संवाद और संवेदना का सशक्त संदेश दे रही है ‘कश्मीर फाइल्स’

संवाद और संवेदना का सशक्त संदेश दे रही है ‘कश्मीर फाइल्स’

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फिल्म से जनित राष्ट्रीय स्तर पर उत्तेजना को देना होगा सृजनात्मक दिशा

इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत की त्रिवेणी ही सेक्यूलर इंडिया को दे सकती है सशक्त संबल

✍️ आलेख – गणेश दत्त पाठक

श्रीनारद मीडिया :

भारत के इतिहास की एक दर्दनाक घटना को उजागर कर रही है विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ‘कश्मीर फाइल्स’। आरोप उन पर धन कमाने की लालसा के लग रहे। कहा जा रहा है कि इस फिल्म से लोक व्यवस्था पर नकारात्मक असर पड़ सकता है। लेकिन यह फिल्म तो इतिहास के कुछ काले पन्नों को पलटती दिखाई दे रही है। उन दर्दनाक पन्नों को, जब जम्हूरियत, इंसानियत और कश्मीरियत ने घुटने टेके थे। इतिहास सबक देता है। इतिहास सचेत करता है। इतिहास सतर्क करता है। ‘कश्मीर फाइल्स’ फिल्म भी जता रही है संवाद के महत्व को। उजागर कर रही है संवेदना की संजीदगी को। ताकि फिर इतिहास अपने आप को किसी भी तरह दोहरा न पाए।

उत्तेजना का उफान दरिंदो को दे देगा समर्थन

निश्चित तौर पर फिल्म कश्मीर की ऐसी दर्दनाक घटना से संबंधित है, जिसको देखकर भावनाएं मचल सकती है। उद्वेग की सुनामी आ सकती है। उतेजना का उफान आ सकता है लेकिन ये उन दरिंदगों के प्रति समर्थन ही होगा, जिनकी दरिंदगी ने मानवता को 90 के दशक में कश्मीर में शर्मशार किया था।

मानवीय गरिमा का उल्लंघन सिस्टम पर बड़ा सवाल

किसी भी नरसंहार को किसी भी अन्य नरसंहार का हवाला देकर तार्किक साबित नही किया जा सकता। अगर कही भी हत्या, बलात्कार जैसे जघन्य अपराध होते हैं तो वे कहीं न कहीं मानवीय गरिमा का उल्लंघन ही होता है। वे घटनाएं प्रशासनिक सत्ता की कर्त्तव्यपरायणता पर सवाल ही होते हैं। वे घटनाएं राजनीतिक सत्ता की असफलता को ही उजागर करती हैं। वे घटनाएं सामाजिक संवेदना के अभाव को ही उजागर करती हैं। संविधानवाद और मानवाधिकार के इस युग में ये घटनाएं सभ्यता की जीवंतता पर भी सवाल उठा जाती है। वे घटनाएं हमारे व्यवस्था के सेक्यूलर और लोकतांत्रिक आयाम पर भी गंभीर सवाल खड़े करती हैं।

समेकित और संवेदनशील संस्कृति में दरिंदगी कैसे स्वीकार्य हो सकती है?

लेकिन होना यह भी नहीं चाहिए कि ऐसी घटनाएं सियासत के संवेदनहीन दलदल में समाहित हो जाएं। ये घटनाएं समाज को चिंतन मनन का अवसर मुहैया कराती है। जितना ही विचार मंथन होगा, उतना ही कुछ बेहतर निष्कर्ष निकल कर सामने आयेंगे ताकि आगे फिर इस तरह की घटनाएं संविधानिक मर्यादा का उल्लंघन न कर पाए। भारतीय संस्कृति समेकित प्रवृति की रही है। ‘सर्वे भवन्तु सुखिन’ के भाव से संचालित होती आई है। फिर इस संस्कृति में दरिंदगी कैसे स्वीकार्य हो सकती हैं? कारण जो भी रहा हो लेकिन लापरवाही के कारणों की पड़ताल समय की जरूरत है। ‘कश्मीर फाइल्स’ फिल्म के देखने के बाद जनमत और सोशल मीडिया तो इतना कर ही डालेगी कि मामले की जांच पड़ताल को आवश्यक बना देगी।

