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क्या अन्न के प्रति कृतज्ञता का भाव समाप्त हो रहा है? - श्रीनारद मीडिया

क्या अन्न के प्रति कृतज्ञता का भाव समाप्त हो रहा है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भोजन की बरबादी का दुष्प्रभाव पर्यावरण पर भी पड़ता है। जब बेकार खाना लैंडफिल में जाकर सड़ता है, तो वह ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करता है। डाटा देखें तो हमारे ग्रह पर भोजन की बरबादी के कारण हर साल करीब तीन अरब टन ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। जब हम भोजन का उत्पादन करने के लिए पानी, आग, बिजली आदि का उपयोग करते हैं तो यह भी जलवायु परिवर्तन का कारण बनता है।

भोजन की बरबादी को कम करने के लिए हमें कुछ छोटे कदम उठाने चाहिए, जैसे बचा हुआ खाना खाना या उतना ही खाना खरीदना, जितना हमें चाहिए। इससे वैश्विक भूख और जलवायु परिवर्तन से लड़ने में मदद भी मिलेगी। लोगों में पहले की तरह भोजन के प्रति भावनात्मक रिश्ता और उसके लिए एक जिम्मेदारी का भाव पैदा करना जरूरी है।

खाना बरबाद करने की समस्या आदतन भी है। होटलों में खाना ऑर्डर करके कुछ खाना, कुछ छोड़ देना स्टेटस सिम्बल है। जो लोग किचन में खुद नहीं जाते, उनमें अन्न के प्रति कृतज्ञता का भाव समाप्त हो रहा है।

भुखमरी की समस्या तब और विकराल रूप ले लेती है, जब विश्व की जनता जहां एक ओर अनाज की किल्लत से जूझ रही हो, वहीं दूसरी ओर खाना बरबाद करने का प्रतिशत भी बहुत बड़ा हो। आज भोजन की बरबादी भी दुनिया भर में भुखमरी के मूल कारणों में शामिल हो गई है।

यूएनईपी की रिपोर्ट के मुताबिक पूरे विश्व में खाने की बरबादी के मामले में सबसे पहला स्थान चीन का है, जहां हर साल 9.6 करोड़ टन खाना बरबाद होता है। भारत में सालाना 6.87 करोड़ टन खाना बरबाद होता है। अमेरिका में 1.96 करोड़ टन! इसमें रसोईघर में खाना बरबाद होने का प्रतिशत भी बहुत ज्यादा है।

प्रसिद्ध इतालवी शेफ मास्सिमो बोटुरा ने 2015 में एक प्रदर्शनी लगाई थी, जिसका विषय था- फीड द प्लैनेट। उनकी सबसे बड़ी चिंता यह थी कि हम पृथ्वीवासियों को खिलाने के बारे में क्या सोच रहे हैं। उनके अनुसार पूरे विश्व में करीब 12 अरब लोगों के लिए भोजन का उत्पादन किया जाता है, जबकि आबादी करीब 8 अरब है। इसके बावजूद लगभग 86 करोड़ लोग भूखे रह जाते हैं और हम अपने उत्पादन का 33 प्रतिशत बरबाद भी कर देते हैं।

चीन और भारत दुनिया भर में किसी भी अन्य देश की तुलना में बहुत बड़ी आबादी वाले देश हैं लेकिन यूएनईपी (संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम) की खाद्य अपव्यय सूचकांक रिपोर्ट की बात करें तो उसके अनुसार भारतीय घरों में सालाना 68,760,163 टन भोजन बरबाद होता है, या यूं कहें तो प्रति व्यक्ति लगभग 50 किलो। हमारे देश में जो 40% भोजन बरबाद हो जाता है, वो करीब-करीब सालाना 92,000 करोड़ रुपयों के बराबर है।

खाना बरबाद करने की समस्या सिर्फ स्ट्रक्चरल या फंक्शनल नहीं बल्कि आदतन भी है। क्रयशक्ति बढ़ने के साथ होटलों में खाना खाना या वीकेंड पर बाहर ही खाना नया स्टेटस सिम्बल बन गया है। खाना ऑर्डर करके कुछ खाना, कुछ छोड़ देना कोई मोरल या इमोशनल संकट नहीं बनता। जो दम्पती किचन में खुद नहीं जाते, उनमें अन्न के प्रति गहरी इज्जत और कृतज्ञता का भाव समाप्त होता जा रहा है।

और चूंकि तीन जनरेशन के सदस्य साथ खाना खाते नहीं तो कोई यह भी नहीं समझा पाता कि चावल का एक दाना भी थाली में नहीं छूटना चाहिए। बढ़ती सामाजिक असंवेदनशीलता अब भोजन की थाली तक आ चुकी है। खाना बनाना कभी काम नहीं था बल्कि परिवार को जोड़ने का सशक्त माध्यम था, लेकिन अब तो खासकर भारतीय मध्यवर्ग के लिए यह हीनता-ग्रंथि का हिस्सा बन चुका है।

कोविड के समय जब खाना बनाने वाले शहर छोड़कर चले गए तो पहली बार मध्य वर्ग को किचन से जूझना पड़ा। किचन मानो उनके लिए वह जंजीर है, जिसमें सैलरीड दम्पती नहीं फंसना चाहते और न ही अपने बच्चों को इसके लिए प्रेरित करना चाहते हैं। किचन भले मॉडर्निटी में अनफिट हो चुका हो, घर खरीदते वक्त भारतीय मध्य वर्ग मॉड्यूलर किचन पर विशेष ध्यान देता है। तेजी से ऑनलाइन भोजन घरों में पहुंच रहा है।

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