महामानव बाबू लंगट सिंह,जिन्होंने मुजफ्फरपुर को पहला कॉलेज दिया

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बाबू लंगट सिंह की 111 वी पुण्य तिथि पर सादर नमन

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

श्चिम वैशाली जिले के धरहरा ग्राम के गोउनाइत मूल के भूमिहार ब्राह्मण किसान बाबू बिहारी सिंह के पुत्र के रूप में लंगट सिंह का जन्म 10 अक्टूबर सन् 1850 के अश्विन माह में हुआ। इनके दादा उजियार सिंह पढ़े-लिखे किसान थे। गाँव में कोई स्कूल नहीं होने की वजह से इनकी शिक्षा प्राइमरी तक हुई ।

लंगट सिंह की शादी 16 वर्ष में ही हो गई। लंगट सिंह के परिवार को कोई ज्यादा भूमि नहीं थी, जिस वजह से लंगट सिंह आजीविका के लिये समस्तीपुर आ गए; जहाँ समस्तीपुर-दरभंगा रेल लाइन का काम चल रहा था। वहाँ इनको रेल पटरी के बगल में टेलीफोन लाइन में लाइन मैन का काम मिल गया। रेल लाइन का काम कर रहे अंग्रेज अभियंता जेम्स विल्सन इनके काम के लग्न से प्रभावित होकर इनको मजदूरों का सुपरवाइजर बना दिया और लंगट सिंह जेम्स साहब के साथ दरभंगा में उनके आवास पर ही रहने लगे।

जेम्स साहब की पत्नी की बहन मुजफ्फरपुर रहती थी, जिसके पति विलियम विल्सन मुजफ्फरपुर के निलहे जमींदार थे। उन दिनों मुजफ्फरपुर-दरभंगा टेलीफोन से जुड़ा हुआ नहीं था, जिस वजह से जेम्स साहब की पत्नी का जरूरी पत्र लेकर लंगट सिंह पैदल मुजफ्फरपुर आये और 18 घण्टे में जवाब लेकर लौट आये। इससे जेम्स साहब की पत्नी लंगट सिंह को काफी मानने लगी और लंगट सिंह को अंग्रेजी लिखना-बोलना सिखाई।

उसने जेम्स साहब से पैरवी कर दरभंगा-नरकटियागंज रेल लाइन निर्माण में ठेका दिलवा दी और लंगट सिंह मजदूर से ठीकेदार हो गए। रेल लाइन निर्माण के क्रम में ट्राली से जाते समय लंगट सिंह की ट्राली मालगाड़ी से टकरा गयी, जिसके चलते इनका बायाँ पैर चोटग्रस्त हो गया। बहुत इलाज के बाद भी इनका पैर ठीक नहीं हुआ और ये चलने के लिए छड़ी या वैशाखी का प्रयोग करने लगे ।लेकिन लंगट सिंह ने हार नहीं मानी और न अंग्रेज जेम्स ने लंगट बाबू का साथ छोड़ा।

मजफ्फरपुर जिला परिषद और रेल की ठीकेदारी से लंगट सिंह ने काफी रुपया कमाया। गाँव में बहुत सी जमीन और जमींदारी खरीदी और अपने गाँव में भव्य मकान बनाना शुरू किया ।
दरभंगा से जेम्स साहब कलकत्ता महा नगर निगम के अभियंता बनकर कलकत्ता आ गए। लंगट बाबू रेल और कलकत्ता नगर निगम के बड़े ठीकेदार हो गए और अपनी मेहनत से अकूत धन कमाया।

कलकत्ता प्रवास के दौरान मैक डोनाल्ड बोर्डिंग हाउस के निर्माण के क्रम में लंगट सिंह का पंडित मदन मोहन मालवीय से सम्पर्क हुआ।मालवीय जी के अलावे वहाँ स्वामी दयानन्द सरस्वती,रामकृष्ण परमहंस, ईश्वरचंद विद्या सागर ,सर आशुतोष बनर्जी से सम्पर्क हुआ। इन महापुरुषों के सम्पर्क में आने के बाद लंगट सिंह का झुकाव भारतीय स्वतन्त्रतता आंदोलन की ओर हो गया।

