क्या तंबाकू पर पूर्ण पाबंदी संभव है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने एक ‘मन की बात’ रेडियो संबोधन में देश से तंबाकू उपभोग छोड़ने तथा ई-सिगरेट के बारे में किसी भ्रम में न रहने का आह्वान किया था. इस संबंध में पहला कदम उठाते हुए सरकार ने ई-सिगरेट की बिक्री रोक दी है. लेकिन इससे आगे बहुत कुछ करने की जरूरत है. किसी भी रूप- सिगरेट, चुरूट, बीड़ी, गुटका और चबाये जानेवाले अन्य उत्पाद- में तंबाकू का उपभोग अब हमारी सबसे बड़ी स्वास्थ्य चुनौती बन गया है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में धूम्रपान करनेवाले लगभग 12 करोड़ लोग हैं तथा यहां दुनिया के 12 फीसदी ऐसे लोग बसते हैं. हमारे देश में हर साल तंबाकू सेवन की वजह से एक करोड़ से अधिक लोगों की मौत होती है. भारत के 70 फीसदी वयस्क पुरुष धूम्रपान करते हैं. वयस्क महिलाओं में यह संख्या केवल 13 से 15 फीसदी है. सिगरेट और अन्य तंबाकू उत्पादों से करीब 30 हजार करोड़ रुपये के राजस्व की वसूली होती है. एक सरकारी अध्ययन के मुताबिक तंबाकू सेवन से होनेवाली बीमारियों से संबंधित खर्च 1.04 लाख करोड़ रुपये से अधिक है.

लेकिन, आखिरकार सिगरेट उद्योग से एक अच्छी खबर आयी है. दशकों तक लगातार बढ़ोतरी करने के बाद 2015 में पिछले साल (2014) की तुलना में बिक्री में 8.2 फीसदी की गिरावट दर्ज की गयी थी. गिरावट का यह रुझान बीते तीन सालों से दिख रहा है. इसके बावजूद आंकड़े अभी भी बहुत बड़े हैं. पिछले साल उपभोग की गयी सिगरेटों की संख्या 92380 मिलियन से घटकर 88547 मिलियन हो गयी थी. हमें यह नहीं मालूम है कि इसी अनुपात में कैंसर और धूम्रपान से होनेवाली बीमारियों में कमी आयी है या नहीं.

सरकार ने इस बारे में और अर्थव्यवस्था पर अन्य प्रभावों पर कोई विस्तृत अध्ययन नहीं कराया है. शायद ऐसा धनी और ताकतवर सिगरेट उद्योग के दबाव के कारण हुआ है, जबकि राजस्व विभाग सिगरेट पर वैज्ञानिक आधार पर कर लगाने के लिए ऐसे अध्ययन का अनुरोध कर चुका है. बहरहाल, सिगरेट की बिक्री में जो भी कमी आयी हो, कमाई और मुनाफे में कोई गिरावट नहीं है. इस उद्योग के मालिक ‘हम दोनों’ फिल्म के देवानंद की तरह गाते रह सकते हैं- ‘बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया, हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया!’

निष्पक्ष होकर देखें, तो यह पूरी तरह खराब स्थिति नहीं है और यह इस बात का सबूत है कि जाने-अनजाने सरकारी नीति अब भी आधी अच्छी है. जहां तक इस उद्योग का सवाल है, एक अच्छी नीति यह निश्चित करेगी कि सरकार को अधिक राजस्व भी मिले और कंपनियां भी समृद्ध हों, पर बहुत अधिक नहीं, जबकि हर साल उपभोग में भी कमी आती जाए.

बीते सालों की इस गिरावट में एक और शुभ संकेत है. छोटे सिगरेटों के सेवन में 16.8 फीसदी की उल्लेखनीय कमी आयी है. लेकिन अनिवार्य रूप से स्वास्थ्य के मोर्चे पर यह अच्छी खबर नहीं हो सकती है क्योंकि इस सिगरेट को छोड़नेवाले बहुत से लोग बीड़ी पीने लगे होंगे. सामान्य सिगरेटों में केवल 1.7 फीसदी की कमी ही आयी है. फिर भी, बजटों में लगातार शुल्क बढ़ाने से उपभोग में आयी कमी से इंगित होता है कि नीति सही दिशा में अग्रसर है.

