पत्रकारों को चाहिए कि वे महर्षि नारद को अपना गुरु मानें- डा. संपूर्णानंद,पूर्व राज्यपाल.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

 साख और सरोकार पत्रकारिता की मूलभूत पूंजी है। भारतीय पत्रकारिता का मिशनरी सरोकार भारत की स्वाधीनता रहा। पारंपरिक रूप से देवर्षि नारद भारतीय संचार परंपरा के आदिपुरुष के रूप में एक आदर्श उदाहरण हैं। अनेक पुस्तकों के लेखक तथा अपने समय की चर्चित पत्रिका ‘मर्यादा’ के संपादक मनीषी विद्वान पूर्व राज्यपाल डा. संपूर्णानंद जब लिखते हैं, ‘पत्रकारों को चाहिए कि वे महर्षि नारद को अपना गुरु मानें। वे शौर्य, धैर्य और आत्मत्याग की खबरें दिगंत तक पहुंचाते रहे। सद्गुणों की कीर्ति फैलाने तथा विपत्ति और फूट के नाश का प्रचारक मानते हुए उन्होंने नारद को आदर्श पत्रकार एवं पत्रकारिता का विशिष्ट पुरुष माना।

नारद सरोकारों को समर्पित संचारक थे। भारतीय संचार की इस सरोकार-केंद्रित परंपरा का उत्कर्ष भारतीय पत्रकारिता के लगभग 242 सालों के इतिहास में स्वाधीनता के पूर्व अपने चरम पर दिखाई देता है। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में लोकतंत्र के चतुर्थ स्तंभ के रूप में भारतीय पत्रकारिता का एक आदर्श स्वरूप यद्यपि इतिहास के पृष्ठों में समाहित है, परंतु यह स्वर्णिम इतिहास आज भी मीडियाकर्म का अप्रतिम आदर्श है।

जब्त होने लगी प्रतियां: एक ओर सुभाषचंद्र बोस ने नारा दिया – ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’, दूसरी ओर बंगाल के ही प्रमुख पत्र ‘युगांतर’ ने आजादी के इस आह्वïान में सुर मिलाया- ‘युगांतर मूल्य: फिरंगीर कांचा माथा’ यानी ‘युगांतर का मूल्य फिरंगी अंग्रेज का सिर’। राजा राममोहन राय ने अपने पत्रों- ‘बंगदूत’, ‘संवाद कौमुदी’ और ‘मिरातुल अखबार’- 1821 का उद्देश्य ‘अंग्रेज शासकों से सुरक्षा’ रखा।

अंग्रेजों का दमन चक्र भी राजा राममोहन राय को हिला न सका पर उनके दो पत्र अल्पजीवी रहे और अंग्रेजों के दमन-शोषण के कारण बंद हो गए। प्रथम स्वाधीनता संग्राम 1857 के दौरान दादाभाई नौरोजी ने ‘रास्ति गुफ्तार’ का प्रकाशन कर राष्ट्रचेतना का प्रसार किया। इसी साल अजीमुल्ला खां के हिंदी-उर्दू द्विभाषी पत्र ‘पयामे आजादी’ ने स्वतंत्रता संग्राम का समर्थन कर स्वाधीनता सेनानियों में धूम मचा दी। अखबार जब्त कर इसकी प्रति पाए जाने पर अंग्रेजों ने राष्ट्रद्रोह की सजा का कानून बना दिया। इसी साल तीन पत्रों ‘दूरबीन’, ‘सुल्तान उल अखबार’ और ‘समाचार सुधा वर्षण’ के संपादकों पर मुकदमा चलाकर उन्हेंं जेल भेज दिया गया।

चहुंओर उठी चिंगारी: देश का कोई भी ऐसा हिस्सा नहीं बचा था, जहां से स्वाधीनता आंदोलन के समर्थन में संपादक स्वतंत्रता आंदोलन में न कूद पड़े हों या पत्र-पत्रिकाएं न प्रकाशित हुई हों। उस समय के सभी बड़े राजनीतिज्ञ-राजनेता पत्रों के प्रकाशक-संपादक या लेखक के रूप में अवश्य ही जुड़े रहे। महात्मा गांधी ने अपने पत्रों – ‘यंग इंडिया’, ‘हरिजन’, ‘इंडियन ओपीनियन’ और कुछ दिनों तक संपादक रहे – ‘मुंबई समाचार’ के माध्यम से स्वतंत्रता की अलख जगाई।

लाला हरदयाल के पत्र ‘गदर’, बाल गंगाधर तिलक के पत्रों- ‘केसरी’ और ‘मराठा’ के माध्यम से स्वतंत्रता आंदोलन की ज्वाला को ज्वलंत रखा गया। अमेरिका में लाला हरदयाल की गिरफ्तारी के बाद ‘गदर’ पत्र का संपादन-प्रकाशन करने वाले पंडित रामचंद्र की अमेरिका के जेल में ही हत्या कर दी गई। ‘वंदे मातरम’ के अरविंद घोष को जेल की सजा झेलनी पड़ी। भारत के भाषायी पत्रों के दमन के लिए पर्याप्त कानून न होने की वजह से अंग्रेज सरकार के मुलाजिम लार्ड लिटन ने चर्चित वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट लागू कर दिया, जिसकी प्रतिक्रिया स्वरूप भारत के करोड़ों लोगों की आजादी की मंशा और संकल्प को मुखरित करने के लिए कई संपादकों ने अपनी जान और अपने पत्रों की बाजी लगा दी।