बाबू लंगट सिंह ने मुजफ्फरपुर में भी पहला स्वदेशी तिरहुत स्टोर्स खुलवाया। 1890 के आस- पास लंगट सिंह को मुजफ्फरपुर जिला परिषद के अंदर भी बड़े-बड़े कार्यों का ठीका मिलना शुरू हो गया।

ठीके का सारा काम उनके पुत्र आनन्दा बाबू देखते थे। ठीकेदारी से बाबू लंगट सिंह और उनके पुत्र ने काफी धन कमाया और मुजफ्फरपुर का जो आज सुतापट्टी है, वहाँ से कल्याणी तक लंगट सिंह ने करीव 50 बीघा जमीन खरीदी तथा बहुत से मौजे की जमींदारी भी खरीदी।

कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन 1886
कलकत्ता प्रवास के दौरान मदन मोहन मालवीय और अन्य विद्वानों के सानिध्य में लंगट सिंह ने देश-दुनिया का ज्ञान अर्जित किया और अपना समय समाज सेवा में देने लगे और लंगट सिंह ने कांग्रेस के कलकत्ता महाधिवेशन में भाग लिया। वे एक ओजस्वी वक्ता भी थे। 1895 में मालवीय जी के अनुरोध पर लंगट सिंह भूमिहार ब्राह्मण महासभा में पहली बार बनारस में सम्मिलित हुए।

काशी नरेश की अध्यक्षता में हुई इस सभा में तमकुही नरेश, दरभंगा महाराज, हथुआ महाराज, टेकरी महाराज,माझा स्टेट सहित भूमिहर जमींदार सम्मलित हुए। महासभा में मालवीय जी के प्रयास से बनारस में हिन्दू विश्वविद्यालय खोलने का प्रस्ताव पास हुआ। सभी राजाओं ने चन्दा देने की बात कही, लेकिन जब चन्दा के रूप में लंगट सिंह ने एक लाख रुपये की अपनी बोरी रखी तो सभी चकित हो गए कि एक बैशाखी से चलनेवाला साधारण व्यक्ति इतना बड़ा चन्दा दे सकता है!

तब मालवीयजी ने लंगट सिंह का महासभा में परिचय करवाया। उक्त महासभा में लंगट सिंह को काफी सम्मान मिला। सभा में ही लंगट सिंह को मुज़फ़्फ़रपुर में भी कॉलेज खोलने का विचार आया और लंगट सिंह ने इसी उद्देश्य से मुजफ्फरपुर में भूमिहार ब्राह्मणों की सभा बुलाने का काशी नरेश से आग्रह किया, जिसे सभा ने स्वीकार किया।

1899 भूमिहार ब्राह्मण महासभा मुज़फ़्फ़रपुर

बाबू लंगट सिंह के प्रयास से जनवरी 1899 में भूमिहार ब्राह्मण सभा का मुजफ्फरपुर में अधिवेशन हुआ, जिसमें काशी नरेश महाराजा प्रभुनारायन सिंह, दरभंगा महाराज, तमकुही नरेश, हथुआ महाराज, टेकरी नरेश, माझा स्टेट के अलावे मुजफ्फरपुर के आस पास के सभी जमींदार और विद्वत् जन सम्मलित हुए।महासभा में लंगट सिंह द्वारा मुजफ्फरपुर में डिग्री कॉलेज खोलने के प्रस्ताव को महासभा द्वारा पास किया गया और कॉलेज निर्माण के लिए सभी ने चन्दा देना स्वीकार किया।

भूमिहार ब्राह्मण कॉलेजिएट स्कुल और भूमिहार ब्राह्मण कॉलेज की स्थापना

बाबू लंगट सिंह के नेतृत्व में गठित प्रबन्ध समिति के सदस्यों द्वारा 3 जुलाई 1899 को सरैयागंज में बाबू लंगट सिंह द्वारा दी गई भूमि 13 एकड़ भूखण्ड में भूमिहार ब्राह्मण कॉलेजिएट स्कूल और भूमिहार ब्राह्मण कॉलेज की नींव रखते हुए शुभारम्भ किया और 2 माह के अंदर ही छात्रों के पढ़ने के लिए कमरा तैयार हो गया। शिक्षकों की व्यवस्था कर पढ़ाई चालू हो गई । बाबू लंगट सिंह के प्रयास से सन 1900 में ही कॉलेज को प्री डिग्री कॉलेज के रूप में मान्यता मिल गई और बाद में लंगट सिंह के मित्र और सहयोगी जेम्स साहब के सहयोग से कॉलेज को डिग्री तक मान्यता मिल गई।

