एक देश, एक चुनाव की अवधारणा को व्यवहार्य बनाने के उपाय

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

‘एक देश, एक चुनाव’ (One nation, One election- ONOE) निवर्तमान केंद्र सरकार के एजेंडे में शामिल महत्त्वपूर्ण सुधारों में से एक है। वस्तुतः भारत के पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने जनवरी 2018 में संसद के अपने संबोधन में सरकार द्वारा प्रस्तावित सुधारों में से एक के रूप में इसकी चर्चा भी की थी।

उन्होंने कहा था कि नागरिक देश के किसी न किसी हिस्से में बार-बार आयोजित होते रहने वाले चुनावों को लेकर एक चिंता रखते हैं क्योंकि इसका अर्थव्यवस्था और विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी संपूर्ण देश में एक चुनाव कराये जाने की वांछनीयता पर मुखरता से बात करते रहे हैं। इस प्रकार, यह अचानक से प्रकट हुआ कोई विचार नहीं है, बल्कि इसके बारे में बात होती रही है।

  • ‘एक देश, एक चुनाव’ के पीछे का केंद्रीय विचार यह है कि लोकसभा चुनावों के साथ सभी राज्यों के विधानसभा चुनावों को समक्रमिक या सिंक्रनाइज़ (synchronize) किया जाए ताकि देश भर में चुनावों की आवृत्ति को कम किया जा सके।
  • यह अवधारणा वर्ष 1967 तक देश में प्रचलित भी रही थी, लेकिन दल-बदल (defections), बर्खास्तगी (dismissals) और सरकार के विघटन (dissolutions) जैसे विभिन्न कारणों से यह व्यवस्था बाधित हो गई।
    • यह चक्र पहली बार वर्ष 1959 में टूटा जब केंद्र ने तत्कालीन केरल सरकार को बर्खास्त करने के लिये अनुच्छेद 356 लागू किया।
    • वर्ष 1960 के बाद राजनीतिक दलों के बीच दल-बदल और प्रति-दल-बदल (defections and counter-defections) के कारण कई विधानसभाओं के विघटन की स्थिति बनी, जिसके कारण अंततः लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिये अलग-अलग चुनाव आयोजित कराने पड़े।
    • वर्तमान में, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, आंध्र प्रदेश और ओडिशा राज्यों में विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ आयोजित किये जाते हैं।
  • एक साथ चुनाव कराने के विचार का पक्ष समर्थन वर्ष 1999 में बी.पी. जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने भी किया था।

‘एक देश, एक चुनाव’ के क्या लाभ हैं?

