कोविड ने हमें बताया कि हेल्थकेयर एक खर्च नहीं, बल्कि एक निवेश है.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

कोविड-19 अब एंडेमिक बनता जा रहा है। सरकार ने आपदा प्रबंधन कानून वापस लेते हुए राज्यों को महामारी पर कदम उठाने के लिए स्वतंत्र कर दिया है। एक वायरस जो आकार में एक मिलीमीटर का भी दस हजारवां हिस्सा था, ने हमारी तैयारियों का जमकर इम्तिहान लिया है। हमने इससे क्या सीखा? इसका पहला सबक यह था कि राज्यसत्ता को अपनी ताकत का इस्तेमाल सोच-समझकर करना चाहिए और लोगों के जीवन से जुड़े प्रश्नों पर अधिक सदाशयता से सोचना चाहिए।

महामारी की शुरुआत में सरकार को कठिन फैसला लेना पड़ा कि जीवन और आजीविका में से किसे चुनें। यह धर्मसंकट था। भारत में दुनिया के सबसे कठोर लॉकडाउन में से एक लगाया गया था। एक झटके में लाखों की नौकरी चली गई। रोज कमाने-खाने वालों को इसने घोर गरीबी में धकेल दिया। प्रवासियों को विस्थापन करना पड़ा। हमारी जीडीपी गिरी। एक बेहतर ढंग से लागू किया गया या टारगेटेड लॉकडाउन संक्रमितों की जान बचा सकता था, वहीं करोड़ों कामगारों पर तकलीफों का पहाड़ नहीं टूटता।

कोविड की त्रासदी तो तभी शुरू हो गई थी, जब हम अपने स्वास्थ्य-तंत्र को सुधारने में नाकाम रहे थे। आज भी हालत कोई बहुत बेहतर नहीं है। हमसे छोटे देश कम संसाधनों के बावजूद आगे निकल गए हैं। थाइलैंड ने अपने पब्लिक और प्राइवेट सिस्टम को लिंक करते हुए यूनिवर्सल हेल्थकेयर के सपने को साकार कर लिया है।

उसने अपने स्वास्थ्य मंत्रालय को दो भागों में बांटा है : एक किसी ऐसी एजेंसी की तरह काम करता है, जो निजी और सार्वजनिक अस्पतालों की प्रतिस्पर्धा के परिणामों के आधार पर अपने सभी नागरिकों के लिए स्वास्थ्य-सुविधाएं सुरक्षित करता है, वहीं दूसरा सरकारी अस्पतालों का संचालन करता है। साथ ही वह ग्रामीण और कम्युनिटी-आधारित प्राथमिक स्वास्थ्य-केंद्रों के नेटवर्क पर भी फोकस करता है, जहां स्थानीय और सुप्रशिक्षित डॉक्टर सेवाएं देते हैं।

जबकि भारत के बहुतेरे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बदहाल हैं। डॉक्टर और नर्सें ड्यूटी पर नहीं जाते और दवाइयां चोरी हो जाती हैं। इस क्षेत्र में सुधार का समय आ गया है और थाइलैंड का मॉडल हमारे सामने है। सकारात्मक पहलू यह है कि हमारा वैक्सीनेशन ड्राइव प्रभावशाली था और हमने इसे बहुत कम व्यय पर संचालित कर दिखाया। सरकार ने वैक्सीन का प्री-ऑर्डर पहले कर दिया होता तो इसे और बेहतर तरीके से किया जा सकता था।

अच्छे समन्वय और एक ऑनलाइन पोर्टल के कारण आज 80 प्रतिशत आबादी को डोज लग चुकी है। हमें वैक्सीनेशन के बाद तुरंत ही डिजिटल सर्टिफिकेट मिल गए, जबकि विदेशों में लोगों को हस्तलिखित प्रमाण-पत्रों के लिए इंतजार करना पड़ा। सरकार की मुफ्त राशन और ग्रामीण रोजगार गारंटी योजनाओं ने त्रासदी में लोगों की बड़ी मदद की। ऐसे समय में लोगों की जेब में पैसा डालना और उपभोग को सपोर्ट करना जरूरी था। छोटे उद्यमों और आपसी सम्पर्कों पर निर्भर रहने वाले सेक्टरों के लिए और बेहतर प्रयास किए जा सकते थे।

लेकिन कोविड ने शिक्षा के प्रति हमारी एप्रोच में निहित खामियों को उजागर कर दिया है। भारत के बच्चे दुनिया के किसी भी देश की तुलना में स्कूलों से ज्यादा समय दूर रहे। जिन गरीब बच्चों के पास स्मार्टफोन नहीं थे या जिनके माता-पिता शिक्षित नहीं थे, उन्हें तो सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है। कोविड ने हमारी वैचारिक आस्थाओं की भी परीक्षा ली है।

मुक्त-बाजार प्रणाली ने भारत में बड़े पैमाने पर समृद्धि रची है और एक मध्यवर्ग रचा है, लेकिन कमजोर तबकों की सुरक्षा के लिए हमें लेफ्ट और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए क्लासिकल-राइट दोनों की ही जरूरत है। कोविड ने हमें बताया है कि संकट के समय वैयक्तिक और सामुदायिक- दोनों तरह के प्रयास समान रूप से महत्वपूर्ण साबित होते हैं।

कोविड में सटीक डाटा नहीं मिलना एक प्रशासकीय कमजोरी साबित हुई। संक्रमितों और मरने वालों की संख्या को लेकर संशय है। जब डाटा-संग्रह की गुणवत्ता ही खराब होगी तो उसके आधार पर बनाई जाने वाली नीतियां कैसे अच्छी हो सकती हैं?

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