सन् 1906 में बाबू लंगट सिंह कॉंग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में भाग लेने गए, जहाँ उनकी मुलाकात बाबू राजेन्द्र प्रसाद से हुई और लंगट सिंह ने राजेन्द्र प्रसाद को कॉलेज में पढ़ाने के लिये राजी कर लिया और राजेंद्र प्रसाद सन् 1908 में प्रोफेसर के रूप में कॉलेज में आ गए। सन् 1909 में कलकत्ता विश्वविद्यालय का प्रतिनिधि कॉलेज निरीक्षण के लिए मुजफ्फरपुर आया और विश्वविद्यालय प्रतिनिधि ने एक ही कैम्पस मे स्कूल और कॉलेज और छोटे छोटे कमरों में छात्रों की पढ़ाई की व्यवस्था पर भड़क गया।

उसने प्रबन्ध समिति को धमकी दी कि कॉलेज के लिए अलग जमीन और भवन की व्यवस्था नहीं हुई तो कॉलेज की मान्यता खत्म हो जायेगी। इसके बाद बाबू लंगट सिंह और प्रबन्ध समिति के सदस्यों ने खबरा के जमींदार के सहयोग से दामू चक और कलमबाग चौक के बीच 22 एकड़ जमीन खरीद की और इस भूमि में 1911 से कॉलेज के लिए मकान बनना शुरू हुआ। इसी बीच 15 अप्रैल, 1912 को महामानव लंगट सिंह का स्वर्गवास हो गया।

उनकी मृत्यु के बाद लगा कि कॉलेज का काम ठप्प हो जायेगा, लेकिन लंगट बाबू के पुत्र आनन्दा बाबू ने अपने पिता द्वारा शुरू किये गए इस कॉलेज के भवन का कार्य पूरा करवाया और कॉलेज अपने नये भवन में 1915 में आ गया। सन् 1915 में सरकार ने इस कॉलेज को अपने हाथों में ले लिया और इस कॉलेज के विकास में तिरहुत कमिश्नर ग्रीयर साहव ने लंगट बाबू की मृत्यु के बाद काफी सहयोग किया, जिस बजह से कॉलेज के नाम के आगे ग्रीयर का नाम भी जोड़ा गया और कॉलेज का नाम ग्रीयर भूमिहार ब्राह्मण कॉलेज हो गया। बाद में इस कॉलेज का नाम लंगट सिंह कॉलेज हो गया और पटना विश्वविधालय के गठन के बाद लंगट सिंह कॉलेज 1917 में पटना विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हो गया ।