स्वाभाविक रूप से सिगरेट उद्योग की दलील होगी कि सोने के अंडे देनेवाली मुर्गी को न मारा जाए. लेकिन यह वैसी मुर्गी नहीं है, बल्कि एक टाइम बम है, जहां हर एक सिगरेट के सेवन का मतलब भविष्य का चिकित्सा खर्च बढ़ाना है. हाल ही में अमेरिकी सरकार ने सिगरेट उद्योग से भावी चिकित्सा खर्च के भुगतान के लिए 368 अरब डॉलर मुआवजे के तौर पर लेने का समझौता किया है. वित्त मंत्रालय के सलाहकार के तौर पर मैंने एक बार सिफारिश की थी कि अपने देश में स्वास्थ्य मंत्रालय को ऐसे भावी खर्च का आकलन करना चाहिए.

इसके बाद उन खर्चों के हिसाब से आबकारी शुल्कों को तय किया जाना चाहिए. मैंने यह भी सलाह दी थी कि हर साल शुल्कों में वृद्धि सबके हित में है. यदि उपभोग घटता है, तो बचत में बढ़ोतरी होगी. यदि राजस्व में कमी आती है, तब भी ठीक है क्योंकि भविष्य में बचत होगी. राजस्व में कमी को सरकार भविष्य में निवेश के रूप में देख सकती है. बीड़ी के व्यापक उपभोग को देखें, तो भारत में धूम्रपान अपेक्षाकृत कम नहीं है. एक अध्ययन का आकलन है कि 12.5 हजार रुपये से अधिक की सालाना आमदनी से अधिक के परिवारों से संबद्ध 34.8 करोड़ लोग हैं.

तर्क इंगित करता है कि इसी हिस्से से सबसे अधिक धूम्रपान करनेवाले लोग आते होंगे. अगर यह मानें कि इस हिस्से के 18 साल से अधिक आयु के लोगों की आधी तादाद धूम्रपान करती होगी, तो इसका मतलब है कि हर साल करीब छह करोड़ लोग 90 अरब सिगरेट पी जाते हैं. किसी भी हिसाब से यह बहुत बड़ी और खतरनाक संख्या है.

एक चिंता की बात यह है कि अमेरिकी कांग्रेस की जांच में पाया गया गया है कि सिगरेट कंपनियां लत को गंभीर बनाने के लिए नियमित रूप से तंबाकू में अधिक निकोटिन मिलाती हैं. अफवाहों की मानें, तो भारत में भी ऐसा खूब होता है. निकोटिन के हिसाब से भी शुल्क लगाया जाना चाहिए. सिगरेट बिक्री में कमी का एक कारण सिगरेट की तस्करी भी हो सकती है.

उद्योग विश्लेषकों का आकलन है कि 30 अरब डॉलर की वैश्विक बिक्री में करीब 10 अरब डॉलर अवैध निर्यात का हिस्सा है. दस्तावेजों में इन्हें वैध रूप से दर्ज किया जाता है, पर बिचौलिये अवैध रूप से इन्हें उन देशों में बेचते हैं, जहां शुल्क अधिक है. एंटवर्प इस अवैध कारोबार का अंतरराष्ट्रीय ठीहा है. जैसे दुबई सोने का ठीहा है, वसे ही एंटवर्प सिगरेट का. आकलनों के अनुसार, भारतीय बाजार में तस्करी से आये सिगरेट का हिस्सा दो फीसदी है तथा बड़ी सिगरेटों में यह आंकड़ा 30-40 फीसदी के आसपास है.

सिगरेट एक आसान निशाना भी है क्योंकि यह संगठित क्षेत्र में है. लेकिन बीड़ी और चबाये जानेवाले तंबाकू भी खतरनाक हैं और इनका सेवन बढ़ता जा रहा है. ऐसे में सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खतरा बढ़ता ही जा रहा है. दुर्भाग्य से सरकार तंबाकू उत्पादन को बढ़ावा देने के साथ अनुदान भी देती है. बेहद उपजाऊ 4.95 लाख हेक्टेयर जमीन में तंबाकू की खेती होती है. इसके अलावा खाद, पानी, बिजली आदि में छूट का फायदा भी तंबाकू किसान उठाते हैं. खेती के करमुक्त होने का लाभ भी उन्हें मिलता है. सरकार को इन नीतियों की समीक्षा करनी चाहिए. लेकिन यह सब आसान नहीं है.

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