प्रकृति से हमारा सामंजस्य कैसा‌ हो?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

अपने दक्षिण भारत की यात्रा के क्रम में हम सभी रामेश्वरम पहुंचे जहां समुद्र का स्पर्श करते हुए इसकी विहंगम और विराट स्वरूप का भी दर्शन किया। समुद्र किनारे के इलाके बेहद खूबसूरत लगते हैं। समुद्र लाखों-करोड़ों लोगों को भोजन देता है और लाखों उससे जुड़े दूसरे कारोबारों में लगे हैं। सुनामी या समुद्री भूकंप से उठने वाली तूफ़ानी लहरों के प्रकोप साबित कर देते हैं कि कुदरत की यह देन सबसे बड़े विनाश का कारण भी बन सकती है।

प्रकृति कब अपने ही ताने-बाने को उलट कर रख देगी, कहना मुश्किल है। हम उसके बदलते मिजाज को उसका कोप कह लें या कुछ और, मगर यह अबूझ पहेली अकसर हमारे विश्वास के चीथड़े कर देती है और हमें यह अहसास करा जाती है कि हम एक कदम आगे नहीं, चार कदम पीछे हैं।
एशिया के एक बड़े हिस्से में आने वाले उस भूकंप ने कई द्वीपों को इधर-उधर खिसकाकर एशिया का नक्शा ही बदल डाला। प्रकृति ने पहले भी अपनी ही दी हुई कई अद्भुत चीजें इंसान से वापस ले ली हैं जिसकी कसक अभी तक है।

दुख जीवन को माँजता है, उसे आगे बढ़ने का हुनर सिखाता है। वह हमारे जीवन में ग्रहण लाता है, ताकि हम पूरे प्रकाश की अहमियत जान सकें और रोशनी को बचाए रखने के लिए जतन करें। इस जतन से सभ्यता और संस्कृति का निर्माण होता है।

मानवजनित उत्पत्ति की वैश्विक जलवायु और पारिस्थितिक आपात स्थितियों का सामना करते हुए, मानवता को मानव इतिहास में किसी भी समय की तुलना में अब एक सामूहिक दृष्टिकोण साझा करने की अधिक आवश्यकता है, अन्यथा हम अलग-अलग दिशाओं में चले जाएंगे। संयुक्त राष्ट्र और उसके सहयोगियों ने एक ऐसा दृष्टिकोण विकसित किया है जो इसकी महत्वाकांक्षा का वर्णन करने में उल्लेखनीय रूप से सुसंगत है।

यह लेख अपनी जीवनदायिनी दहा नदी के संदर्भ में है जिसे हम रहवासी एक नाले के रूप में प्रयोग कर रहे हैं।

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