिर इस फैसले पर किसान संगठनों समेत राज्य की सत्ताधारी कांग्रेस व तमाम विपक्षी पार्टियों का चुप्पी साध लेना। इसी क्रम में दूसरी घटना है संसद भवन परिसर की जहां शिरोमणि अकाली दल सांसद हरसिमरत कौर बादल और कांग्रेसी सांसद रवनीत बिट्टू के बीच हुई तीखी नोकझोंक जो न सिर्फ अखबारों की सुर्खियां बनी बल्कि अधिकतर न्यूज़ चैनलों के प्राइम टाइम डिबेट का भी एक मुख्य विषय बनी।

तीसरी घटना रही हरियाणा से आंदोलन में अब तक अग्रणी भूमिका निभा रहे भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष गुरनाम सिंह चढू़नी द्वारा संयुक्त किसान मोर्चा से अलग होने का एलान। अब बेशक इन तीन तीनों घटनाओं का आपस में कोई सीधा संबंध नहीं है लेकिन आंदोलन से जुड़े इन तीनों प्रसंगों में सबसे अहम और कॉमन फैक्टर यदि कुछ रहा तो वह था किसान हितों की आड़ में दिन प्रतिदिन प्रबल होती राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का इस तरह ‘सर-ए-राह’ पटाक्षेप होना।

इन घटनाओं के पीछे की कहानी या आंदोलन का भविष्य कुछ भी हो लेकिन इतना स्पष्ट है कि अब किसान हित से जुड़े मसलों पर राजनीतिक दांव पेंच हर तरह से भारी पड़ रहे हैं। अब चाहे किसान मोर्चे के नेता हों या फिर सत्ताधारी और विपक्षी दलों से जुड़े लोग, सबका एजेंडा ‘मिशन किसानी’ से बदलकर ‘मिशन पंजाब’ या ‘मिशन यूपी’ में पूर्णत: तब्दील हो गया है।

पंजाब जैसे ‘लैंड-लॉक” स्टेट में उद्योगों को आयात और निर्यात के लिए रेल और सड़क मार्ग से कार्गो उपलब्ध करवाते लॉजिस्टिक पार्क का बंद होना बहुत अच्छा सूचक नहीं है। दो दशकों से राज्य में लगातार निवेश के लिए लॉबिंग के बाद शुरू हुई इतनी बड़ी परियोजना बंद होने पर जहां किसान नेताओं ने अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी वहीं मौजूदा कैप्टन सरकार या अकाली दल के नेताओं ने आपराधिक चुप्पी साध रखी है।

विडंबना देखिए कि जिस दिन लाजिस्टिक्स पार्क बंद होने की घोषणा को अधिकतर पंजाबवासी किसान नेताओं के अड़ियल रवैये से होने वाले पहले सीधे दुष्प्रभाव से जोड़कर देख रहे थे उसी दिन पंजाब का “सबसे बड़ा हितैषी” होने का दावा करने वाले आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय कन्वीनर और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अपने निवास पर बुलाई पंजाब नेतृत्व की एक बैठक में उन्हें पार्टी का ‘झंडा और एजेंडा’ छोड़ इस आंदोलन को पंजाब और उत्तर प्रदेश में हर संभव समर्थन देकर और अधिक मजबूत करने के निर्देश दे रहे रहे थे। यह दोगलापन समझ से परे है।

यह सही है कि आने वाले 2022 विधानसभा चुनाव के लिए अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में जुटा राजनीतिक तबका इस मसले पर कुछ भी बोलकर आंदोलनरत किसानों की संभावित नाराजगी मोल लेने की स्थिति में नहीं है लेकिन लेकिन कोरा सच तो यही है कि उनकी यह चुप्पी प्रदेश के हित में कतई नहीं है। सत्तारूढ़ पार्टी के लिए तो यह किसी अपराध से कम नहीं है क्योंकि सरकार में बैठे नेताओं पर पार्टी से अधिक सूबे के हितों की नुमाइंदगी करने का जिम्मा है।

उनका यह फर्ज है कि वह केवल एक वर्ग को ना देख कर पूरे प्रदेश की चिंता करें। हर स्तर पर इस मौन का तात्कालिक परिणाम यह हुआ कि सूबे में रिलायंस द्वारा संचालित अनेकों उपक्रम जो आठ महीने से बंद पड़े हैं उनके समेत बड़े कारपोरेट घराने भी अब अपने निवेश को बिल्कुल सुरक्षित नहीं मान रहे हैं। ऐसी भावनाओं से जो नुकसान हो रहा है , उसके प्रभाव दूरगामी होंगे।

