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संविधान को जीवंत रखना ही न्यायिक सक्रियता का सबसे उजला पक्ष है,कैसे? - श्रीनारद मीडिया

संविधान को जीवंत रखना ही न्यायिक सक्रियता का सबसे उजला पक्ष है,कैसे?

संविधान को जीवंत रखना ही न्यायिक सक्रियता का सबसे उजला पक्ष है,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

संविधान हो या अन्य सभी कानून, इनका उद्देश्य विभिन्न परिस्थितियों में लोगों के जीवन को नियमित करना है। ऐसे में न्यायिक सक्रियता एक न्यायाधीश को अनुमति देती है कि जहां कानून विफल हों, वहां अपने विवेक का प्रयोग करें। इस सक्रियता से जजों को अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज रखने की शक्ति मिलती है।

न्यायिक सक्रियता के जरिये जज अन्यायपूर्ण लगने पर कानूनों या कार्यकारी आदेशों को खारिज करने के लिए अपने निजी अनुभवों का प्रयोग कर सकते हैं। इसके सफेद और स्याह दोनों पहलू हैं। उजला पक्ष यह है कि इससे संविधान में किए गए शक्ति के बंटवारे की व्यवस्था के बीच संतुलन बनाने के साथ जनहित के मुद्दों को हल करने में मदद मिलती है। हाल में कोविड-19 के प्रबंधन से जुड़े एक मामले में केंद्र सरकार ने कहा था कि महामारी के प्रबंधन में सरकार को कई नीतिगत निर्णय लेने पड़ते हैं।

ऐसे में कार्यपालिका को न्यायालय के हस्तक्षेप से मुक्त रखते हुए कदम उठाने देना चाहिए। जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय पीठ ने इस आपत्ति को खारिज करते हुए कहा था, ‘जब कार्यपालिका की नीतियों से किसी के संवैधानिक अधिकारों का हनन होता हो, ऐसे में संविधान ने यह अपेक्षा नहीं की है कि अदालत चुप्पी साधे रहे। कार्यपालिका की बनाई नीतियों की न्यायिक समीक्षा और संवैधानिक औचित्य को परखना जरूरी कदम है, जिसकी अदालतों से अपेक्षा की जाती है।’

संविधान को एक जीवित दस्तावेज माना जाता है और न्यायपालिका अपनी न्यायिक सक्रियता से संविधान में प्राण डालती है। ऐसा न हो तो समय बीतने के साथ संविधान मात्र कुछ मृतप्राय से शब्दों का दस्तावेज बनकर रह जाएगा। संविधान को जीवंत रखना ही मेरी नजर में न्यायिक सक्रियता का सबसे उजला पक्ष है। शक्ति किसी भी रूप में हो, वास्तव में वह यह विश्वास देती है कि इसे पाने वाला उसका उपयोग वास्तविक लार्भािथयों को फायदा पहुंचाने में करेगा। अगर शक्ति का दुरुपयोग हो, तो न्यायपालिका से हस्तक्षेप की उम्मीद की जाती है। ऐसे में न्यायिक सक्रियता अहम भूमिका निभाती है।

स्याह पक्ष के तहत कभी-कभी ऐसा होता है, जब जज मौजूदा कानूनों को दरकिनार करते हुए निजी भावनाओं को ऊपर रखने लगते हैं। हालांकि ऐसे किसी भी मामले में विधायिका अपनीसामूहिक बुद्धिमत्ता के साथ उचित विधान के जरिये उस गलती को दूर कर सकती है, जिसके आधार पर फैसला सुनाया गया। यही संतुलन समाज के संचालन के लिए जरूरी है।

एसआर सिंह, वरिष्ठ अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट, पूर्व न्यायाधीश, इलाहाबाद हाई कोर्ट

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