संवाद एक अनिवार्य तथ्य है

लेकिन ‘कश्मीर फाइल्स’ फिल्म एक तथ्य की तरफ बार बार इशारा कर रही है कि समाज के स्तर पर संवाद अत्यावश्यक है। 1987 से ही कश्मीर में परिस्थितियां नासाज हो रही थी। जिसका खतरनाक असर जनवरी 1990 में देखा गया। शायद संवाद को तरजीह दी गई होती तो ऐसी दर्दनाक घटना को अंजाम देना, एक दुष्कर कार्य हो सकता था। बचाव की व्यवस्थाएं सृजित हो सकती थी। संवाद परिवार के स्तर पर हो। संवाद समाज के स्तर पर हो। संवाद प्रशासनिक और राजनीतिक स्तर पर हो। लेकिन समकालीन परिस्थितियों पर संवाद का दौर चलना ही चाहिए। यहीं संवाद सचेत करता है। यही संवाद सतर्क करता है। यही संवाद जागरूक करता है। यहीं संवाद सुरक्षा की गारंटी है। इसलिए ‘कश्मीर फाइल्स’ फिल्म चीख चीख कर कह रही है संवाद जारी रखिए। राष्ट्र की सुरक्षा का मजबूत आधार भी यहीं संवाद बन सकता है।

संवेदनशीलता की दरकार हर स्तर पर जरूरी

‘कश्मीर फाइल्स’ फिल्म संवेदनशील होने का आग्रह भी करती दिख रही है। इस संवेदनशीलता की दरकार प्रशासन के स्तर पर भी है और राजनीति के स्तर पर। इस संवेदनशीलता की दरकार समाज के स्तर पर भी है और जन सामान्य के स्तर पर भी। प्रशासन जब फरियादी को ये बोले कि आप अपना देख लो। सड़कों पर खुलेआम हत्याएं हो रही हो। निर्मम दुष्कर्म हो रहे हो। आरियों से शरीर चीरा जा रहा हो। मासूमों को गोलियों से बेंधा जा रहा हो।उस समय प्रशासन की बेचारगी जाहिर हो जाती है। केवल सेक्यूलर सोच ही समाज में शांति की गारंटी नहीं हो सकती है। सेक्युलर व्यवहार भी नितांत अनिवार्य तत्व है।

सतर्क, सचेत, जागरूक रहिए

इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत के भाव को तार तार करने की आकांक्षाएं अनंत हैं। देश में बहुत ताकतें ऐसी भी हैं जो ‘कश्मीर फाइल्स’ फिल्म से जनित राष्ट्रीय स्तर पर उत्तेजना से लाभ उठाने की हसरत संजो रही होगी। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर एक बौद्धिक चेतना उन ताकतों के मंसूबे पूरे होने से रोक सकती हैं। जिन्होंने फिल्मों, ऐतिहासिक तथ्यों को अपने मंसूबों के हिसाब से आज तक संजोया है। इसलिए सतर्क रहिए, सचेत रहिए, जागरूक रहिए। इससे आप मानसिक तौर पर मजबूत होंगे, जो राष्ट्र की मजबूती का आधार भी होगा।

संवाद, संवेदना और सतर्कता की त्रिवेणी बहाकर ही आप समेकित संस्कृति की सार्थकता को साबित कर सकते हैं। सेक्यूलर और लोकतांत्रिक भारत में फिर कभी ‘कश्मीर फाइल्स’ जैसी फिल्म के निर्माण की जरूरत न पड़े। इसके लिए जनमत को अपना समर्थन देना चाहिए। तरीका सिर्फ यहीं कि सचेत रहिए, सतर्क रहिए, जागरूक रहिए।

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बस एक ही संदेश है,एक बार फिल्म अवश्य देखिए।

 

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