जहां तक दूसरे घटनाक्रम यानी संसद भवन के बाहर पूर्व केंद्रीय मंत्री हरसिमरत बादल और कांग्रेसी सांसद रवनीत बिट्टू के बीच हुए “वाक युद्ध” की बात है तो उस नोक झोंक की शैली ने तो एकदम स्पष्ट कर दिया कि इनके लिए किसानी से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हैं इनके बीच लगी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरी करने की दौड़। लगभग वही दौड़ जो अब सयुंक्त किसान मोर्चे के शीर्ष नेताओं में भी सरेआम देखने को मिल रही है और दो दिन पहले चढूनी द्वारा अपनी फेसबुक पर पोस्ट किए गए एक वीडियो संदेश के माध्यम से सार्वजनिक हुई।

पूरे प्रकरण में किसानी से ज्यादा फोकस में रहा चढूनी के “मिशन पंजाब” और टिकैत के “मिशन यूपी” को अंजाम तक ले जाने का मसला। अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में पंजाब से बलबीर सिंह राजेवाल जैसे कद्दावर किसान नेता को रोड़ा बनते देख चढूनी समेत राज्य के पांच किसान संगठनों ने जहां अब तक आंदोलन की अगुआई कर रहे किसान मोर्चे की गतिविधियों और फैसलों से अपने आप को तो अलग कर लिया

वहीं उन्होंने सीधे सवाल किया कि राजेवाल जैसे नेताओं की मिशन यूपी को ‘हां’ और मिशन पंजाब को ‘ना’ क्यों ? अब इस ताजे प्रकरण का पटाक्षेप कैसे होगा, होगा भी या नहीं , कुछ कहा नहीं जा सकता लेकिन इसे मात्र संयोग भी नहीं कहा जा सकता कि जिस रात दिल्ली बॉर्डर पर चढूनी पंजाब के पांच अन्य किसान संगठनों के साथ बैठक कर मोर्चे से बाहर निकलने का फैसला ले रहे थे तो उस समय बलबीर सिंह राजेवाल के गृहक्षेत्र खन्ना में सडकों और गलियों की दीवारों पर राजेवाल को पंजाब का अगला मुख्यमंत्री सुझाते असंख्य पोस्टर उकेरे जा रहे थे।

पंजाबी में छापे गए इन पोस्टरों पर राजेवाल की फोटो लगाकर लिखा गया था कि ‘ क्या आप चाहते हैं अगला सीएम बनें बलबीर सिंह राजेवाल”? मजेदार बात तो यह है कि इन पोस्टरों को लेकर चढूनी द्वारा प्रचारित मिशन पंजाब का खुल कर विरोध कर रहे संयुक्त मोर्चे के किसी भी किसान नेता का कोई बयान नहीं आया बल्कि उल्टा भारतीय किसान यूनियन (राजेवाल) के महासचिव ओंकार सिंह ने ऐसे पोस्टरों को राजेवाल की “बढ़ती लोकप्रियता और प्रशंसकों का प्यार” बताते हुए आंदोलन के पीछे छिपी इन किसान संगठनों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को ही एक बार फिर परिलक्षित किया।

ऐसे में जब अब किसान आंदोलन पर राजनीतिक जकड़न साफ़ दिख रही है, आंदोलन से जुड़े तमाम किसान नेता या राजनीतिक चेहरे अपने नफे-नुकसान को ध्यान में रख खुल कर सियासत करने लगे हैं तो जाहिर है आने वाले दिनों में आठ महीने से चले आ रहे इस आंदोलन की दिशा भी बदलेगी और किसानी की नुहार भी। बस जरूरत है आंदोलन से जुडी राजनीतिक पृष्ठभूमियों , राजनीतिक इच्छाओं और इन्हें पूरा करने में अपनाए जा रहे दाव पेंचों को समझने और सत्य की कसौटी पर परखने की। उसी पारखी नजर से जिससे कभी मशहूर शायर नादिम नदीम ने शतरंज के इन खिलाडियों को परखते हुए लिखा था :

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