  • केंद्रित शासन: यह सरकार को एक बार चुनाव संपन्न हो जाने के बाद शासन पर ध्यान केंद्रित कर सकने में सक्षम बनाता है। वर्तमान में देश के किसी न किसी हिस्से में कम से कम हर तीसरे माह में कोई न कोई चुनाव आयोजित होता ही रहता है। देश का पूरा ध्यान इन चुनावों पर केंद्रित हो जाता है। प्रधानमंत्री से लेकर केंद्रीय मंत्रियों तक, मुख्यमंत्रियों से लेकर राज्य के मंत्रियों तक और सांसदों, विधायकों से लेकर पंचायत सदस्यों तक – हर कोई इन चुनावों में गहनता से संलग्न हो जाता है, क्योंकि कोई भी हारना नहीं चाहता।
    • प्रशासन के विभिन्न स्तरों पर अलग-अलग स्तर की प्रशासनिक अपंगता की स्थिति बन जाती है। यह भारत की विकास संभावनाओं पर नकारात्मक प्रभाव डालती है।
  • नीतिगत निर्णयों की निरंतरता: निर्वाचन आयोग (EC) द्वारा चुनावों की घोषणा के साथ ही आदर्श आचार संहिता (MCC) लागू हो जाती है। MCC के कारण चुनाव अवधि के दौरान कोई नया नीतिगत निर्णय नहीं लिया जा सकता है। इससे केंद्र, राज्यों और स्थानीय निकायों – सभी स्तरों पर प्रमुख नीतिगत निर्णयों में देरी की स्थिति बनती है।
    • यहाँ तक कि जब कोई नया नीतिगत निर्णय आवश्यक नहीं होता है, तब भी चुनाव अवधि के दौरान क्रियान्वित परियोजनाओं का कार्यान्वयन पटरी से उतर जाता है क्योंकि राजनीतिक कार्यकारी के साथ-साथ सरकारी अधिकारी भी नियमित प्रशासन की अनदेखी करते हुए चुनाव संबंधी कर्तव्यों में व्यस्त हो जाते हैं।
  • चुनावों की लागत में कमी: राजनीतिक भ्रष्टाचार का एक मुख्य कारण बार-बार होने वाला चुनाव भी है। प्रत्येक चुनाव में भारी मात्रा में धन जुटाना पड़ता है। एक साथ चुनाव कराने पर राजनीतिक दलों का चुनावी खर्च पर्याप्त रूप से कम हो सकता है। इससे धन उगाही का दोहराव नहीं होगा। इससे जनता और व्यापारिक समुदाय को चुनावी चंदे के बारंबार दबाव से भी मुक्ति मिलेगी।
    • एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में 60,000 करोड़ रुपए खर्च हुए।
    • इसके अलावा, यदि चुनाव एक साथ आयोजित होते हैं तो निर्वाचन आयोग द्वारा किये जाने वाले खर्च को भी कम किया जा सकता है।
      • निःसंदेह ‘एक देश, एक चुनाव’ अवधारणा पर चुनाव आयोजित कराने हेतु आवश्यक बुनियादी ढाँचा स्थापित करने के लिये चुनाव आयोग को आरंभ में व्यापक धनराशि का निवेश करना होगा।
    • इसके साथ ही, सभी चुनावों के लिये एक ही मतदाता सूची का उपयोग किया जा सकता है। इससे मतदाता सूची को अद्यतन करने में लगने वाले समय और धन की भारी बचत होगी।
      • इससे नागरिकों के लिये भी आसानी हो जाएगी क्योंकि उन्हें एक बार सूचीबद्ध हो जाने के बाद मतदाता सूची से अपना नाम गायब होने की चिंता से मुक्ति मिलेगी।
  • सुरक्षा बलों की तैनाती में कमी: चुनाव को शांतिपूर्ण ढंग से संपन्न कराने के लिये बड़ी संख्या में पुलिसकर्मी और अर्द्धसैनिक बल तैनात किये जाते हैं। इसमें बड़े पैमाने पर पुनः तैनाती किया जाना शामिल है, जिसमें भारी लागत आती है। यह कानून प्रवर्तन से संलग्न प्रमुख कर्मियों को उनके महत्त्वपूर्ण कार्यों से भी विचलित करता है। एक साथ चुनाव आयोजित होने से इस तरह की तैनाती की आवश्यकता कम की जा सकती है।
  • खरीद-फरोख्त का अंत: विशिष्ट अवधि पर चुनाव कराने से संभावित रूप से निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा खरीद-फरोख्त या हॉर्स-ट्रेडिंग (horse-trading) में कमी आ सकती है, जो दल-बदल विरोधी कानून (anti-defection law) के प्रवर्तन के बावजूद चिंता का विषय बना हुआ है। निश्चित अंतराल पर चुनाव कराने से उनके लिये व्यक्तिगत लाभ के लिये दल बदलना या गठबंधन बनाना कठिन सिद्ध हो सकता है।
  • ‘फ्रीबीज़’ में कमी और राज्य की वित्तीय स्थिति में सुधार: बार-बार चुनावों के कारण सरकारें हर चुनाव में मतदाताओं को लुभाने के लिये कुछ नीतिगत निर्णय लेती हैं। हालाँकि इसे पूरी तरह से रोका नहीं जा सकता है, लेकिन सरकारों द्वारा मुफ़्त उपहारों या फ्रीबीज़ (Freebies) की घोषणा करने की आवृत्ति में कमी आएगी। बार-बार चुनावों के कारण ऐसी स्थिति पैदा हो गई है कि कई राज्य सरकारें वित्तीय बदहाली की शिकार हैं। चुनावों की संख्या कम होने से उनकी वित्तीय स्थिति बेहतर बन सकती है।
