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प्रभु हम तेरे द्वार पर, खड़े मांगते भीख... - श्रीनारद मीडिया

प्रभु हम तेरे द्वार पर, खड़े मांगते भीख…

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

राम के दर्शन से भाव विभोर अहल्या उन्हें देख रही हैं. वे अपने उदार गैरिक वसन से अहल्या के भस्माच्छादित शरीर से धूल पोंछ रहे हैं. अहल्या सोचती हैं कि ऐ स्पर्श! तेरे कितने रूप हैं- कितने आकर्षण हैं! उनके समक्ष इंद्र की वासना और गौतम की रसना के चित्र स्मृति पटल पर नाच जाते हैं. अहल्या श्रीराम के शरीर से धूल पोंछने के लिए हाथ बढ़ाती हैं, तो श्रीराम उन्हें रोकते हुए कहते हैं कि देवि, छोड़ दीजिए, यह धूल मेरे कठोर अनुशासित यात्रा पथ का पाथेय है.

जीवन में मर्यादा की उच्चतम आदर्श की स्थापना श्रीराम के जीवन का लक्ष्य रहा. सात हजार वर्ष पूर्व इस महापुरुष ने इंद्र और रावण को एक साथ चुनौती दी. जन-गण का सपना सजाया, साथ लिया, सहयात्राएं कीं और विजयी हुए.

राम का संपूर्ण जीवन दैहिक संस्कृति से मुकाबला करते बीत गया. जब समाज में देह और उसके भोग एवं शक्ति की ही केंद्रीय भूमिका थी, तब उन्होंने इस परिभाषा को बदलने के लिए सफल एवं सार्थक प्रयास किया

यज्ञ एवं अग्नि के माध्यम से मानसिक शक्ति तथा वैज्ञानिक भौतिकवादी चेतना के विस्तार के माध्यम से विचार एवं विवेक की मर्यादा को प्रतिस्थापित किया. इसका प्रकटीकरण कृषि सभ्यता के विकास एवं विस्तार से हुआ, जो पतनशील दैहिक सभ्यता के अंत का कारण बना. विचार एवं विवेक का आचरण जिसमें मर्यादा का संतुलन था, उसकी शुरुआत उनके बचपन से हो गयी थी. राम जब पंद्रह वर्ष के थे, तो उनके मन में तीर्थाटन की गहरी रुचि पैदा हुई. वे पिता से अनुमति लेकर भारत भ्रमण को निकल गये.

उन्होंने नदी, वन, आश्रम, जंगल, समुद्र एवं पहाड़ों की यात्राएं कीं. ऐसी यात्राओं के बाद श्रीराम के जीवन में कोमलता का जन्म होता है और पूर्वाग्रह खत्म होते हैं. उनमें वैराग्य आ जाता है, तब दशरथ उन्हें वशिष्ठ के पास भेजते हैं. श्रीराम और वशिष्ठ का संवाद योगवशिष्ठ में दर्ज है. इससे पता चलता है कि राम सदा ही एक विचारशील तत्वदर्शी की तरह बड़ा नपा-तुला व्यवहार करते हैं. आचरण में विवेक यानी मर्यादा के माध्यम से श्रीराम भारत की आत्मा को प्रकट करते हैं जो उन्होंने तीर्थाटन के परिणाम स्वरूप सीखा.

वैराग्य भाव की अभिव्यक्ति एवं पूर्णता योगवशिष्ठ में होती है. यहां वशिष्ठ समझाते हैं कि न मन को दुनिया के काम में लगाकर शांति मिलती है और न ही परे हटाकर. जो कोई मन की इन दो स्थितियों को अपने विचार-विवेक से एक साथ देख लेता है, वह से ऊपर उठकर ब्रह्म सत्य के दर्शन का अधिकारी हो जाता है. भक्ति में भाव की केंद्रीय भूमिका होती है. लेकिन राम का समस्त व्यवहार विचार एवं विवेक पूरित है. विनयशील एवं आदरभाव से भरे श्रीराम अपने से छोटे को भी अपने जैसा व्यवहार करने की पूरी स्वतंत्रता देते हैं.