बाबु लंगट सिंह के सम्बन्ध में समाज में यह भ्रान्ति है कि वे अनपढ़ थे। यह सही है कि वे किसी स्कूल-कॉलेज में नहीं पढ़े। बचपन में वे सिर्फ प्राइमरी तक पढ़ना लिखना सीख सके, लेकिन कार्य के दौरान अपने स्वअध्ययन के बल पर अंग्रेजी,बंगला और हिंदी का अध्ययन किया ।यदि लंगट बाबू अनपढ़ होते तो कलकत्ता के विद्वतजन और मालवीयजी या अंग्रेज अधिकारी से उनका सम्पर्क होना मुश्किल था। बाबू लंगट सिंह को 7 दिसम्बर 1910 में हुई इलाहबाद के कॉंग्रेस अधिवेशन में मुजफ्फरपुर का प्रतिनिधि निर्वाचित किया गया। इलाहाबाद कुम्भ में धर्म संसद द्वारा बाबू लंगट सिंह को बिहार रत्न से सम्मानित किया गया। साथ ही इंग्लैंड के राजा द्वारा लंगट बाबू को बिहार का शिक्षा स्तम्भ घोषित किया गया।
* समाज सुधारक सनातन प्रेमी
बाबू लंगट सिंह सनातनी थे। समाज में प्रचलित शादी-व्याह में तिलक दहेज की प्रथा के वे विरोधी थे। गरीब किसान की लड़की की शादी में 50 रुपया उनकी ओर से सहयोग दिया जाता था। यज्ञोपवित संस्कार में 10 रुपये सहयोग देने का उन्होंने अपना नियम ही बना रखा था ।
*लंगट बाबू के पुत्र आनन्दा बाबू
आनन्दा बाबू शुरू से ही अपने पिता की ठीकेदारी का काम देखते थे। उनके पिता का अंग्रेज अधिकारी और गवर्नर जेनरल तक नाम आदर के साथ लिया जाता था और आनन्दा बाबू का भी उनसे सम्बन्ध अच्छा था। पिता की जिंदगी से ही आनन्दा बाबू कॉलेज का काम देखते आए और पिता की मृत्यु के बाद आनन्दा बाबू ने अपने पिता द्वारा शुरू किये गए कॉलेज को भव्य बनाने के उद्देश्य से अपने अंग्रेज मित्र से सम्पर्क किया और इंग्लैंड के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के वेलियोल कॉलेज के भवन के समान कॉलेज भवन बनाने के लिये प्रयास शुरू किया।

वर्तमान में जो लंगट सिंह कॉलेज का भवन है, वह 1912 में बनना शुरू हुआ जिसका उद्घाटन 22 जुलाई 1922 को राज्य के गवर्नर द्वारा किया गया और आनन्दा बाबू के प्रयास से कॉलेज को सरकार ने ले लिया। इस तरह आनन्दा बाबू ने अपने पिता द्वारा शुरू कॉलेज को पूर्णता और भव्यता प्रदान किया। आनन्दा बाबू ने अपने गाँव में एक हाई स्कूल के अलावे कई संस्था का निर्माण किया।

आनन्दा बाबू देश के स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारियों को आर्थिक सहयोग दिया करते थे। गद्दार फणीन्द्र नाथ घोष हत्या में फँसे क्रन्तिकारी बैकुंठ शुक्ल और उनके साथियों को बचाने के लिए प्रिवी कौंसिल तक क़ानूनी खर्चे किये। आज आनन्दा बाबू द्वारा समाज के लिए किया गये उनके कार्यों को लोग भुला चुके है तथा नई पीढ़ी को उनके बारे में कोई जानकारी भी नहीं है
*बाबू लंगट सिंह के पौत्र

बाबू लंगट सिंह के पौत्र बाबू दिग्विजय नारायण सिंह राजनीतिक सन्त हुए। 1930 में कॉंग्रेस से जुड़े और आजादी के बाद सन 1952 से 1980 तक कुल 28 वर्षों तक लगातार मुज़फ़्फ़रपुर और वैशाली से सांसद रहे।1980 में चुनाव हारने के बाद चुनावी राजनीति से संन्यास ले लिया। दिग्विजय बाबू ने समाज सेवा में अपने पुरखों की सम्पत्ति बेचकर लगा दिया। 1952 में बिहार विश्वविद्यालय के लिए करीव 70 बीघा जमीन दान दे दी।

बाबु लंगट सिंह के प्रपौत्रबाबू दिग्विजय नारायण सिंह के दो पुत्र अलख नारायन सिंह और प्रगति कुमार का किसी भी राजनितीक दल से या राजनीति से सम्बन्ध नहीं है। प्रगति कुमार पटने में डॉक्टर हैं। वर्ष 2020 में अलख नारायण सिंह और उनकी पत्नी नीलिमा सिंह द्वारा धरहरा दरवार के प्रवेश द्वार पर बाबू लंगट सिंह की प्रतिमा स्थापित की गई है । आप महानुभावों से अनुरोध है कि महामानव बाबू लंगट सिंह के सबन्ध में जो जानकारी है, उसे एक दूसरे से साझा करें और उनके सम्बन्ध में तथ्य पूर्ण शोध की जरूरत है ; क्योंकि उनके सम्बन्ध में मुजफ्फरपुर के समाज का कोई लिखित दस्तावेज देखने को नहीं मिलता है।

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