  • व्यवहार्यता की समस्या: संविधान के अनुच्छेद 83(2) और 172 क्रमशः उपबंध करते हैं कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल पाँच वर्ष के होंगे, यदि उन्हें इससे पूर्व विघटित नहीं कर दिया जाता। लेकिन ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं (अनुच्छेद 356 में वर्णित परिस्थितियाँ) जहाँ विधानसभाओं को उनके कार्यकाल से पूर्व ही विघटित कर दिया जाए। इस प्रकार, ONOE से कुछ गंभीर प्रश्न संलग्न हैं, जैसे:
    • यदि केंद्र या राज्य की सरकार कार्यकाल के मध्य में ही गिर जाती है तो क्या होगा?
    • इस परिदृश्य में प्रत्येक राज्य में दोबारा चुनाव कराया जाएगा या राष्ट्रपति शासन अधिरोपित होगा?
  • लॉजिस्टिक्स संबंधी चुनौतियाँ: यह इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों, कर्मियों और अन्य संसाधनों की उपलब्धता और सुरक्षा के संदर्भ में लॉजिस्टिक चुनौतियाँ पेश करेगा। निर्वाचन आयोग को इतनी बड़ी कवायद के प्रबंधन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है।
  • संघवाद के विचार के विरुद्ध: ONOE का विचार ‘संघवाद’ (Federalism) की अवधारणा और भावना से मेल नहीं खाता है क्योंकि यह इस धारणा पर स्थापित है कि संपूर्ण राष्ट्र ‘एक’ (one) है, जो कि अनुच्छेद 1 के उपबंध का खंडन करता है जहाँ भारत को ‘राज्यों के संघ’ (Union of States) के रूप में देखा गया है।
  • विधिक चुनौतियाँ: न्यायमूर्ति बी.एस. चौहान की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि संविधान के मौजूदा ढाँचे के भीतर एक साथ चुनाव कराना संभव नहीं हैं।
    • इसमें कहा गया कि एक साथ चुनाव कराने के लिये संविधान, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 और लोकसभा एवं विधानसभाओं के प्रक्रिया नियम (Rules of Procedure) में उपयुक्त संशोधन करने की आवश्यकता होगी।
    • आयोग ने इसके लिये कम-से-कम 50% राज्यों से अनुसमर्थन प्राप्त करने की भी अनुशंसा की थी, जो सरल कार्य नहीं है।
  • क्षेत्रीय हितों पर ग्रहण: बार-बार होने वाले चुनावों के वर्तमान स्वरूप को लोकतंत्र में लाभप्रद स्थिति के रूप में देखा जा सकता है क्योंकि यह मतदाताओं को उनकी आवाज़ को बारंबार सुने जाने का अवसर देता है। चूँकि राष्ट्रीय और राज्य चुनावों के अंतर्निहित मुद्दे अलग-अलग होते हैं, इसलिये वर्तमान ढाँचा मुद्दों के मिश्रण को रोकता है, जिससे अधिक जवाबदेही सुनिश्चित होती है।
    • आईडीएफसी इंस्टिट्यूट (IDFC Institute) द्वारा वर्ष 2015 में किये गए एक अध्ययन में पाया गया कि एक साथ चुनाव कराने पर इस बात की 77% संभावना बनेगी कि विजित राजनीतिक दल या गठबंधन लोकसभा और किसी राज्य की विधानसभा दोनों में जीत दर्ज करेंगे। यह प्रत्येक राज्य की विशिष्ट मांग और आवश्यकताओं को क्षीण करेगी।
  • लागत-प्रभावी नहीं होने की संभावना: निर्वाचन आयोगनीति आयोग आदि के विभिन्न अनुमान बताते हैं कि पाँच वर्ष के चक्र में सभी राज्य और संसदीय चुनाव आयोजित करने की लागत 10 रुपए प्रति मतदाता प्रति वर्ष आती है। नीति आयोग की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि एक साथ चुनाव कराये जाने पर यह लागत 5 रुपए प्रति मतदाता प्रति वर्ष होगी।
    • एक साथ चुनाव आयोजित कराने के लिये बड़ी संख्या में EVMs और VVPATs की तैनाती की आवश्यकता होगी जिससे अल्पावधि में आरंभिक लागत बढ़ जाएगी। इस प्रकार, प्रति वर्ष में प्रति मतदाता 5 रुपए की बचत करने के लिये संविधान में संशोधन करना बहुत अच्छा विचार नहीं माना जा सकता है।
  • चुनावी व्यय अनिवार्य रूप से नकारात्मक स्थिति नहीं: आर्थिक शोध से पता चलता है कि राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों द्वारा किया जाने वाला चुनावी खर्च वास्तव में निजी खपत को बढ़ावा देकर और उत्प्रेरक/प्रोत्साहक के रूप में कार्य कर अर्थव्यवस्था और सरकार के कर राजस्व को लाभ पहुँचाता है।