कई बार हुई जेल यात्राएं: महामना मदन मोहन मालवीय स्वतंत्रता पूर्व की पत्रकारिता के पितामह के रूप में समादृत हैं। पंडित मोतीलाल नेहरू के साथ उन्होंने ‘द लीडर’ पत्र प्रारंभ किया। अंग्रेजों के दमन का शिकार समाचार पत्र ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ जब बंदी के कगार पर पहुंच गया तो उन्होंने 1924 में इसे बचाने के लिए पचास हजार रुपए की धनराशि की व्यवस्था की। कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह के पत्र ‘हिंदोस्थान’ के संपादक के रूप में उन्होंने ऐतिहासिक योगदान किया और अंग्रेजों की दमनकारी, शोषण की नीतियो के विरुद्ध स्वयं द्वारा संपादित पत्रों को सशक्त हथियार बनाया।

वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट के विरुद्ध ‘द लीडर” का प्रकाशन कर उन्होंने भारतीय पत्रकारिता में एक नई प्राणशक्ति का संचार किया। मालवीय जी को अपने स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय सहयोग और लेखन-संपादन के लिए कई बार जेल की सजा भुगतनी पड़ी। महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ टैगोर, जवाहर लाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, सिस्टर निवेदिता, प्रेमचंद, सी.एफ. एंड्रूज, लाला लाजपत राय, रामानंद चटर्जी जैसे संपादकों की यशस्वी परंपरा को हिंदी पत्रकारों-संपादकों ने अपने त्याग-बलिदान से समृद्ध किया। स्वातंत्र्य चेतना के विकास और प्रसार में हिंदी संपादकों ने अपनी लेखिनी के साथ-साथ स्वातंत्र्य समर में सशरीर सहभाग करते हुए कठोर यातनाएं झेलीं। मिशनरी पत्रकारिता के दीपस्तंभ (लाइट हाउस) इन संपादकों के ऐतिहासिक अवदान तथा समर्पण ने स्वतंत्रता के यज्ञ में अपने पत्र की और अपनी आहुति देकर स्वाधीनता आंदोलन को समर्थ और सफल बनाया।

हिला दीं अंग्रेजों की चूलें: वर्ष 1920-40 तक का समय हिंदी संपादकों और पत्रकारिता के संघर्ष का यातनाकाल था। जब समाचार पत्रों पर अंग्रेज शासन ने तालाबंदी का दौर शुरू किया, तब अनेक गुप्त पत्रों का प्रकाशन हुआ। इनमें ‘रणभेरी पत्र ने अंग्रेज प्रशासन की चूलें हिला दीं। पराड़कर जी द्वारा हस्तलिखित इस पत्र के गुप्त प्रसार ने फिरंगियों के होश उड़ा दिए। पराड़कर जी केवल लेखक-पत्रकार या संपादक ही नहीं थे। वे सक्रिय स्वातंत्र्य सेनानी थे। एक जेब में या टिफिन में’रणभेरी की प्रतियां  रखकर और दूसरी जेब में पिस्तौल रखकर अपने गुप्त पत्र का प्रसार करने वाले पराड़कर जी का स्वाधीनता संग्राम में योगदान अविस्मरणीय है।

पराड़कर जी की प्रेरणा से बंबई (अब मुंबई) तथा अन्य स्थानों से ‘रणडंका, ‘फितूर, ‘रिवोल्यूशन, ‘रिवोल्ट, ‘गदर, ‘बगावत जैसे पत्रों के प्रकाशन का अटूट सिलसिला पूरे देश में चल पड़ा और इन प्रकाशनों की काफी मांग रहती थी। काशी के रईस इन प्रकाशनों की पूरी मदद भी करते थे। इसके प्रमाण अभिलेखागारों में संरक्षित सरकारी दस्तावेजों मे उपलब्ध हैं। ‘सेनापति, ‘स्वतंत्र, ‘आज, ‘प्रताप, ‘अर्जुन, ‘कर्मवीर, ‘जागरण आदि पत्रों के संपादकों के योगदान और अंग्रेज शासन के विरुद्ध उनके बलिदान की गाथा बहुत लंबी है। आज जब हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, तब इस आजादी के लिए अपना तन-मन-धन सब कुछ समर्पित करने वाले सुधी संपादकों के प्रति नमन करते हुए भारतीय संपादक-पत्रकार परंपरा के प्रति गर्व से हमारा सिर ऊंचा होना स्वाभाविक है।

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