जातीय जनगणना भारतीय राजनीति की दशा और दिशा बदल देगा,कैसे?

जातीय जनगणना भारतीय राजनीति की दशा और दिशा बदल देगा,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

चुनावी राजनीति में जातियों का महत्व सर्वाधिक है और रहेगा।फ़िलहाल बिहार में जातीय जनगणना के परिणाम आए हैं और वे आँखें खोल देने वाले हैं। ओबीसी यानी अन्य पिछड़ा वर्ग की भागीदारी राज्य की कुल जनसंख्या में सर्वाधिक है। एससी, एसटी और ओबीसी को अगर मिला दिया जाए तो इनका आँकड़ा राज्य की कुल जनसंख्या का 84 प्रतिशत हो जाता है।

ज़ाहिर है ज़्यादातर राज्यों में स्थिति ऐसी ही होगी क्योंकि तैंतीस साल पहले मंडल आयोग की रिपोर्ट और उसके बाद समय- समय पर इस वर्ग में अन्य जातियों को शामिल करने के कारण इस समूह की जनसंख्या वैसे भी सर्वाधिक हो गई थी।

इस जातीय गणित के उभरने के बाद उनका क्या होगा जो हिंदुत्व के शेर की सवारी कर रहे हैं। दरअसल, शेर की सवारी करना आसान होता है लेकिन उसकी पीठ से उतरना मुश्किल। क्योंकि उतरते ही शेर खा जाता है। यह सच है कि जातीय गणित लोगों को सबसे ज़्यादा भाता है इसलिए जिस भाजपा के पास हिंदुत्व का कार्ड था उसके ख़िलाफ़ विपक्ष को जातिवाद का कार्ड मिल जाएगा।

जैसे अंग्रेजों ने किया था। पहले उन्होंने अपना राज क़ायम करने के लिए जातियों, सम्प्रदायों और समूहों को टुकड़ों में बाँटा और जब ये टुकड़े अलग – अलग होकर या उग्रता पर सवार होकर कुछ- कुछ या बहुत कुछ माँगने लगे तो अपना राज चलाने के लिए फिर इन्हीं टुकड़ों को ठोक- पींजकर एक करने में पूरी ताक़त लगा दी गई थी।

विपक्ष भी अब अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग को एक करने की जुगत में लग जाएगा। कहा जाएगा कि हिंदुत्व का चक्कर छोड़िए, अपनी जाति, अपने कुनबे और खुद अपने बारे में सोचिए। भाजपा को कितनी दिक़्क़त आएगी, यह अभी से तो नहीं कहा जा सकता लेकिन उसके पक्ष में यह तर्क ज़रूर है कि ये सभी जातियाँ आख़िर हैं तो हिंदुत्व का ही हिस्सा। इसलिए भाजपा का फ़ोकस हिंदुत्व और जातिवाद दोनों पर हो सकता है। संकेत यह है कि बिहार के जातीय आँकड़े सामने आते ही भाजपा भी कहने लगी है कि हमने तो जातीय जनगणना का कभी विरोध नहीं किया!

बिहार जातीय गणना 2022 के आंकड़े सरकार ने जारी किए।
बिहार जातीय गणना 2022 के आंकड़े सरकार ने जारी किए।

मामला तब गरमाएगा जब विपक्ष कहेगा कि संपूर्ण जनसंख्या में जिसका जितना हिस्सा है, उसे उसी अनुपात में आरक्षण दिया जाए। अगर यह हुआ और बात आगे बढ़ी तो मण्डल आयोग के बाद जिस तरह विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार के समय झगड़े हुए थे, अब भी होंगे। इन झगड़ों से कैसे निबटा जाएगा, यह भविष्य ही बताएगा। हालाँकि फ़िलहाल केवल बिहार राज्य में ही जातीय जनगणना पूरी हो पाई है। उडीसा, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु अभी क़तार में हैं। बाक़ी राज्यों का हिसाब- किताब आना तो बाक़ी ही है।

इतना तय है कि यह जातीय जनगणना भारतीय राजनीति की दशा और दिशा बदलकर रख देगी। हो सकता है कि जिस तरह अभी चुनाव से पहले लाड़ली बहनों को मोबाइल और पैसे बाँटे जा रहे हैं, उसी तरह तब ओबीसी या एससी/ एसटी या अलग- अलग जातियों को अलग- अलग सुविधाएँ लुटाई जाएँ। जैसे- फ़लाँ जाति की महिलाओं को गैस कनेक्शन और युवाओं को मोटर साइकल मुफ़्त में मिलेंगी या फ़लाँ जाति के लोगों का बस में आना- जाना मुफ़्त रहेगा।

निश्चित ही देखना दिलचस्प होगा कि जातीय जनगणना से निकले आँकड़े आख़िर भारतीय राजनीति में क्या गुल खिलाने वाले हैं। हालाँकि तमाम राजनीतिक पार्टियाँ अभी भी चुनावी टिकटों का बँटवारा तो जातीय गणित देखकर ही किया करती हैं। इसलिए उन्हें ज़्यादा परेशानी नहीं ही होगी। परेशान होंगे वे आम लोग जिन्हें जातीय आधार से न तो ज़्यादा मतलब है और न ही वे इस बेकार के लफड़े में पड़ना ही चाहते हैं। आख़िर वे बेचारे, जो न अनुसूचित जाति या जनजाति में आते और न ही ओबीसी में, उन्हें फिर कौन पूछेगा?

तर्क आ सकता है कि अब तक तो आप ही राज कर रहे थे। हम पिछड़े ही सही, पर जब पैदा हुए तो चेहरे तो हमारे भी बहुत नर्म और चमकदार हुआ करते थे लेकिन आपके वर्षों के राज के कारण उनपर समय से पहले झुर्रियाँ पड़ गई हैं। ख़ाली पेट रहे। मुलाजिमों की तरह सबकुछ सहा। अब पिछड़ों का राज भी देख लीजिए! हर्ज क्या है? बहरहाल, अगले लोकसभा चुनाव तक तो चीजें ज़्यादा बदलने वाली नहीं हैं क्योंकि इतनी जल्दी न तो सभी राज्यों के जातीय गणित बाहर आने वाले हैं और न ही ओबीसी वाला नारा जोर पकड़ने वाला है। 2024 के बाद के चुनाव में ज़रूर यह जातीय जनगणना कमाल दिखा सकती है।

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