  • एक साथ चुनाव की आवश्यकता एवं व्यवहार्यता पर सभी राजनीतिक दलों और राज्यों के बीच आम सहमति का निर्माण किया जाना चाहिये। यह विभिन्न हितधारकों के बीच संवाद, परामर्श और विचार-विमर्श के माध्यम से किया जा सकता है।
  • एक साथ चुनाव आयोजन को संभव करने के लिये संविधान, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 और लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं के प्रक्रिया नियम में संशोधन करना होगा।
    • इसके लिये संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत और कम से कम आधे राज्यों के अनुमोदन की आवश्यकता होगी।
  • एक साथ चुनाव कराने के लिये आवश्यक बुनियादी ढाँचे और प्रौद्योगिकी, जैसे इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVMs), मतदाता-सत्यापित पेपर ऑडिट ट्रेल (VVPAT) मशीन, मतदान केंद्र, सुरक्षा कर्मी आदि में निवेश करना होगा।
  • लोकसभा और राज्य विधानसभावों के चुनावी चक्रों को संरेखित करने के लिये एक संवैधानिक संशोधन के माध्यम से लोकसभा और राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल या तो बढ़ाया जाएगा या कम किया जाएगा।
  • अविश्वास प्रस्ताव, विधानसभाओं का समयपूर्व विघटन, त्रिशंकु संसद आदि स्थितियों से निपटने के लिये एक विधिक ढाँचा स्थापित करना होगा।
    • इसे वर्ष में दो बार आयोजित किया जा सकता है ताकि यदि किसी राज्य की विधानसभा समय से पहले भंग हो जाती है तो अगले चक्र में उस राज्य के लिये पुनः चुनाव कराया जा सके।
  • एक साथ चुनाव कराने के लाभों और चुनौतियों के बारे में मतदाताओं के बीच जागरूकता पैदा करना तथा यह सुनिश्चित करना कि वे भ्रम या असुविधा के बिना अपने मताधिकार का प्रयोग करने में सक्षम हों।

सरकार को ONOE को लागू करने में जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिये। उसे अतिरिक्त अध्ययन, डेटा के मूल्यांकन और इस अवधारणा को लागू करने के तरीके पर मतदाताओं, विपक्षी दल के नेताओं एवं स्थानीय दलों से प्रतिक्रिया आमंत्रित करनी चाहिये। इस प्रकार, पूरे देश को यह तय करने का अवसर दिया जाना चाहिये कि ‘एक देश, एक चुनाव’ लागू करने की आवश्यकता है या नहीं।

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