राम जिस अंतर रूपांतरण को सहज एवं सबके लिए सुलभ बना रहे थे, उसकी परंपरा विश्वामित्र ने शुरू की थी. इस समाज एवं देश निर्माण की यात्रा को सार्थक एवं सहभागी बनाने के लिए उन्होंने वशिष्ठ का साथ लिया, जो उनके वैचारिक विरोधी थे. एक राज्याश्रित ऋषि तो दूसरा विश्वामित्र सामाजिक ऋषि. श्रीराम की विचार चेतना को कर्मभूमि पर सार्थक उपयोग के लिए वशिष्ठ ने पृष्ठभूमि तैयार की, तो उस विचार-चेतना को कर्मपथ पर सफलतापूर्वक चलने में विश्वामित्र ने सहयोग दिया. इस यात्रा के परिणामस्वरूप विश्वामित्र एक सफल सामाजिक व्यवस्था को रूपांतरित करने में सहभागी हो सके.

यह श्रीराम की वैराग्य एवं विचार की भावभूमि है कि जनक जैसे विदेह एवं दार्शनिक वनवास काल में श्रीराम के निर्णय पर मौन सहमति प्रदान करते हैं. जिस गौतम के श्राप ने अहल्या को पत्थर बनाया, उस न्यायशास्त्र के अध्येता को श्रीराम ने उल्टा खड़ा कर दिया. भोगवाद के प्रतीक इंद्र को भी राजा जनक के विवाह मंडप में समुचित जवाब दिया. इंद्र, रावण एवं ऐसे ही भौतिकवादी व्यवस्था के वाहकों ने श्रीराम-सीता विवाह के समय दिये गये मर्यादा भोज के अवसर का दुरुपयोग करते हुए गालियों, झिड़कियों एवं लांछनों के माध्यम से श्रीराम के धैर्य की परीक्षा ली.

इस मर्यादा भोज ने श्रीराम को एक बार फिर मर्यादा के संग पुरुषोत्तम की यात्रा के लिए पड़ाव का काम किया. विष्णु के धनुष को धारण करने की पात्रता की परीक्षा देकर राम परशुराम तथा सभी संहारक शक्तियों के समक्ष विवेकपूर्ण संहारक शक्ति के प्रतीक बन जाते हैं. इसी कारण वे भारत की अस्मिता के, सांस्कृतिक अखंडता और राष्ट्रीय चेतना के प्रतीक बन गये.

सांस्कृतिक रूपांतरण की विराट प्रक्रिया में इस मर्यादा के साथ गौतम का न्याय दर्शन, भारद्वाज की वैज्ञानिक खोज, अत्रि के आश्रम व्यवस्था और अगस्त्य का सांस्कृतिक संश्लेषण सहायक साधन बना. विश्व इतिहास में किसी एक महापुरुष के निर्माण के माध्यम से राष्ट्र जागरण के कार्य में इतने महान ऋषियों जैसा योगदान देखने को नहीं मिलता है.

सामाजिक सृजनात्मकता और अंतर रूपांतरण को अपने व्यवहार एवं विचार विवेक की आधारशीला से मर्यादित कर श्रीराम एक मानवीय एवं गतिशील राजनीतिक चेतना का निर्माण करते हैं, जो एक साथ ब्रह्मा, शिव एवं विष्णु के क्रियात्मकता को दर्शाता है. राम विचार की तीव्रता और सूक्ष्मता के माध्यम से अध्यात्म में प्रवेश करते हैं. वह जीवन के साथ हरदम कदम मिलाकर चलते हैं. इस कारण वे सामान्य लोगों के साथ सहज संबंध बना लेते हैं. वह हर बात को, हर कर्म एवं व्यवहार को सामाजिक संगति और न्याय तथा औचित्य की कसौटी पर परखते हैं.

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