हमारी राजनीति तथा न्यायतंत्र भारतीय भाषाओं में इंसाफ देने की ओर कदम बढ़ाए,कैसे?

हमारी राजनीति तथा न्यायतंत्र भारतीय भाषाओं में इंसाफ देने की ओर कदम बढ़ाए,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अदालतों में स्थानीय भाषाओं को प्रोत्साहन देने की जरूरत पर जोर दिया है। उन्होंने कहा है कि इससे आम नागरिकों का न्याय व्यवस्था में भरोसा बढ़ेगा और वे जुड़ाव महसूस करेंगे। दुर्भाग्य है कि देश में आज भी कोर्ट-कचहरी के कामकाज एवं फैसलों में अंग्रेजी का दखल बना हुआ है। हमारे न्यायालयों के कामकाज, उनमें की जा रही जिरह और आदेशों की भाषा के तौर पर अंग्रेजी का ही आधिपत्य बना हुआ है।

यह कम तकलीफदेह नहीं है कि संयुक्त अरब अमीरात की राजधानी अबू धाबी का न्यायिक विभाग ऐतिहासिक फैसला लेते हुए हिंदी को भी अपनी अदालतों में आधिकारिक भाषा के रूप में शामिल कर लेता है और भारत में मातृभाषा अपने सम्मान के लिए तरसती है। भारत की भाषा का यह सम्मान विदेश में भारतीयों के महत्व को रेखांकित करता है। परदेश में हिंदी की यह दखल अपने देश की न्याय व्यवस्था पर सवालिया निशान भी लगाती है।

उल्लेखनीय है कि आजादी के समय यह निर्णय लिया गया था कि 1965 तक अंग्रेजी को काम में लिया जाएगा। उसके पश्चात इसे हटा दिया जाएगा और हिंदी को राजभाषा का दर्जा दे दिया जाएगा, परंतु 1963 के राजभाषा अधिनियम के तहत हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी को भी शामिल कर लिया गया। विश्व में अनेक देश जैसे-इंग्लैंड, अमेरिका, जापान, चीन और जर्मन आदि अपनी भाषा पर गर्व महसूस करते हैं तो हम क्यों नहीं? लोकतंत्र का अर्थ लोक का, लोक के लिए, लोक के द्वारा है। न्याय का मंदिर लोक की भाषा में नहीं, अपितु विदेशी भाषा में संवाद करे तो लोकतंत्र बेमानी हो जाता है। यहां लोक और उसकी इच्छा सर्वोच्च है। उसकी इच्छा के विरुद्ध तंत्र का कोई भी स्तंभ काम करे तो वह लोक का तंत्र कैसे होगा?

विडंबना है कि आजादी के सात दशक के बाद भी भारत के नागरिकों को न्याय उनकी अपनी भाषा में उपलब्ध कराने का अधिकार नहीं दिया गया है। फ्रांस ने यह काम 1539 में किया था और ब्रिटेन ने 1362 में। हंगरी ने यही काम 1784 में किया था। हम आज तक भी नहीं कर पाए हैं। इसी कारण न्याय का पूरा तंत्र भारतीय नागरिक के लिए अनावश्यक, बहुत खर्चीली तथा बोङिाल निर्भरताएं पैदा करता है।

हिंदी के पक्ष में हमारे अंतरराष्ट्रीय स्वर तब तक कमजोर ही रहेंगे जब तक हम अपने ही देश में हिंदी को बराबर सम्मान की व्यावहारिकताएं उपलब्ध नहीं कराते। जब हमारे ही देश में न्याय के उच्च अधिष्ठानों के निर्णय अंग्रेजी में होते हैं और संविधान में प्रथमोल्लिखित राजभाषा में नहीं तो कौन हमें दुनिया में गंभीरता से लेगा? दुनिया के सभी विकसित देशों की अदालतों में उनकी अपनी भाषा चलती है। सिर्फ भारत जैसे कुछ देशों में ही विदेशी भाषा चलती है।

अब सरकार को चाहिए कि वह बिना समय गंवाए हमारे समस्त उच्च न्यायालयों को हिंदी और उनकी प्रादेशिक भाषाओं में सारे कामकाज की सुविधा दे और सर्वोच्च न्यायालय की मुख्य भाषा हिंदी को बनाया जाए और यहां भी बहुत हद तक अन्य भारतीय भाषाओं की अनुमति रहे। इसके बाद भारत की किसी भी अदालत में कोई अंग्रेजी का प्रयोग करे तो उस पर जुर्माना लगे। इसके अतिरिक्त सबसे उत्तम रास्ता यह है कि हिंदी को अष्टम अनुसूची से अलग करके राष्ट्रभाषा घोषित कर कानूनी प्रयोजनों के संप्रेषण के लिए राष्ट्रीय संपर्क भाषा बनाई जाए।

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